सैकड़ों लापता मज़दूूरों के परिजनों का पॉवर प्रोजेक्टों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन
बीते 7 फरवरी को उत्तराखंड में हुए हादसे के बाद लापता मज़दूरों के परिजनों के सब्र का बांध टूटने लगा है।
लापता मज़दूरों के परिवार वालों का आरोप है कि 200 से ज्यादा लोग अब भी लापता है और बावजूद इसके प्रशासन का सर्च अभियान खानापूर्ति बन कर रह गया है।
आधिकारिक रूप से अबतक 58 शवों को बरामद किया गया है लेकिन तपोवन के टनल में कीचड़ भर जाने से अंदर लापता लोगों का अता पता नहीं है।
उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के नेता पीसी तिवारी दो दिन पहले घटनास्थल पर गए थे। फ़ोन पर उन्होंने वर्कर्स यूनिटी को बताया कि बहुत सारे मज़दूर लापता हैं और कई सारे स्थानीय लोगों का भी पता नहीं चल रहा।
अपने परिजनों के बारे में पता करने पहुंचे लोगों ने बुधवार को एनटीपीसी और ऋषिगंगा प्रोजेक्ट के मैनेजमेंट के ख़िलाफ़ प्रदर्शन किया।
देहरादून से पत्रकार नवीन सती ने फ़ोन पर बताया कि बिजली कंपनियां अपने यहां काम करने वाले मज़दूरों के बारे में पूरी जानकारी नहीं दे रही हैं। अभी तक इस आपदा में प्रभावित लोगों की पूरी लिस्ट तक जारी नहीं की गई है।
दुर्घटना स्थल पर दूर-दराज से अपने परिजनों के तलाश में पहुंचे लोग अब हताश हो गये हैं।
पीसी तिवारी ने कई वीडियो वर्कर्स यूनिटी के साथ साझा किए जिसमें परिजन हताश और परेशान दिखाई दे रहे हैं और प्रशासन की शिकायत कर रहे हैं।
नेपाल से अपने परिजनों के तलाश में आये लोगों का कहना है कि “राहत कार्य में लगे लोगों के लिए लापता लोगों की तलाश से ज्यादा जरुरी काम टूटे सड़के का निर्माण करना रह गया है।उनसे कुछ कहने पर उल्टे हम लोगों से ही पुछने लगते हैं कि बताइए कहां खुदाई करनी है या कहां ढूंढना हैं।”
बिहार के सिवान से अपनी भाई की तलाश में आए एक व्यक्ति ने बताया कि उनका भाई जिसस कंपनी के पावर प्रोजेक्ट के लिए काम कर रहा था, उससे संपर्क करने पर कंपनी के लोग कह रहे हैं कि हमारा ये काम ठेका पर चल रहा था और आप उसके ठेकेदार से संपर्क करिए। कंपनी को ये भी नहीं पता कि हादसे के दिन उनका भाई कहां काम कर रहा था।
हादसे के बाद से स्थानीय लोगों में भी भारी असंतोष है। एक स्थानीय व्यक्ति ने बताया कि हादसे के बाद से आस पास के गांव के कई लोग लापता हैं और अब उनके जीवित बचे रहने की कोई संभावना नज़र नहीं आ रही है।
उन्होंने बताया कि प्रोजेक्ट के निर्माण की घोषण के बाद से ही स्थानीय स्तर पर पुरज़ोर विरोध हो रहा है।
आसपास के गांव वालों ने बताया कि इस प्रोजेक्ट की शुरुआत से ही विरोध किया जा रहा है और विरोध में शामिल लोगों को पुलिस के सहयोग से झूठे मुकदमों में फंसा कर जेल में डाल दिया गया।
पर्यावरणविद् और सामाजिक कार्यकर्ता चंडीदास भट कहते हैं, “इस तरह के प्रोजेक्ट कंपनियों के लिए कभी घाटे के सौदा नहीं होते क्योंकि इन प्रोजेक्टों का बीमा कराया गया होता है। घाटा सिर्फ और सिर्फ स्थानीय लोगों, मज़दूरों और पर्यावरण का है, जिन्हें आपदाओं का सामना करना पड़ता है।”
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