तीन साल बाद भीमा कोरेगांव मामले में वरिष्ठ ट्रे़ड यूनियनिस्ट सुधा भारद्वाज की ज़मानत

तीन साल बाद भीमा कोरेगांव मामले में वरिष्ठ ट्रे़ड यूनियनिस्ट सुधा भारद्वाज की ज़मानत

बॉम्बे हाईकोर्ट ने बुधवार को वरिष्ट ट्रेड यूनियनिस्ट और वकील सुधा भारद्वाज को 2018 भीमा कोरेगांव-एल्गार परिषद मामले में डिफॉल्ट जमानत दे दी।

हालांकि, कोर्ट ने आठ अन्य आरोपियों सुधीर धवले, डॉ पी वरवर राव, रोना विल्सन, एडवोकेट सुरेंद्र गाडलिंग, प्रोफेसर शोमा सेन, महेश राउत, वर्नोन गोंजाल्विस और अरुण फरेरा को जमानत देने से इनकार कर दिय। सभी को जून से अगस्त 2018 के बीच गिरफ्तार किया गया था। कोर्ट ने जमानत की शर्तें तय करने के लिए 8 दिसंबर को सुधा भारद्वाज को स्पेशल एनआईए कोर्ट में पेश करने का निर्देश दिया है।

 

जस्टिस एसएस शिंदे और जस्टिस एनजे जमादार की खंडपीठ ने भारद्वाज की जमानत याचिका पर फैसला चार अगस्त को और आठ अन्य की आपराधिक अर्जी एक सितंबर को सुरक्षित रख लिया था। एनआईए की ओर से पेश अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल अनिल सिंह ने सुप्रीम कोर्ट के दो हालिया फैसलों के मद्देनजर आदेश के संचालन और कार्यान्वयन पर रोक लगाने की मांग की। हालांकि, अदालत ने यह कहते हुए राहत देने से इनकार कर दिया कि वह पहले ही अपने आदेशों पर विचार कर चुकी है।

याचिकाकर्ताओं ने दलील दी कि पुणे सत्र न्यायालय ने 2018-19 में उनके खिलाफ मामले का संज्ञान लेने के लिए अधिकृत नहीं थी। उन्होंने दलील दी कि एनआईए एक्ट के तहत केवल एक विशेष अदालत को गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत अपराध करने वालों के मामलों की सुनवाई करने की अनुमति दी गई थी। आरोपियों की ओर से कहा गया कि यही कारण है कि पुणे पुलिस को 2018 में चार्जशीट दाखिल करने की अनुमति देने और बाद में 2019 में 1800 पेज के सप्लीमेंट्री चार्जशीट पर संज्ञान लेने का आदेश शून्य होगा। याचिकाएं आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 439, 193, 482 और 167 (2) (ए) (i) सहपठित गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम की धारा 43 (डी) (2) के तहत दायर की गई हैं।

पीठ ने पहले कहा था कि हाईकोर्ट के रिकॉर्ड भारद्वाज के आरटीआई दस्तावेजों के अनुरूप थे, जो दर्शाता है कि पुणे के जज केडी वडाने एनआईए एक्ट के तहत विशेष अदालत के जज के रूप में अधिसूचित नहीं किया गया था। एडवोकेट युग चौधरी ने एडवोकेट पायोशी रॉय की सहायता से तर्क दिया कि भारद्वाज और उनके सह-आरोपियों को गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) कानून के तहत अपराधों के लिए बुक किया गया था, जो एनआईए एक्ट के तहत एक ‘अनुसूचित अपराध’ है, इसलिए उनका मामला एक विशेष अदालत के समक्ष जाना चाहिए था, न कि जज वडाने के समक्ष।

एडवोकेट जनरल आशुतोष कुंभकोनी और अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल अनिल सिंह ने जवाब में कहा कि यूए (पी) एक्ट राष्ट्रीय जांच एजेंसी को जांच सौंपे जाने के बाद ही एक विशेष अदालत के समक्ष जाएगा। मौजूदा मामले में केंद्र ने 24 जनवरी, 2020 को ही एनआईए को जांच का जिम्मा सौंपा था। इससे पहले पुणे पुलिस मामले की जांच कर रही थी, जब जज केडी वडाने ने 26 नवंबर, 2018 को चार्जशीट दाखिल करने के लिए समय बढ़ाया और 21 फरवरी 2019 को चार्जशीट का संज्ञान लिया।

चौधरी ने बिक्रमजीत सिंह बनाम पंजाब राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भारी भरोसा किया, जहां अदालत ने देखा था कि यूएपीए के तहत सभी अपराध, चाहे एनआईए द्वारा या राज्य सरकार की जांच एजेंसियों द्वारा जांच की जाती है, उनमें एनआईए एक्ट के तहत स्थापित विशेष न्यायालयों द्वारा विशेष रूप से मुकदमा चलाया जा सकता है।

जस्टिस रोहिंटन फली नरीमन की अध्यक्षता वाली तीन जजों की पीठ ने कहा था कि गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम की धारा 43-डी (2) (बी) में पहले प्रावधान के तहत अकेले विशेष न्यायालय के पास 180 दिनों तक समय बढ़ाने का अधिकार क्षेत्र है।

महाधिवक्ता कुंभकोनी ने प्रस्तुत किया कि बिक्रमजीत के मामले के तथ्य वर्तमान मामले के तथ्यों से अलग थे, इसलिए निर्णय लागू नहीं होगा। उन्होंने कहा कि बिक्रमजीत के मामले में आरोपियों की ओर से दो आवेदन दाखिल किए गए थे। पहला चार्जशीट दाखिल करने के लिए मजिस्ट्रेट के आदेश को चुनौती देने वाला और दूसरा सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत डिफॉल्ट जमानत की मांग करना। सत्र अदालत ने विस्तार देने के मजिस्ट्रेट अदालत के आदेश को रद्द कर दिया था, जिसे किसी भी पक्ष ने चुनौती नहीं दी थी।

उन्होंने कहा कि यह डिफॉल्ट जमानत याचिका में था कि बिक्रमजीत का मामला सुप्रीम कोर्ट में सफल हुआ। इसलिए, दोनों मामलों के तथ्य बहुत अलग थे क्योंकि भीमा कोरेगांव-एल्गार परिषद मामले में वारिस आरोप पत्र को दाखिल करने के लिए पुलिस को दिए गए विस्तार को रद्द करने का कोई आदेश नहीं है। सुनवाई योग्य नहीं कुंभकोनी ने दावा किया कि आठ अन्य आरोपियों द्वारा उनकी डिफॉल्ट जमानत याचिका को खारिज करने को चुनौती देने वाली याचिका सुनवाई योग्य नहीं है।

उन्होंने तर्क दिया कि वे चार्जशीट दाखिल करने के लिए समय बढ़ाने के आदेश को चुनौती देने में विफल रहे हैं। उन्होंने कहा, “आरोप पत्र निर्धारित अवधि में दायर किया गया है, इसलिए डिफॉल्ट जमानत का सवाल ही नहीं उठता।” एनआईए के अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि भारद्वाज ने उस समय एक वैध डिफॉल्ट जमानत आवेदन दायर नहीं किया था। हालांकि, एडवोकेट सुदीप पासबोला ने कहा कि चार्जशीट दाखिल करने के विस्तार के आदेश को एक अलग कार्यवाही में चुनौती दी गई थी। इसलिए, यह नहीं कहा जा सकता है कि उन्होंने आदेश को स्वीकार कर लिया है।

(लाईव लॉ से साभार)

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