कौन हैं ये लोग, जो आर्थिक तबाही के बीच महंगी कार, सोना और करोड़ों की पेंटिंग खरीद रहे हैं?
By रवींद्र गोयल
यह अटपटा लग सकता है की आज के हत्यारे दौर में, जब देश में करोड़ों लोगों को रोटी के लाले पड़े हैं, रोज़गार बाज़ार में उपलब्ध नहीं हैं, नौजवान आत्महत्या कर रहे हैं, युवा दंपत्ति बच्चों को फांसी लगा कर खुद भी अपने को मार रहे हैं, भारत के धनाढ्य वर्ग की मांग को पूरा करने में लगे व्यापारियों का धंधा जोरों पर है।
पेश है इस सम्बन्ध में चार महत्वपूर्ण जानकारियां:
– मुंबई स्थित खुदरा आभूषण व्यापारी त्रिभुवनदास भीमजी जावेरी के मुख्य वित्तीय अधिकारी सौरव बनर्जी ने हाल ही में बताया कि, “पिछले तीन, चार महीने पहले की तुलना में पूरी तरह से अलग तरह का परिदृश्य हम देख रहे है। ग्राहक पूरी भीड़ में वापस आ रहे हैं। दशहरा या दुर्गा पूजा और धनतेरस और दिवाली के बीच तक की पूरी अवधि के दौरान एक बड़ी मांग उत्पन्न हुई है।”
सरकारी तथ्यों के अनुसार भी लगातार दो वर्षों की गिरावट के बाद, 2020-21 में, भारत के सोने के आयात में तेज़ी आई और 34।60 बिलियन डॉलर (करीबन 260000 करोड़ रुपये ) का सोना आयात किया गया। इस साल के पहले नौ महीनों में (अप्रैल 21 – दिसम्बर 21), सोने के आयात का मूल्य पिछले पूरे वर्ष के आयात से बढ़कर 37.98 बिलियन डॉलर (करीबन 285000 करोड़ रुपये) तक पहुंच गया है। यह राशि पिछले पांच बरसों में सबसे अधिक है।
– यही प्रवृत्ति महंगी कारों की बिक्री के बाज़ार में भी देखी जा सकती है। वर्ष 2021 के दौरान, बीएमडब्ल्यू समूह ने बीएमडब्लू और मिनी कारों की 8,876 इकाइयां और अपनी उच्च कीमत वाली बाइक की 5,191 इकाइयां बेचीं। वॉक्सवैगन समूह की कंपनी ऑडी ने 2020 में 1,639 इकाइयों की तुलना में 2021 में भारत में 3,293 इकाइयों की खुदरा बिक्री से दो गुना उछाल दर्ज किया।
इसी तरह कैलेंडर वर्ष 2021 के पहले नौ महीनों तक, मर्सिडीज बेंज इंडिया ने 2020 की पूरे साल की बिक्री को पार कर लिया था। अकेले जुलाई-सितंबर तिमाही में, कंपनी ने 2020 की समान तिमाही में 2,060 इकाइयों से अपनी बिक्री को दोगुना कर 4,101 इकाई कर दिया। और कंपनी ने यह भी बताया की उसके पास अपनी कंपनी के अधिकांश मौजूदा और नए उत्पादों के लिए काफी मांग भी है।
-इसी तरह मकानों की बिक्री में भी उपरी तबके के लिए महंगे मकानों की बिक्री के हिस्से में तेज़ी आई है। रियल-एस्टेट कंसल्टेंसी फर्म एनारॉक के अनुसार, कुल आवासीय बिक्री के हिस्से के रूप में लक्जरी आवास की बिक्री का हिस्सा 2021 के पहले नौ महीनों में बढ़कर 12% हो गया, जबकि पूर्व-कोविड 2019 में ये हिस्सा 7% था।
एक अन्य स्टडी में एनारॉक ने कहा कि जुलाई-सितंबर तिमाही में मुंबई मेट्रोपॉलिटन रीजन में लग्जरी और अल्ट्रा-लक्जरी सेगमेंट में 4,000 करोड़ रुपये के माकन बिके हैं। लग्जरी सेगमेंट में 1.5 करोड़ रुपये से 2.5 करोड़ रुपये के बीच की इकाइयाँ शामिल हैं, और अल्ट्रा-लक्ज़री सेगमेंट में 2.5 करोड़ रुपये से अधिक की इकाइयाँ शामिल हैं।
– अगस्त 2020 में हुई कुछ कला नीलामी सम्बन्धी ख़बरों ने भी ध्यान खींचा। मशहूर चित्रकार मकबूल फ़िदा हुसैन द्वारा ,वौइस् (voice) शीर्षक से , 1950 में बनाया गया चित्र एक कला नीलामी में 18.47 करोड़ रुपये के ऊंचे दाम पर बिका। ख़बरें बताती हैं कि यह राशी हुसैन के किसी चित्र के लिए अब तक दी गयी सबसे ज्यादा कीमत है। हुसैन के चित्रों की इस एकल नीलामी में कुल 55,92,85,421 रुपये की बिक्री हुई।
इसी तरह 1974 में चित्रकार वी.एस. गायतोंडे द्वारा बनाया गया एक चित्र अगस्त में ही एक और नीलामी में 32 करोड़ रुपये में बिका। अपने ही रिकॉर्ड को तोड़ते हुए 17 सितम्बर 20 को गायतोंडे का एक और चित्र 35 करोड़ रुपये में बिका। इसी सम्बन्ध में मेरे एक चित्रकार मित्र, अशोक भौमिक, ने यह भी बताया की आजकल चित्रों के खरीदार बहुत सौदेबाजी भी नहीं कर रहे हैं। जो दाम आप कलाकृति के लिए तय करते हैं वो आसानी से दे देते हैं।
स्वाभाविक ही यह सवाल उठता है कौन हैं वो लोग जो इस दौर में पैसा पानी की तरह बहा रहे हैं और महंगे सामानों की चल अचल संपत्ति धड़ल्ले से खरीद कर रहे हैं?
उपरोक्त उदहारण सबूत है कि इस कोरोना महामारी के समय में ऐसे भी कुछ लोगों हैं जिनके पास बहुतायत में धन अर्जन हुआ है जिसके निवेश के लिए उन्हें बहुत विकल्प नहीं मिल रहे हैं और अपने घरों में सिमट जाने के कारण इन धनपतियों को निवेश के भी सीमित विकल्प ही उपलब्ध हैं।
व्यापक बर्बादी और तबाही के बीच इन विलासिता के टापुओं के इस अजब गज़ब गोरखधंधे को समझने के लिए हमें वर्तमान सर्वव्यापी महामारी और इससे पैदा हुई आर्थिक मंदी के प्रभाव के बारे में एक आम गलत फ़हमी को ठीक करना होगा। हमें इस गलत फ़हमी से उभारना होगा की वर्तमान सर्वव्यापी बर्बादी ने समाज के सभी तबकों को भयंकर परेशानी में धकेल दिया है। सबको नुकसान हुआ है।
वाकई क्या हुआ है इसको समझने के लिए जरूरी है की वर्त्तमान महामारी और इससे पैदा हुई आर्थिक मंदी और पुराने आर्थिक मंदियों के दौर के बीच के अंतर को समझा जाये। पहले जहाँ पूंजीवादी व्यवस्था के अन्तर्निहित संकट आर्थिक मंदी को जनम देते थे और मेहनती लोगों को ज्यादा पर धनी तबके को भी इस रूप में प्रभावित करते थे की उनके मुनाफे के स्रोत भारी पैमाने पर बाधित होते थे।
कम या ज्यादा सभी एक ही नियति से जूझ रहे थे। वहीँ वर्तमान मंदी एक अप्रत्याशित महामारी का नतीजा है जिसने सबको बराबर रूप से प्रभावित नहीं किया। कुछ धंधे जैसे प्रोद्योगिकी, इलेक्ट्रॉनिक कॉमर्स, दवा उद्योग या वो काम जो घर से हो सकते है वो प्रभावित नहीं हुए हैं। इसी दौर में आपदा को अवसर में बदलने के मंत्र को पकड़ कर अनाप शनाप दामों में सरकारी संपत्ति को खरीदा है।
संकट ग्रस्त पूंजीपति या क़र्ज़ से सरकारी भरी छूट के बावजूद निपट पाने में असमर्थ पूंजीपतियों को भी अन्य बड़े लोगों ने खरीदा है। भारतीय शेयर बाज़ार में विदेशों से बहुत पैसा आया हैऔर सट्टेबाजी अपने चरम पर है।
यह सच है। करोड़ों की तादाद में दिहाड़ी पर काम करने वाले मजदूरों के काम धंधे गए यह सच है, शहरों में भी करोड़ों लोगों की नौकरियां गयी यह भी सच है।छोटे काम धंधे वालों के व्यापार बंद या मंदे हो गए यह भी सच है। लेकिन यह भी उतना ही सच है की पूंजीपतियों के एक हिस्से की आमदनी में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है।
लन्दन से छपने वाली hurun रिपोर्ट बताती है कि पिछले साल अदानी ग्रुप के मालिकन 1002 करोड़ रुपये रोज़ कमाकर यानि 42 करोड़ रुपये प्रति घंटा कमाकर भारत के दूसरे नंबर के अमीर बन गये। कुछ व्यापारियों ने भारतीय रेल चलाने के ठेके ले लिए हैं। टाटा ग्रुप ने देश की नयी संसद के निर्माण का ठेका लिया है।
हाल में एयर इंडिया सरकारी कंपनी भी टाटा ने खरीद ली है। अदानी भाई तीन हवाई अड्डे खरीद चुके हैं। वर्तमान सर्वव्यापी महामारी के इस असमान असर का एक प्रभाव और हुआ है कि पूंजीवादी खेमे में संपत्ति का हस्तांतरण भी हो रहा है।
पूंजीवाद का ये नियम तो है ही कि बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है पर यह भी उतना ही अटल नियम है मोटी मछलियाँ भी एक दूसरे को खाने के फेर में रहती हैं और मौका लगते ही मोटी ही सही पर थोड़ी कमजोर मछली को मजबूत मोटी मछली हज़म कर जाती है।
अर्थशास्त्री इस संकट से उभरने की राह के बारे में बता रहे हैं की इस दौर में वो K शब्द की शक्ल अख्तियार करेगी यानि k के उपरी डंडे की तरह कुछ समूह तेज़ी से ऊपर जायेंगे (जैसे प्रोद्योगिकी, इलेक्ट्रॉनिक कॉमर्स आदि के धंधे, सटोरिया पूंजीपति, सरकार से जुड़े नेता, अफसर, दलाल या मध्यमवर्ग का एक उपरी हिस्सा आदि ) और आबादी का बहुलांश नीचे की तरफ धकेला जायेगा।
संक्षेप में कहा जाये तो आज के दौर में जिन पूंजीवादी तत्वों ने अकूत संपत्ति बटोरी है वही इस विभात्स प्रत्यक्ष दिखावटी उपभोग का स्रोत है। इनकी निशानदेही जरूरी है। इनको लाभान्वित करने वाली नीतियों की पहचान जरूरी है। क्योंकि केवल तभी ही एक जनपक्षधर भारतीय समाज के बनावट की रह बन सकेगी।
लेखक वर्कर्स यूनिटी के सलाहकार संपादकीय टीम का हिस्सा हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और आर्थिक मामलों के जानकार हैं।
(वर्कर्स यूनिटी स्वतंत्र निष्पक्ष मीडिया के उसूलों को मानता है। आप इसके फ़ेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब को फॉलो कर इसे और मजबूत बना सकते हैं। वर्कर्स यूनिटी के टेलीग्राम चैनल को सब्सक्राइब करने के लिए यहां क्लिक करें।)