हम रेडियोएक्टिव बच्चे-1: औद्योगिक दुर्घटना जिसे मुनाफ़ाखोरों ने बना दिया भगवान की लीला
By जे सुशील
उसकी उम्र कुछ कुछ मेरे बराबर ही रही होगी। दो चार साल ऊपर नीचे। मैंने उसे हमेशा बैठा हुआ ही पाया लेकिन कभी पूछा नहीं कि वो बैठा क्यों रहता है। मैं भी छोटा था वो भी छोटा ही था। हम सब छोटे ही थे। हम बड़े होते गए। खड़े होते गए। मोती बड़ा तो हुआ लेकिन खड़ा नहीं हो पाया।
किसी ने पूछा ही नहीं कि मोती तू खड़ा क्यों नहीं हुआ। किसी को फुर्सत ही नहीं थी क्योंकि उस जादू की नगरी में कुछ लोग मेरी तरह खड़े थे। कुछ मोती की तरह बैठे और कुछ गुड़िया की तरह लेटे हुए थे।
गुड़िया भी एक नहीं थी। कई गुड्डे भी थे जो लेटे हुए थे जब से पैदा हुए थे। वो बड़े हो रहे थे लेटे लेटे ही। वो बोल नहीं पाते थे कि वो लेटे हुए क्यों हैं। उनके हाथ टेढ़े क्यों हैं। उनकी आंखें बोलती हैं तो हम सुन क्यों नहीं पाते हैं।
मैंने गुड़िया को जब पहली बार देखा तो मैं रिपोर्टर हो चुका था। वो सात साल की थी। उसे देखते हुए मुझे राकेश की याद आई जो मुझसे थोड़ा बड़ा था।उसका शरीर भी गुड़िया जैसा था लेकिन राकेश बोलता था। गर्दन से ऊपर उसकी जबान कैंची की तरह चलती थी और और उसके बेजान शरीर को दया भाव से देखने वाले को गालियां दिया करता था।
ऐसा करने की वजह थी उसके पास। उसके बाप के पास सूद से कमाया ढेर सारा पैसा था और लोग कहते थे कि इस सूद के कारोबार ने ही राकेश को यूं बेजान पैदा किया है। उसके बाप को ये बात जब तक समझ में आई होगी तब तक राकेश मर चुका था। उसकी उम्र होगी यही कोई बाईस तेईस।
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रेडियो एक्टिव कचरा
लेकिन राकेश भी अकेला नहीं था। राकेश जैसे और भी बच्चे थे लेकिन वो बाहर नहीं निकलते थे क्योंकि उन्हें बाहर देखकर हमारे जैसे बच्चे उन पर हंसते थे क्योंकि हम चल फिर सकते थे। हम दौड़ सकते थे। हम फुटबॉल में किक मार सकते थे।
हमें लगता था कि हम जहां रहते हैं उस जगह का नाम जादूगोड़ा है इसलिए यहां बहुत सारा जादू होता रहता था। मैं छोटा था तो राकेश और उस जैसे हर बच्चे को भगवान का जादू ही समझा करता था क्योंकि कभी मां बाप से पूछो कि वो चलता क्यों नहीं तो जवाब में यही सुनने को मिलता था। भगवान ने ऐसा बनाया है।
किसी ने भगवान से कभी नहीं पूछा कि तुमने उन्हें ऐसा क्यों बनाया। जब राकेश को लगा कि उसे पूछना चाहिए तो वो भगवान के पास चला गया।
मुझे कई सालों के बाद लगा कि ये सवाल पूछा जाना चाहिए तो मैं भगवान के पास नहीं गया। मैं उस कंपनी के पास गया जहां ये सारे बच्चे रहते थे और तब मैंने पहली बार मोती को गौर से देखा जो अब भी बैठा हुआ था। उस दिन मैंने मोती से पूछा कि तुम बैठे क्यों रहते हो?
साइकिल का पंचर बनाते हुए मोती ने मुझे घूर कर देखा और कहा- दिखता नहीं है क्या तुमको? ये नाराज़गी नहीं थी। हम लोग ऐसे ही बात करते थे। यही हमारी दोस्तियों की पहचान हुआ करती थी।
मैंने बताया कि माइक पर बताओ ठीक से। तो जवाब था- पैर है न। इधर अंदर अंदर टूट गया है। तो खड़य नहीं हो पाते हैं। बचपन से अइसय है। तुम क्या करता है आजकल।
ये समझना मेरे लिए असंभव था कि किसी का पैर चमड़े के भीतर ही बार बार कैसे टूटता है। लेकिन फिर जवाब भी था- सब जादू है। गुड़िया जादू थी एक। चारपाई पर लेटी हुई। जो कों कों कों कों की आवाज़ निकाल कर खुश होती थी।
मेरा साथ जो अंग्रेज था उसकी आंखों में आंसू आ गए थे गुड़िया को देखकर। उसने ऐसा बच्चा देखा नहीं था जीवन में कभी। उसने रेडियोएक्टिव कचरा भी नहीं देखा था खुले में फेंका जाता हुआ।
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रेडियोएक्टिव बच्चे
जब मैंने अपने दफ्तर में कहा था कि जादूगोड़ा में बच्चे विकलांग पैदा होते हैं तो किसी ने सवाल किया था- तुम तो ठीक ही हो। मैंने अंग्रेजों को ये समझाने की कोशिश की कि मैं रेडियोएक्टिव कचरे पर खेलता रहा हूं तो वो मन ही मन मुस्कुराए थे। उन्हें मेरी बात पर भरोसा नहीं था।
जब मैंने अंग्रेज एंकर को खड़ा किया जादूगोड़ा में कहा कि जो सामने देख रहे हो वो कचरे का डैम है और मैं वहीं खेलता था तो वो झट से कार में घुस गया था और बाहर निकलने को राजी नहीं था। वो चाहता था उसके लिए मास्क लाया जाए जो संभव नहीं था।
गुड़िया कुछ सालों बाद सवाल पूछने भगवान के पास चली गई। मुझे नहीं पता कि गुड़िया के अलावा आलोवती और दुनिया कैसे हैं। वो दोनों भाई बहन बोलते नहीं थे। सिर्फ मुस्कुराते थे। वो मुस्कुराहट मुझे बेचैन कर देती है अभी भी कई बार।
हम सब यूरेनियम की पैदाइश हैं। रेडियोएक्टिव बच्चे। हमारे बारे में कोई बात नहीं करता है। हम मार्जिनल कम्युनिटी नहीं हैं न। न हम शहर के हैं न गांव के। हम बलि के बकरे हैं।
हिरोशिमा नागासाकी की बात हो रही है तो मैंने सोचा कि लोगों को बताया जाए कि जहां बम गिरता है लोग वहीं नहीं मरते हैं। लोग वहां भी मरते हैं जहां बम बनाने का सामान निकाला जाता है।
हम रेडियोएक्टिव बच्चे राम और रहीम के बारे में सोचने से पहले जादू के बारे में सोचते हैं। तस्वीर में दुनिया है। जादू की दुनिया। (क्रमशः)
(जे सुशील ने बीबीसी हिंदी में लंबे समय तक काम किया है। फिलहाल वो अमेरिका में स्वतंत्र शोधार्थी हैं। फ़ेसबुक पोस्ट से साभार।)
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