श्मशान बनता पूरा देश और एक कायर तानाशाह की अमर होने की ख़्वाहिश

श्मशान बनता पूरा देश और एक कायर तानाशाह की अमर होने की ख़्वाहिश

By राकेश कायस्थ

क्या सरदार मनमोहन सिंह उस बस के ड्राइवर थे, जिसमें निर्भया के साथ दुष्कर्म हुआ था? मनमोहन सिंह ने पीड़िता को इलाज के लिए सिंगापुर क्यों भिजवाया था? जब शव आया था तो एयरपोर्ट पर पीएम मनमोहन और यूपीए की प्रमुख सोनिया गाँधी दोनों मौजूद क्यों थे?

इसलिए सरकार की जवाबदेही कोई चीज़ हुआ करती थी। आज कहां दिखती है, आपको जवाबदेही?

जो सवाल सामान्य रूटीन में पूछे जाते थे, अगर वो गलती से किसी के मुँह से निकल गये तो प्रवक्ता झल्लाये कु्त्ते की तरह काटने दौड़ते हैं।

भक्त धमकाने आते हैं और कभी अर्थशास्त्री और कभी वायरोलॉजिस्ट बनकर ज्ञान पिलाते हैं। कितनी अनोखी बात है। आजकल गीता का ज्ञान चल रहा है। पूछियेगा ज़रा एक बार जब तुम्हारे घर में कोई मर जाएगा तब भी इसी तरह प्रवचन दोगे?

प्रयोजन क्या है, इन सबका? एक लाइन बात सिर्फ ये है कि हमारे नेता से सवाल ना पूछे जाये।

ठीक है, भइया नहीं पूछेंगे। मजबूत सरकार है ही संविधान संशोधन करवा लो कि बीजेपी को छोड़कर जितनी सरकारें होंगी वो जवाब देने के लिए उत्तरदायी होंगी। जब बीजेपी का शासन होगा तब सवाल विपक्ष से पूछे जाएंगे।

मैं सवाल नहीं पूछूंगा बस एक काम करो– अपने चाय वाले को बोल दो कि देश के सामने आकर कहे कि प्रधानमंत्री का पद मैंने रियलिटी शो में जीता है। मैं सूट सिलवाने, आठ हज़ार करोड़ के बोइंग में दुनिया घूमने और दाँत चियार कर फोटों खिंचवाने के लिए हूँ, जवाब लेना है तो पप्पू के पास जाओ।

कह दो अपने चायवाले से कि साइंटिस्ट बनकर बादलों के पार रडार के सिग्नल का हिसाब करना बंद कर दे, माइक्रो बॉयो लॉजिस्ट बनकर लैब में जाकर ड्रामा ना करे कि अपनी निगरानी में वैक्सीन बनवा रहा है।

छल, कपट, फरेब की कोई सीमा तो होगी। एक गृहमंत्री के कपड़े बदलने पर मीडिया मुद्दा बनाता था और गूंगा प्रधानमंत्री उस मंत्री को हटा देता था। यहाँ एक घोषित अपराधी सिस्टम का टेंटुआ दबाये बैठा है।

राष्ट्रीय संकट के समय कोबिड प्रॉटेकल की धज्जियां उड़ा रहा है। लोग मर रहे हैं, वो चुनाव प्रचार कर रहा है और साथ-साथ आँखे दिखाकर कह रहा है कि ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं है। किसी में हिम्मत है कि कोई एक सवाल पूछ ले।

क्या सचमुच ये मर्दों का देश है? जो कुछ अभी चल रहा है, नामर्दी उससे कोई अलग चीज़ होती है?

दिल्ली में 28 साल की एक लड़की छोटा बच्चा किसी रिश्तेदार के हवाले करके बीमार पति को लेकर घर से निकली। उस वक्त ऑक्सीजन का लेबल 72 के आसपास था।

किसी अस्पताल में कोई दाखिला नहीं। टैक्सी में पति को लेकर इस कोने से उस कोने तक शहर नापती रही।

इस उम्मीद में किसी तरह से मदद मिल जाये। मैंने पचास फोन लगाये। बड़ी कोशिशों के बाद एक जगह दाखिला मिला।

बेड था लेकिन वेंटिलेटर नहीं। डॉक्टर ने कहा कि दो वेंटिलेटर हैं, दोनों पर मरीज़ हैं। या तो वो ठीक हो जायें या मर जायें तब आपके पेशेंट को मिलेगा।

लड़की पति की उखड़ती साँसें थामने के लिए बदहवास सी इधर-उधर फोन करती। कोई इंजेक्शन भिजवाता रहा कोई ढाँढस बंधाता रहा। वेंटिलेटर मिलना तो दूर ऑक्सीजन तक मुहाल था और आखिर में वही हुआ जो अनगिनत लोगों के साथ हुआ।

ऑक्सीजन के लिए लोग सड़क पर तड़प-तड़पकर मर रहे हैं और लावारिस की तरह जलाये जा रहे हैं। ऑक्सीजन नहीं है, दवाइयां नहीं है, स्टाफ़ नहीं है।

दूसरी तरफ 20 हज़ार करोड़ का सेंट्रल विस्टा बन रहा है, ताकि एक सनकी सिरफिरा, आत्मगुग्ध और कायर तानशाह इतिहास में अमर होने की अपनी ख्वाहिश पूरी कर सके।

अरे ओ उच्च कोटि के नीच.. थूकता हूँ मैं तुम पर। सेना सड़क पर उतार दो टैंक चलवा दो, सब को खत्म करवा दो.. लेकिन याद रखो अब इस देश में तुमसे कोई नहीं डरता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और जाने माने व्यंगकार हैं। ये टिप्पणी उनके फ़ेसबुक वॉल से साभार ली गई है। कार्टून साभारः मीर सुहैल। )

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Workers Unity Team

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