क्या होगा अगर मज़दूर अपने घर न जाकर नेताओं और मंत्रियों के घरों की ओर चल पड़ें?
By राकेश कायस्थ
इस समय स्थिति ऐसी है, जैसे पूरा देश बारूद की ढेर पर बैठा हो। शुक्र है, गरीब लोग असंगठित होने के साथ-साथ असाधारण रूप से सहनीशल भी हैं।
दिल्ली-यूपी बॉर्डर पर फँसे लाखों मजदूरों ने अगर नेताओं और मंत्रियों के घरों का रुख़ करना शुरू कर दिया तो क्या होगा? 2011 में रामलीला मैदान में हुए दुनिया से सबसे बड़े रियलिटी शो के दौरान कुछ ऐसा ही हुआ था।
अन्ना हजारे ने नारा दिया था कि आम नागरिक घरों से निकलकर सांसद और मंत्रियों के घरों के बाहर डेरा डालें। असल में ऐसा हुआ नहीं लेकिन ये सुनते ही सरकार घुटनों के बल आ गई थी।
वो एक प्रायोजित तमाशा था और यहाँ विश्व का सबसे बड़ा मानवीय संकट है।
जिसने 1947 नहीं देखा है, वह 2020 देख ले। सड़क पर मरते लोग, भूख मिटाने के लिए मरे हुए जानवर खाते हुए लोग और दूसरी तरफ विश्वगुरू होने का ढपोरशंखी अट्टाहास।
जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा उड़ाकर इमेज बनाने वाले नेता ने कोरोना संकट के शुरुआती महीने का इस्तेमाल बड़ी चालाकी से इसे इवेंट में बदलकर छवि चमकाने के लिए किया।
और फिर हालत बेकाबू होने के बाद आत्मनिर्भरता शब्द का झुनझुना थमाकर खिसक गया।
लॉकडाउऩ से लेकर तमाम फैसले केंद्र सरकार एकतरफा तरीके से लिये हैं और अब ठीकरा राज्य सरकारों पर फोड़ने की तैयारी है।
दस लोगों की टीम लीड करने वाला एक छोटा मैनेजर तक गलती होने पर उसकी नैतिक जिम्मेदारी लेता है लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के मुखिया से आप इस बात की उम्मीद नहीं कर सकते।
क्या कभी आपको इस बात का एहसास होता है कि इस देश में सरकार नाम की भी कोई चीज़ है। सरकार काम जनता के सामने वास्तविक स्थिति रखना और लोगों को आश्वस्त करना है। क्या आजतक किसी भी केंद्रीय मंत्री ऐसा किया।
डब्लूएचओ की तरफ प्रस्थान कर रहे देश के काबिल स्वास्थ्य मंत्री की कुल जमा उपलब्धि अब तक यही रही है कि उन्होंने घर में मटर छीलते हुए तस्वीर ट्वीट की है और देश को बताया कि वे वर्क फ्रॉम होम कर रहे हैं। बाकी मंत्रियों का भी यही हाल है।
देश के लोगों के लिए यह अस्तित्व का संकट है। लेकिन केंद्र सरकार के लिए सिर्फ एक और परसेप्शन वॉर जीतने की मुहिम है।
उसे लगता है कि खरीदे हुए चैनल, आईटी सेल, ट्रोल आदमी और गालीबाज समर्थकों के ज़रिये एक बार फिर वो साबित कर देगी कि दुनिया का सबसे अच्छा कोरोना मैनजमेंट भारत में हुआ है।
(राकेश कायस्थ वरिष्ठ पत्रकार और व्यंगकार हैं। ये लेख उनके फ़ेसबुक पोस्ट पर प्रकाशित है और वहीं से साभार दिया गया है।)
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