पुनर्वास की आस में हजारों बाल मजदूर, बेहतर ज़िन्दगी की कल्पना भी मयस्सर नहीं
भारतीय श्रम संगठन के अनुसार कृषि क्षेत्र में सबसे अधिक बाल मजदूर काम करते हैं। इनके पुनर्वास की कोई योजना गांवों में न तो केंद्र सरकार की तरफ से और न राज्य सरकारों की ओर से लागू है। इन बाल मजदूरों को वयस्क मजदूरों की अपेक्षा आधी दिहाड़ी मिलती है।
कहने को ये परिवार की बदहाली के कारण मजबूरी में खेतों में काम करते हैं, लेकिन गरीब परिवारों में इनको एक कमाई करने वाले सदस्य के रूप में समझा और देखा जाता है। इसलिए इनके शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास के बारे में कोई ध्यान नहीं देता।
पिछली जनगणना के मुताबिक बीड़ी, कालीन बुनाई, वस्त्र और खनन जैसे कामों में पांच से चौदह साल के 43.53 लाख बाल कामगार लगे हैं। श्रम मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि देश के सबसे बड़े आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा बाल मजदूर हैं, जिनकी संख्या आठ लाख अट्ठानबे हजार तीन सौ एक है।
उसके बाद बिहार में बाल मजदूरों की संख्या चार लाख इक्यावन हजार पांच सौ नब्बे है। इसके अलावा हरियाणा, झारखंड, दिल्ली, उत्तराखंड जैसे राज्य हैं, जहां बाल मजदूर ज्यादा हैं। ये सरकारी आंकड़े हैं। गैर-सरकारी आंकड़ों में इनकी संख्या इससे कहीं ज्यादा है।
गौरतलब है कि इन्हें वे मूलभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं, जो इनके अधिकारों में हैं। इसलिए इनकी हालात में कोई खास बदलाव नहीं आया है। आज स्थिति यह है कि बाल मजदूर पहले से कहीं ज्यादा शोषित हैं।
इनकी खराब हालात की एक बड़ी वजह योजनाओं का क्रियान्वयन न हो पाना भी है। इनके लिए रहने के लिए आवास, पहनने के लिए कपड़ा और बीमारी की हालात में इलाज की समुचित व्यवस्था नहीं है।
बाल मजूदरों की सबसे बड़ी समस्या पुनर्वास की है। उत्तर प्रदेश और झारखंड को छोड़ कर दूसरे राज्यों में बाल पुनर्वास की स्थिति लगभग शून्य रही। श्रम मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में 2018-19 में 8020, 2019-2020 में 10371 और 2020-2021 में 9363 बाल मजदूरों का पुनर्वास किया गया।
वहीं झारखंड में इसी अवधि में क्रमश: 1225, 2940 और 3239 बाल मजदूरों का पुनर्वास किया गया। लेकिन बिहार में एक भी बाल मजदूर का पुनर्वास नहीं किया गया।
उत्तराखंड में महज 2019-2020 में 62 बाल मजदूरों का पुनर्वास किया गया और हरियाणा में 2018-2019 लेकर 2020-2021 तक महज 171 बाल मजदूरों का पुनर्वास किया जा सका।
श्रम एवं नियोजन मंत्रालय बाल श्रमिकों के पुनर्वास के लिए 1988 से ही राष्ट्रीय बाल परियोजनाओं के माध्यम से एनसीएलपी चला रहा है, लेकिन इसकी रफ्तार बहुत धीमी रही है।
कांच, चूड़ी, पीतल, ताला, कालीन, स्लेट, टाइल, माचिस, आतिशबाजी और रत्न जैसे खतरनाक उद्योगों में लगे बच्चों के पुनर्वास के लिए नौवीं पंचवर्षीय परियोजना में पचीस करोड़ रुपए आबंटित किए गए, लेकिन उससे बाल श्रमिकों की पुनर्वास की समस्या खत्म नहीं हुई, जबकि दसवीं पंचवर्षीय योजना में इसका विस्तार डेढ़ सौ से अधिक जिलों में किया गया। इसके लिए साठ करोड़ रुपए आबंटित किए गए।
आज देश भर में बाल मजदूरों के लिए एनसीएलपी केंद्र हैं, लेकिन उनके लिए विशेष स्कूल, अलग से रोजगार सृजन, सेहत संबंधी योजनाओं पर कोई खास तवज्जो नहीं दिया जा सका है।
दुनिया के कुल बाल मजदूरों में से एक तिहाई भारत में हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत में बचपन सबसे ज्यादा अपने अधिकारों से वंचित है।
2019 में विश्व बाल मजदूर दिवस की थीम थी- ‘बच्चों को खेतों में नहीं, अपने सपनों पर काम करना चाहिए।’ मगर क्या इस थीम पर दुनिया में कोई अमल हुआ? राष्ट्रीय बाल श्रम नीति (एनसीएलपी) को बाल श्रम (निषेध एवं नियमन) कानून 1986 के बाद बाल श्रमिकों की हालात में जो बदलाव आए, वे वैसे सुधार नहीं कर सके, जिससे ये भी समाज की मुख्यधारा में आते और एक बेहतर जिंदगी जीने की ओर अग्रसर होते।
बच्चे देश का भविष्य हैं, पर जो बचपन मजबूर और मजलूम है, शोषण का शिकार है, वह देश का धब्बेदार भविष्य ही माना जाएगा। इस धब्बेदार भविष्य की सुध लेने वाला कोई नहीं है।
क्या महज बाल श्रम, बाल शोषण, बाल हिंसा या बाल अपहरण के खिलाफ कानून बना देने से बचपन सुरक्षित हो जाएगा? सरकार के लिए यह उपेक्षित वर्ग आज तक महत्त्वपूर्ण क्यों नहीं बन पाया है? ऐसे तमाम सवाल हैं, जिनका जवाब अभी मिलना बाकी है।
भारतीय श्रम संगठन के अनुसार कृषि क्षेत्र में सबसे अधिक बाल मजदूर काम करते हैं। इनके पुनर्वास की कोई योजना गांवों में न तो केंद्र सरकार की तरफ से और न राज्य सरकारों की ओर से लागू है। इन बाल मजदूरों को वयस्क मजदूरों की अपेक्षा आधी दिहाड़ी मिलती है।
कहने को ये परिवार की बदहाली के कारण मजबूरी में खेतों में काम करते हैं, लेकिन गरीब परिवारों में इनको एक कमाई करने वाले सदस्य के रूप में समझा और देखा जाता है। इसलिए इनके शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास के बारे में कोई ध्यान नहीं देता।
सरकार ऐसे बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने की बात करती है, लेकिन ये स्कूल जाने ही नहीं पाते या तब जाते हैं, जब काम से इन्हें छुट्टी मिलती है। पांच से चौदह साल के इन बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए जरूरी आहार तक नहीं मिलता और जरूरी आराम की भी कोई व्यवस्था नहीं होती।
भारत में कृषि क्षेत्र में काम करने वाले बाल मजदूरों की तादाद करीब सत्तर प्रतिशत है। इस समस्या के समाधान के लिए खेती में काम करने वाले बाल मजदूरों को भी निकालना होगा।
पर समस्या यह है कि सरकार अगर इन्हें कृषि क्षेत्र से हटाएगी तो उनके और उनके परिवार के लिए आहार, वस्त्र और दूसरी जरूरी चीजों का बंदोबस्त करने के लिए क्रांतिकारी ठोस कदम उठाने होंगे, जो अभी भारत जैसे विकासशील देश में संभव नहीं दिखाई देता है।
इसी तरह कालीन बुनाई में लगे बाल मजदूरों को हटाने के बाद उनके जीवन-यापन और शिक्षा की मुकम्मल व्यवस्था आज तक नहीं हो पाई। भट्ठा मजदूरों की समस्या अपने आप में एक बहुत जटिल समस्या है। इस क्षेत्र में लाखों की तादाद में बाल मजदूर काम करते हैं।
घरों में काम करने वाले बच्चे- जिनमें लड़के-लड़कियां दोनों शामिल हैं- लाखों की तादाद में हैं। कारखानों में काम करने वाले बच्चों के शोषण की अलग कहानी है। इसी तरह सबसे विकट बाल यौन शोषण है। इसमें अधिकांश गायब हुए बच्चे होते हैं।
अगर सरकार के आंकड़े को ही मानें तो तकरीबन दो करोड़ से अधिक बाल मजदूरों का होना, यह बताता है कि देश का बचपन शोषित, असुरक्षित और अन्याय की चक्की में पिसने को अभिशप्त है। ऐसा नहीं कि सरकारों ने बाल मजदूरों को विकास की मुख्यधारा में लाने के लिए कोई कोशिश ही नहीं की है।
कोशिशें की हैं और हजारों की संख्या में बाल मजदूरों को मुक्त भी कराया जा चुका है, लेकिन उन सभी बाल मजदूरों का पुनर्वास आज तक नहीं हो पाया है। अब भी लाखों की तादाद में बाल मजदूर शोषण और अन्याय की चक्की में पिस रहे हैं। लाखों बाल मजदूर सड़क की पटरियों और पेड़ या पुल के नीचे सोते और रहते हैं।
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि बाल मजदूरों का पुनर्वास सवा फीसद की दर से होता आया है। कुछ राज्यों में तो शून्य की रफ्तार से पुनर्वास हो रहा है। प्रधानमंत्री आवास योजना और दूसरी तमाम योजनाओं के तहत गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों को आवास मुहैया हुए हैं, लेकिन बाल मजदूरों के लिए कोई ठोस योजना नहीं है, जिससे सभी के लिए आवास की व्यवस्था हो पाए।
जाहिर है, असंगठित क्षेत्र से ताल्लुक रखने वाले ये बाल मजदूर उन मजलूमों जैसी हालात में रहने को अभिशप्त हैं, जैसे लावारिश किस्म के बच्चे होते हैं। बेहद गरीबी की वजह से जिस वर्ग को पेट भर खाना भी मयस्सर न होता हो, वह भला बेहतर जिंदगी जीने की कल्पना कैसे कर सकता है? इसलिए जरूरत इस बात की है कि बाल कामगारों की पुनर्वास सहित सभी तरह की समस्याओं को प्राथमिकता में रख कर केंद्र और राज्य सरकारें हल करें।
(साभार-जनसत्ता)
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