सिर्फ 10 रु. का इंजेक्शन कैसे बचा रहा है कोरोना मरीज़ों की जान?
कोरोना संक्रमितों के इलाज में देश में स्टेरॉयड्स को कारगर माना गया है। डेक्सामिथेसोन, मिथाइल प्रीडिनिसोलोन और कॉर्टिसोन जैसे स्टेरॉयड्स के इंजेक्शन और दवाओं से गंभीर मरीजों को राहत पहुंचाया जा रहा है।
कोरोना के इलाज में स्टेरॉयड्स से मरीजों की जान कैसे बच रही है यह यूपी के एक बड़े सरकारी अस्पताल में कोविड वार्ड के इंचार्ज एक अनुभवी डॉक्टर ने विस्तार से बताया।
वो कहते हैं कि कोरोना के इलाज की एक नई पद्धति सामने आई है जिसमें स्टेरॉयड्स के इंजेक्शन या टैबलेट दिए जाते हैं जिससे कोविड के बाद शरीर के अंगों पर जो दुष्प्रभाव पड़ता है उसमें फायदा होता है। मसल ऐसे मामले बहुत आ रहे हैं जिसमें कोरोना मरीज ठीक होने के बाद भी हर्ट अटैक से मर रहे हैं। ऐसे हालात में स्टेरॉयड्स बहुत कारगर हैं।
पढ़ें, क्या है इलाज की नई पद्धति-
कोरोना का कोई निर्धारित इलाज नहीं है। इसका इलाज सपोर्टिव है। कहीं सांस में दिक्कत हो तो उसके लिए हम उन्हें स्टेरॉयड्स देंगे, ऑक्सीजन देंगे। दरअसल इसका जो लाइन ऑफ़ ट्रीटमेंट है वह स्टेरॉयड्स ही है। यह बहुत ही मामूली इंजेक्शन है जो 10 रुपये में आता है लेकिन अभी यह लोगों की जिंदगी बचा रहा है।
शरीर में कोविड का जो चक्र है उसमें जब इंफेक्शन हो जाता है तो उसके पहले लक्षण तीन-चार दिन बाद प्रकट होते हैं। पहले लक्षण में सूखी खांसी, बुखार है वैसे ही जैसे सर्दी जुखाम के लक्षण होते हैं। शुरुआती चरण यानी की पहले हफ्ते में स्टेरॉयड्स को नहीं लिया जाता है। उसका कारण ये है कि शरीर में जब बाहर से इंफेक्शन होता है तो हमारा शरीर उसके खिलाफ लड़ाई लड़ता है। उस प्रक्रिया में कई बार बुखार आना शुरू होता है।
दरअसल यह बुखार हमारे शरीर का संघर्ष होता है। नया वायरस होने की वजह से शरीर इसको नहीं जानता है तो यह इंफेक्शन आगे बढ़ता है और फेफड़ों में पहुंच जाता है। फेफड़े के अंदर वो हिस्सा जहां पर गैस एक्सचेंज होते हैं यह इंफेक्शन वहीं पर असर करता है। यानी कि वह हिस्सा जहां पर खून से कार्बन डाईऑक्साइड निकलकर फेफड़ों में आता है और ऑक्सीजन फेफड़ों से निकलकर खून में जाता है।
हमारे शरीर की जो रक्षा पंक्ति होती है उसमें कुछ कैमिकल्स होते हैं जिसे हम साइटोकाइन्स कहते हैं। इन साइटोकाइन्स की संख्या तेजी से बढ़ती है। ये शरीर के लड़ने वाले ऐसे सिपाही होते हैं जो सामने आने वाली हर चीज को धराशायी कर देते हैं। उसमें दुश्मन और दोस्त दोनो ही होते हैं। फिर फेफड़ों के अंदर साइटोकाइन्स तेजी से बढ़ता है। तब हमारा शरीर कुछ ऐसी चीजों का निर्माण करता है जो हमारे शरीर का ही नुकसान करते हैं। उसमें फेफड़े खराब होने शुरू होते हैं।
इंफेक्शन का असर शुगर को कंट्रोल करने वाले पैन्क्रीआज़ पर पड़ता है। उसका असर दिल पर भी पड़ता है। उससे दिल की बीमारी की दिक्कत होनी शुरू होती है। इसका असर किडनी पर भी पड़ता है। वहीं कुछ केस में यह दिमाग तक भी पहुंच जाता है। जरूरी नहीं है कि सभी केस में यही हो कहीं दूसरी चीज भी दिखती है।
दूसरे हफ्ते में जो हमारे शरीर की रक्षा पंक्ति पर हमला होता है उसे कंट्रोल करना होता है। इसका एक सीमा के अंदर रहना बहुत जरूरी होता है ताकि वायरस को मारा जा सके और हमारा शरीर सुरक्षित रहे।
ऐसे समय में सही समय पर स्टेरॉयड्स देना जीवन रक्षक होता है। यानी जब सांस की दिक्कत आनी शुरू हो जाए मतलब इंफेक्शन फेफड़ों तक पहुंच गया है और गैस एक्सचेंज को बाधित कर रहा है तब बीटामेथासोन साथ होना ही चाहिए वरना वह नुकसानदायक हो जाएगा।
इसे हम 5-6 दिन गुजर जाने के बाद सुबह शाम भारी मात्रा में लगाना शुरू करते हैं। ऐसे मरीजों को हमें अस्पताल में भर्ती करना होता है। क्योंकि इस प्रक्रिया में किसी भी समय मरीज को ऑक्सीजन की जरूरत पड़ सकती है। बस यही है कि उसकी सही तरह से निगरानी करनी होती है।
ध्यान रखने वाली बात यह है कि पहला हफ्ता गुजर जाने के बाद इसे डॉक्टर की निगरानी में ही दिया जाए। दरअसल स्टेरॉयड्स को मनमाने तरीके से इस्तेमाल करने से उसके काफी नुकसान होते हैं।
स्टेरॉयड्स को हमेशा एक डोज के साथ शुरू किया जाता है फिर लक्षण देखते हुए उसे धीरे-धीरे घटाना होता है घटाते हुए उसे एकदम नीचे लाकर बंद करते हैं। इसी तरह की प्रक्रिया इसके टैबलेट के साथ भी होती है।
कोरोना की दूसरी लहर के साथ ही बहुत तेजी से लोगों की मौतें होनी शुरू हो गईं। अस्पतालों के अंदर भी। तो फिर लक्षणों के आधार पर इलाज शुरू हुआ। अब यह जरूरी नहीं है कि इस इलाज की शुरुआत किस अस्पताल से हुई लेकिन धीरे-धीरे अब यह स्थापित हो गया है कि गंभीर मरीजों के लिए लाइन अप ट्रीटमेंट स्टेरॉयड्स पर रहेगा।
पूरे देश में अब इसी पर काम हो रहा है। इस वजह से यह बाजार से गायब हो गया है और उसकी कालाबाजारी भी हो रही है।
(चेतावनीः स्टेरॉयड्स का इस्तेमाल केवल चिकित्सकीय परामर्श में ही करें।)
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