एक अप्रैल से ख़त्म हो जाएगा हड़ताल का अधिकार, लेनी होगी अनुमति 60 दिन से अधिक नहीं चल सकता आंदोलन
By मिष्टी वर्मा और पॉम्पी बनर्जी
2018 से 2020 के बीच, केंद्रीय श्रम और रोजगार मंत्रालय ने 29 श्रम कानूनों को बदलने के लिए चार मसौदा लेबर कोड (श्रम संहिताएं) बनाए जिन्हें अब संसद से पास भी कराया जा चुका है और एक अप्रैल से इसे लागू भी किया जाएगा।
यह कोशिश लंबे समय से लंबित दूसरे राष्ट्रीय श्रम आयोग की सिफारिशों के अनुसार किए गए। आयोग ने श्रम कानून को संविधान के दायरे में रहकर सुगम और आसान बनाने की सिफारिश की थी।
भारत का 90 फिसदी इलाका असंगठित क्षेत्र में आता है। यहां पर श्रम कानूनों को ठीक से लागू नहीं किया जाता है।
हाल ही में कोरोना महामारी के कारण लागू हुए लॉकडाउन में लाखों मजदूरों को चलकर अपने गृह राज्य जाना पड़ा। मजदूर तपती धूप में भूखे-प्यासे मीलों चलकर अपने गृह राज्य जा रहे थे। इस घटना ने उन कानूनों की व्यर्थता को उजागर करके रख दिया जो इऩ्हीं मजदूरों के लिए बनाए गए थे।
संसद में चार लेबर कोड़ के पेश होते ही 29 श्रम कानूनों को खत्म कर दिया गया और इन्हें लेबर कोड़ में ही समेट दिया गया।
कोड ऑन वेजेस 2019 में संसद से पास हो गया था। वहीं औद्योगिक संबंध संहिता, सामाजिक सुरक्षा पर कोड, व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्य की स्थिति कोड, इन सभी को सितंबर 2020 में संसद में फिर से पेश किया गया और कुछ ही दिनों बाद पास कर दिया गया।
- लेबर कोड पर श्रम मंत्री संतोष गंगवार की बुलाई मीटिंग का ट्रेड यूनियनों ने किया बहिष्कार, कहा- तमाशा नहीं चलेगा
- नए लेबर कोड में हड़ताल करना गुनाह, यूनियनों और मज़दूरों पर भारी ज़ुर्माने का प्रावधान
हालांकि कोड के विश्लेषण, स्टैंडिंग कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया कि 29 श्रम कानूनों के मुकाबले ये चार लेबर कोड मजदूरों के अधिकारों को और कमजोर कर रहा है। लेकिन भारतीय उद्योगपतियों की संस्थाओं ने इसका खुलकर स्वागत किया।
लेकिन ये कोड इतने आनन फानन में बनाए गए कि इसके विरोधाभास को भी सरकार ने देखना उचित नहीं समझा। वैसे तो किसी भी कोड का रिश्ता एक दूसरे के साथ सीधे तौर पर नहीं है। लेकिन कोड में कुछ क़ानून बिल्कुल विरोधी हैं।
उदाहारण के लिए देखें-
1. कोड ऑन वेजेस (मज़दूरी पर कोड): इस क्षेत्र में सबसे अधिक मजूदर काम करते हैं। ये एक असंगठित क्षेत्र है। लेकिन यहां पर मजदूरों के अधिकार की बात ये कानून नहीं करता है। न्यूनतम मजदूरी की गणना करने वाला फार्मूला भी बहुत पुराना और समय के साथ अप्रासंगिक हो चुका है और बहुत सारे कारणों को नज़रअंदाज़ कर देने वाला है।
2. सामाजिक सुरक्षा कोड के तहत, गिग मजदूर, कोठी में काम करने वाले मजदूर, रेलवे प्लेटफॉर्म पर काम करने वाले मजदूर आते हैं। लेकिन आशा वर्कर, आंगनवाड़ी वर्कर और बीड़ी वर्कर के लिए कोई जगह नहीं है। यहां पर ले ऑफ और मजदूरों की छंटनी को लेकर कोई नियम नहीं बनाया गया है। वहीं कोड जिन पेशे से संबंधित बीमारियों को कवर करता है, उसकी सूची OSHWC कोड में पेशे से संबंधित बीमारियों की सूची से बहुत अलग है।
3. व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और वर्किंग कंडीशन कोड (OSHWC) के अंतर्गत, घरों में काम करने वाले मजदूर, असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले लोग, महिला सुरक्षा और मौसम के अनुसार पलायन करने वाले मजदूरों या परिवारों के पलायन को लेकर कोई कड़ा प्रावधान नहीं है। यहां तक कि महिला मज़दूरों के ख़िलाफ़ होने वाले शारीरिक और यौन हिंसा को लेकर भी कोई प्रवाधान नहीं है। ये किशोर किशोरियों को ख़तरनाक़ या ज़हरीले उद्योगों में काम करने की इजाज़त देता है। मज़दूरों को दिए गए कर्ज की वापसी को लेकर भी बहुत विरोधाभासी क़ानून बनाए गए हैं। ये कोडकहता है कि अगर प्रवासी मज़दूर की नौकरी ख़त्म है तो उसका कर्ज़ भी समाप्त हो जाएगा लेकिन कोड ऑन वेजेस के अनुसार श्रमिकों को दिया गया एडवांस उसकी पहली तनख्वाह से आनी चाहिए।
- लेबर कोड लागू हुआ तो ठेकेदारों की गुंडागर्दी को रोकने वाला कोई नहीं होगा, न लेबर कोर्ट, न सरकार
- कारपोरेट के फ़ायदे के लिए मोदी ले आए हैं लेबर कोड, मज़दूरों से 12 घंटे की ड्यूटी कराने की दी छूट
4. औद्योगिक संबंध कोडः इस कोड ने उमजदूरों के अधिकारों को खोखला कर दिया है, जबकि उद्योगों को भरपूर फायदा पहुंचाने वाला है। उदाहरण के लिए मजदूरों को हड़ताल से पहले कंपनी मालिक को 14 दिन पहले जानकारी देनी होगी और ये हड़ताल भी 60 दिन से अधिक नहीं की जा सकती। ये कोड कंपनी मालिकों को 300 मज़दूरों तक की संख्या वाली कंपनी में एक साथ छंटनी या ले ऑफ़ का अधिकार देता है और इसके लिए कंपनी को कोई ज़ुर्माना या मुआवज़ा भी नहीं देना होगा।
5. अंतर राज्यीय पलायन यानी एक राज्य से दूसरे राज्यों में काम करने वाले मज़दूरों को लेकर ये कोड मौन हैं। इनके अधिकारों या सुरक्षा को लेकर कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है।
OSHWC कोड, जो इंटर-स्टेट माइग्रेंट वर्कर्स एक्ट, 1979 की जगह लेता है, इसमें श्रमिकों की बुनियादी सुरक्षा जैसे शब्द नहीं शामिल हैं। उदाहरण के लिए, श्रमिकों का पासबुक। प्रवासी श्रमिक अब ’ठेका मज़दूर’ की श्रेणी में आएंगे। ये श्रेणी भी प्रवासी मज़दूरों के अधिकार, उनकी सुरक्षा, मज़दूरों की तस्करी और उनके शोषण को लेकर बिल्कुल मौन है।
विशेष रूप से असंगठित या प्रवासी श्रमिकों के लिए कोई सामाजिक सुरक्षा योजनाएं नहीं बनाई गई हैं। स्पष्ट रूप से कहें तो, कोड के तहत किसी भी श्रमिकों के लिए कोई आपातकालीन प्रावधान नहीं है। पलायन के पीछे के शोषण को तो बिल्कुल छोड़ ही दिया गया है।
- लेबर कोड से भारत बनेगा आत्मनिर्भर? भारी विरोध के बावजूद श्रम मंत्री संतोष गंगवार ने कहा
- मारुति सुज़ुकी मज़दूर संघ ने की कृषि क़ानून और लेबर कोड को तत्काल वापस लेने की मांग
OSHWC कोड, बंधुआ श्रम अधिनियम, बाल और किशोर श्रम अधिनियम
सबसे हैरानी की बात ये है कि जितने भी कोड बनाए गए हैं, उनका मौजूदा क़ानूनों में सुधार का कोई संबंध नहीं है। खासकर जो क़ानून समाज के सबसे शोषित समूहों जैसे बंधुआ मज़दूर, बच्चे और किशोर लेबर की सुरक्षा उनके अधिकारों के लिए बने थे, उनको बिल्कुल ख़त्म ही कर दिया गया है।
विश्लेषणों से पता चलता है कि OSHWC कोड और बंधुआ मज़दूरी एक्ट, चाइल्ड एंड एडोल्सेंट लेबर एक्ट के बीच काफ़ी विरोधाभास और यहां तक कि कई मामलों में ये एक दूसरे के ख़िलाफ़ ही जाते हैं।
बंधुआ मजदूरों को लेकर बने कानून सुनिश्ति करता है कि बाल मजदूरी को बढ़ावा न मिले, किसी का शोषण न हो और कोई भी बंधुआ मजदूर न बने। लेकिन आज भी असंगठित क्षेत्र में लाखों बंधुआ मज़दूर फंस हुए हैं और फंस रहे हैं।
OSHWC कोड सीधे तौर पर बंधुआ श्रम प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम, 1976 से संबंधित नहीं है। हालांकि, ठेका मज़दूर और प्रवासी मज़दूर दोनों ही इस क़ानून के दायरे में आते हैं।
लेकिन इन दो समूहों की सुरक्षा के लिए बने ख़ास क़ानूनों, ठेका मज़दूर (विनियमन और उन्मूलन) अधिनियम, 1970, और अंतर-राज्य प्रवासी कामगार (रोजगार और सेवा की शर्तों का विनियमन) अधिनियम, 1979 को ख़त्म कर इसकी जगह OSHWC कोड बनाया गया है और जिसमें इसके बारे में कोई बात नहीं कही गयी है।
कोड के अंतर्गत बने किसी भी क़ानून में दिवालिया होने वालों और सज़ायाफ़्ता अपराधियों का डाटाबेस तैयार का प्रावधान नहीं है। साथ ही कंपनी में अधिकारियों द्वारा नियमित चेकिंग किए जाने पर भी चुप्पी साध ली गई है। इस कानून में दलित-बहुजन-आदिवासी श्रमिकों और अन्य हाशिए के समुदायों के अधिकारों और उनके संरक्षण के लिए कोई विशेष प्रावधान नहीं है। और न ही शारीरिक, यौन हमले या उल्लंघन की स्थिति में मुआवज़े का प्रावधान है।
बाल और किशोर श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम, 1986 का तो OSHWC कोड से दूर दूर तक का नाता नहीं दिखता। ये दोनों क़ानून मानते हैं कि 14 साल की उम्र को एक सीमा मानते हैं। यानी 14 से कम उम्र के बच्चे और उससे उपर और 18 साल तक की उम्र को किशोर की श्रेणी में रखते हैं। ये कानून बच्चों को बाल मजदूरी की इजाजत नहीं देता है। इसके तरत अधिकारियों को इस तरह की जगह पर नियमित निरीक्षण करने का आदेश देता है। वहीं ये भार मालिकों पर है कि वो इस बात सबूत दें कि कहीं वो बालमज़दूरी तो नहीं करवा रहे।
अब OSHWC और इन क़ानूनों में विरोधाभास देखिए। बाल श्रम उन्मूलन अधिनियम किशोरों को खतरनाक व्यवसायों में रोजगार पर प्रतिबंध लगाता है, लेकिन ओएसएचडब्ल्यूसी कोड 16 वर्ष और उससे अधिक आयु के लोगों को खादानों में काम करने की अनुमति देता है।
जबकि बाल श्रम अधिनियम माता-पिता को बच्चों से मजदूरी कराने के लिए दंडित करता है, ओएसएचडब्ल्यूसी कोड केवल नियोक्ता को दंडित करता है। दोनों प्रक्रियाओं में खतरनाक प्रक्रियाओं के अनुसूचियों में भी भारी भिन्नता है।
विश्लेषण से ये भी पता चलता है कि क़ानूनों में प्रवासी किशोरों की सुरक्षा को लेकर बहुत खामियां हैं। माता-पिता के काम पर जाने के बाद प्रवासी किशोर खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं उन्हें किसी जिम्मेदार व्यक्ति की देखभाल की जरूरत है।
यहां पर सरकार उन्हें न तो अच्छी शिक्षा मुहैया कराती है, न रहने को घर देती है और न ही काम की जगह पर बच्चों को सुरक्षित रखने की कोई व्यवस्था होती है। बाल मजदूर उन्मूलन कानून किशोरों को परिवारिक व्यवसाय में काम करने की इजाज़त देता है। क्योंकि यहां पर उन्हें कोई खतरा नहीं है। जबकि OSHWC कोड असंगठित क्षेत्रों को कवर ही नहीं करता है।
OSHWC कोड ने श्रम पर संसदीय स्थायी समिति की सिफारिशों की अनदेखी की है और इन श्रमिक समूहों की तस्करी या शोषण के ख़िलाफ़ सुरक्षा पर चुप है। बंधुआ / गिरमिटिया मजदूर, और बच्चे और किशोर प्रवासियों को इन कानूनों में अत्यंत असुरक्षित छोड़ा जा रहा है।
कई सारे नियमों, योजनाओं, कार्यक्रमों को बनाने की ज़िम्मेदारी राज्यों पर डाल दी गई है। इसलिए इन विरोधाभासों को कम करने की कुछ संभावना राज्यों की ओर से बन सकती है ताकि जो केंद्रीय नियम हैं और राज्य के नियम हैं उनमें गैप कम हो सके।
(पॉम्पी बनर्जी और मिष्टी वर्मा इंडियन लीडरशिप फ़ोरम अगेंस्ट ट्रैफिकिंग के सदस्य हैं। लेट्स टॉक लेबर जागरूकता अभियान का हिस्सा भी हैं और उन्होंने प्रस्तावित लेबर कोडों का विश्लेषण किया है।)
(यह लेख द क्विंट वेबसाइट से साभार लिया गया है जिसका अनुवाद खुशबू सिंह ने किया है। मूल लेख यहां पढ़ें। )
(वर्कर्स यूनिटी स्वतंत्र निष्पक्ष मीडिया के उसूलों को मानता है। आप इसके फ़ेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब को फॉलो कर इसे और मजबूत बना सकते हैं। वर्कर्स यूनिटी के टेलीग्राम चैनल को सब्सक्राइब करने के लिए यहां क्लिक करें।