अभूतपूर्व बेरोज़गारी-1: देश के इतिहास में ऐसी हालत कभी नहीं रही
By एस. वी. सिंह
कोरोना वायरस ने दुनियाभर में लड़खड़ाती-चरमराती पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं, को एकदम धराशायी कर दिया है, भारतीय अर्थव्यवस्था को शायद सबसे ज्यादा। ये महामारी इन्सानों और अर्थव्यवस्थाओं दोनों के लिए एक जैसी घातक सिद्ध हो रही है।
झूठे प्रचार की नींव पर खड़ी हमारी तथाकथित ‘उभरती 5 ट्रिलियन’ वाली अर्थव्यवस्था का गुब्बारा फूट चुका है। अब तो आधिकारिक तौर से भी सरकार को मानना पड़ा है कि वृद्धि की दर नकारात्मक मतलब शून्य से भी कम रहने वाली है।
अर्थव्यवस्थाओं के डूबने का सबसे गहरा और त्वरित प्रभाव बे-रोज़गारी के मोर्चे पर नज़र आता है।
भारतीय अर्थव्यवस्था निगरानी केंद्र (CMIE) द्वारा ज़ारी आंकड़ों के अनुसार मई 2020 के प्रथम सप्ताह में बे-रोज़गारी की औसत दर 27.11% रही (शहरी क्षेत्र में 29.22% तथा ग्रामीण क्षेत्र में 26.69%)।
ये एक नया रिकॉर्ड है, इतनी ज्यादा बे-रोज़गारी दर कभी नहीं रही। हालाँकि असलियत इससे भी ज्यादा भयावह है, वैसे भी मौजूदा सरकार ने आंकड़ों को तोड़ने-मरोड़ने में विशेष योग्यता हांसिलकरली है।
झारखंड राज्य के लिए बे-रोज़गारी का आंकड़ा 59.2% और बिहार राज्य के लिए 46.2% है!! “बे-रोज़गारी 45 साल के रिकॉर्ड स्तर पर” ये हैड लाइन पिछले महीने हर अखबार की शोभा बढाती नज़र आई।
हालाँकि ये हेड लाइन भी सही नहीं है क्योंकि 45 साल पहले का मतलब है- 1975 और उसका मतलब हुआ आपात काल (इमरजेंसी)।
आज का वक़्त, हालाँकि, इमरजेंसी काल से बहुत कुछ मिलता जुलता है क्योंकि जैसे आज सरकार के किसी फैसले से मतभेद होने का मतलब देश का गद्दार होना है ठीक वैसा ही उस अँधेरे कालखंड में होता था जिसे इमरजेंसी के नाम से जाना जाता है, लेकिन बे-रोज़गारी की दर तब 8.2% ही थी जो आज के नज़दीक भी नहीं है।
अत: अखबारों में सही हेड लाइन ये होनी चाहिए थी: “अभूतपूर्व बे-रोज़गारी; जैसी देश के इतिहास में कभी नहीं रही”।
हमारे समाज का आज सबसे बड़ा हिस्सा उन लोगों का है जो बे-रोज़गार हैं मतलब जो काम करना चाहते हैं लेकिन उन्हें काम नहीं है।
बे-रोज़गारों की फ़ौज आज लगभग 30 करोड़ हो चुकी है।
यही नहीं यदि हम देश के लघु-सीमांत किसानों में व्याप्त अर्ध-बेरोज़गारी और दूसरी जगह मौजूद छुपी बेरोज़गारी को भी जोड़ लें तो हमारी लगभग आधी आबादी बे-रोज़गार है, ऐसा बोलना पड़ेगा। स्थिति अत्यंत भयावह है। (क्रमशः)
(मज़दूर मुद्दों पर केंद्रित ‘यथार्थ’ पत्रिका के अंक तीन, 2020 से साभार)
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