कोरोना संक्रमण क्यों बन गया है पूंजीवाद के लिए कहर?
By मुकेश असीम
केली लाफ़लर अमरीकी सीनेट की स्वास्थ्य कमिटी की सदस्य हैं। 24 जनवरी को अमरीकी सरकार के शीर्ष स्वास्थ्य अधिकारियों ने कमिटी को कोरोना वायरस पर जानकारी दी।
उसी दिन लाफ़लर ने अपने शेयर बेचने शुरू किये और 15 फ़रवरी तक 27 बार में करीबन 25-30 लाख डॉलर के शेयर बेचे। सबके दाम अब गिर चुके हैं।
उन्होंने दो बार ढाई लाख डॉलर के शेयर खरीदे भी Citrix नाम की कंपनी के जो दूर से काम करने का सॉफ्टवेयर बनाती है!
स्वाभाविक है कि इस कंपनी का शेयर गिरने के बजाय चढ़ा है। पर लाफ़लर 10 मार्च तक भी आम अमरीकियों से चिंता न करने और अर्थव्यवस्था पर भरोसा रखने की अपील वाले ट्वीट कर रही थीं।
ऐसा ही किस्सा सीनेट जासूसी कमिटी के रिचर्ड बर का है, जिसने यह सूचना प्राप्त करने के बाद 15 फ़रवरी तक 20 लाख डॉलर के शेयर बेच डाले! ये बर सीनेटर बनने के पहले लॉन की घास काटने वाली मशीन बेचते थे।
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उम्मीद कर सकते हैं कि इन सीनेटरों ने यह जानकारी अपने वित्तीय मददगारों से भी बांटी होगी और उन्होंने भी अपने हित सुरक्षित कर लिए होंगे।
यह सब ऐसे वक्त में चल रहा था जब पूरी ट्रंप हुकूमत कोरोना को चीनी प्रचार बताते हुये अमरीका में उसके असर की किसी भी संभावना को ‘विपक्षी’ प्रचार बता रही थी।
कोरोना के ख़िलाफ़ जर्मनी में बनाए गए टीके को ख़रीदने के लिए अमरीका ने उसके अधिकार खरीदने चाहे इस शर्त के साथ कि अमरीका के अलावा उसे वो बेच सकता है। जबकि टीका अभी पूरी तरह बना भी नहीं है।
यह कहानी सिर्फ अमरीका की नहीं, सभी पूंजीवादी देशों में खबर अच्छी हो या बुरी, शासक वर्ग के सभी सदस्यों को उसकी अग्रिम सूचना होती है और दोनों ही स्थितियों में वे उससे मुनाफा बनाने में कामयाब होते हैं।
भारत में 40,000 अंक तक पहुंचने वाला सेंसेक्स 30,000 से भी नीचे चला गया है और अकेले टाटा की टीसीएस कंपनी को दो लाख करोड़ रुपये का घाटा उठाना पड़ा है।
एलआईसी और ईपीएफ़ का जो पैसा शेयर बाज़ार में सरकार ने ज़बरदस्ती लगवाया था, उसका भट्टा बैठ गया है।
यहां तक कि भारत सरकार ने भी जनता को नहीं छोड़ा। कोरोना का नाम लेकर रेलवे के प्लेटफॉर्म टिकट 50 रुपये के कर दिए गए और वरिष्ठ नागरिकों को मिलने वाली यात्रा रियायत ही ख़त्म कर दी गई।
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समाजवादी देशों ने क्या किया?
उधर मज़दूरों के शासन वाले समाजवादी समाजों में नेतृत्व हमेशा सभी के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास और रोजगार की व्यवस्था करने में व्यस्त रहता है।
चीन ने 10 दिन में 1,000 बिस्तरों वाला अस्पताल बनाकर दुनिया के सामने एक मिसाल क़ायम की लेकिन मुनाफ़ा बटोरने की अंधी दौड़ में पूंजीवादी देशों इसे नज़रअंदाज़ किया। हालांकि चीन अब समाजवादी देश भी नहीं रहा।
हो सकता है कि वह इंतजाम अमरीका का चंद मशहूर अस्पतालों जैसा न हो, पर था सबके लिए और समान।
आज भी ‘गरीब’ क्यूबा की स्वास्थ्य सेवायें ‘अमीर’ अमरीका से बेहतर और सारी क्यूबाई जनता के लिए तो है हीं, दुनिया भर में कहीं भी महामारी फैलने पर उसके डॉक्टर वहाँ मदद करने जरूर पहुँचते हैं।
कोरोना में भी 60 साल की खूनी दुश्मनी को भूलकर ब्रिटेन/इटली दोनों को मदद की है। अभी हाल की खबर है कि ब्रिटेन के क्रूज जहाज पर कोरोना वायरस के असर वाले कुछ मुसाफिरों के पाए जाने के बाद कई देशों ने उसे अपने बंदरगाह पर सटने नहीं दिया।
ब्रिटेन ने क्यूबा से गुजारिश की। क्यूबा ने ब्रिटेन के उस जहाज को तुरंत अपने तट पर आने की इजाजत दे दी। क्यूबा का स्वास्थ्य तंत्र दुनिया भर में सबसे बेहतर माना जाता है।
जबकि ब्रिटेन अमेरिका के साथ मिल कर क्यूबा को बर्बाद करने के एजेंडे पर हर वक्त काम करता है। उस छोटे से समाजवादी देश पर तरह तरह की पाबंदियां लगा रखी हैं।
लेनिन, स्टालिन, माओ, हो ची मिन्ह, होजा, चे, फ़िदेल कास्त्रो – समाजवादी देशों का कोई भी ‘निरंकुश तानाशाह’ संपत्ति एकत्र करने में कामयाब न हुआ, सबके पास मरते वक्त निजी इस्तेमाल की कुछ जरूरी चीजों के अलावा कुछ न था!
यही समाजवाद की असफलता है! हमें इस सफलता-असफलता में से क्या चाहिये? भारत के मज़दूर वर्ग को ये तय करना होगा।
स्पेन ने क्यों सारे अस्पताल अपने हाथ में लिए?
स्पेन सरकार ने कोरोनावाइरस महामारी से निपटने के लिये सभी निजी अस्पतालों और फार्मा-मेडिकल कंपनियों का टेकओवर कर लिया है। यह सही कदम है, पर अधूरा है क्योंकि यह अस्थाई नहीं स्थाई तौर पर होना चाहिये।
शिक्षा और स्वास्थ्य का पूर्ण समाजीकरण और बिना किसी भेदभाव के सबके लिए इनकी अनिवार्य तौर पर समान उपलब्धता सुनिश्चित करना ही जनतंत्र का असली तकाज़ा है।
किंतु पूरी तरह सड चुके भारतीय समाज में दिल्ली, महाराष्ट्र से शुरू कर अधिकांश राज्य सरकारें इसके उलट कोरोनावाइरस पीड़ितों के लिए भी अमीरों के लिए बड़े शहरों में महँगे होटलों में क्वारंटाइन का इंतजाम कर शेष मेहनतकश जनता को मरने के लिए छोड़ देने की योजना बना रही है।
संशोधनवादी नेतृत्व के फेर में फँसे और धर्म जाति भाषा क्षेत्र की नफ़रत में डूब अपने वर्गीय हितों को भूले मेहनतकश तबके के चलते ही कोई समाज ऐसा अन्याय सहन कर चुप रह सकता है।
कंपनी की लूट रोकने वालों पर मुकदमे की धमकी
कोरोना के मरीजों से भरे इटली के एक अस्पताल के पास इलाज के लिए जरूरी एक खास किस्म के वाल्व की कमी थी।
सप्लाई करने वाली कंपनी भी असमर्थता जता रही थी। एक छोटी स्थानीय कंपनी ने दो वालंटियर नौजवान क्रिश्चियन फ्रांकासी और अलेसांद्रो रेमिओली के साथ अपना 3डी प्रिंटर अस्पताल भेजा।
पर वाल्व बनाने वाली कंपनी ने पेटेंट के नाम पर वाल्व का ब्लूप्रिंट देने से इंकार कर दिया। पर ये नौजवान भी कम नहीं थे।
उन्होंने उपलब्ध वाल्व की सारी नापजोख की और 3डी प्रिंटर को प्रोग्राम कर वाल्व बना ही दिये और कई मरीजों की जान बचा ली।
अब वाल्व सप्लाई करने वाली कंपनी इन नौजवानों पर उसकी बौद्धिक संपदा चुराने का मुकदमा दायर करने की धमकी दे रही है।
आखिर बात क्या है? बात ये है कि ऐसे बनाये गए वाल्व की लागत 1 डॉलर ही आई जबकि वह कंपनी इसे 11,000 डॉलर की कीमत पर अस्पताल को बेचती थी।
जनता को क्या चाहिए?
ये है पूँजीवादी कंपनियों की लूट, और दूसरी ओर हैं क्यूबा के डॉक्टर जो इटली से इंग्लैंड तक सबकी मदद कर रहे हैं।
यूं ही नहीं है कि कोरोना वायरस की महामारी के साथ ही पूरी दुनिया में स्वास्थ्य सेवाओं के राष्ट्रीय करण की मांग तेज़ हो गई है।
पर पूँजीवाद सफल बताया जाता है और समाजवाद असफल! हमें तो असफल समाजवाद ही चाहिये, ऐसी सफलता का क्या करना?
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