सारे अख़बार, टीवी चैनल श्रम क़ानूनों को ख़त्म करने का क्यों मना रहे जश्न?
By सुशील मानव
भाजपा शासित तीन राज्यों गुजरात, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश मेंअध्यादेश के जरिए मजदूरों के अधिकारों को संरक्षित करने वाले श्रम कानूनों को तीन साल तक के लिए स्थगित कर दिया गया है।
इस अध्यादेश के कानून बनने के बाद कल-कारखानों, कंपनी मालिकों के लिए मजदूरों कोबँधुआ बनाकर उनका दमनकरने के रास्ते अब कोई नहीं आ सकता, न कानून, न लेबर इंसपेक्टर, न ट्रेड यूनियन न ही पत्रकार।
भाजपा शासित तीन राज्यों में श्रम अधिकारों को निलंबित करने पर मीडिया क्या कह रही है। मजदूर वर्ग के प्रतिनिधियों का कहना है कि मीडिया इस पर खामोश है। पर क्या वो वाकई में खामोश है। मैंने इसकी तफ़शीश की तो मामला कुछ और ही नज़र आया।
मीडिया खामोश नहीं है बिल्कुल भी नहीं। तीन राज्यों में हुए श्रम कानूनों में बदलाव को मीडिया अपने वर्ग चरित्र के मुताबिकव्याख्यायित कर रही है। यहां मैं सिर्फ़ हिंदी मीडिया की बात कर रहा हूँ।
कुछ अखबारों और न्यूज चौनलों के हेडलाइंस देख लेते हैं-
सुभाष चंद्रा के मालिकाना वाली जी न्यूज की हेंडिंग है- “योगी सरकार में मजदूरों के अच्छे दिन पर सियासत, विपक्ष ने कानून में बदलाव को बताया मजदूर विरोधी।”
वहीं अमर उजाला ने “ तीन राज्यों द्वारा श्रम कानून में किए गए बदलाव से क्या होगा फायदा?” हेडलाइन के साथ श्रम कानूनों को निलंबित किए जाने के फायदे गिनाए हैं।
हिंदुस्तान अख़बार ने बार खेल खलेत हुए हेडिंग में ही बैलेंस करने की कोशिश की है। हिंदुस्तान की हेडिंग है- “ UP: 3 साल तक के लिए श्रम कानून निलंबित, 15,000 रुपये से कम कमाने वालों के वेतन में कटौती नहीं।”
फासीवादी सरकार के मुखपत्र दैनिक जागरण ने श्रम अधिकारों को संरक्षित करने वाले कानूनों के निलंबन को जस्टीफाई करते हुए हेडिंग लगाया है- “श्रम कानूनों में रियायत देने से सुधरेगी अर्थव्यवस्था, तरक्की करेगा ग्रामीण क्षेत्र, कम होंगे प्रवासी मजदूर।”
दैनिक जागरण की ही एक दूसरी हेडिंग है- “ UP LockDown-3: राज्य में तीन वर्ष के लिए श्रम कानून समाप्त योगी सरकार ने दी उद्योगों को बड़ी राहत।”
दैनिक भास्कर ने मध्य प्रदेश सरकार द्वारा श्रम कानूनों को खत्म करने पर हेडिंग में शब्दों का गजब का जाल बुना है। दैनिक भास्कर ने एक तरह से शिवराज के वाक्य को हेडलाइन बनाकर श्रम सुधार का समर्थन किया है।
दैनिक भास्कर की हेडलाइन है- “कोरोना संकट से उत्पन्न हालातों में ज़रूरी हैं श्रम कानूनों बदलाव: शिवराज।”
एबीपी न्यूज ने तीन राज्यों में श्रम कानूनों को खत्म किए जाने पर विपक्ष के विरोध को हंगामा बताते हुए हेडलाइन लगाया है- “ यूपी समेत कई राज्यों में श्रम कानूनों में बदलाव पर मचा हंगामास सात विपक्षी दलों ने राष्ट्रपति को लिखी चिट्ठी”।
ओबीसी समाज के मुखपत्र के रूप में खुद को पेश करने वाले दिप्रिंट ने एक तरह से श्रम कानूनों के खात्मे को सपोर्ट करते हुए हेडलाइन बनाया है, “उद्योग को पटरी पर लाने और अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए योगी सरकार ने श्रम कानूनों में 3 साल के लिए किए बड़े बदलाव।”
आज तक ने निलंबन और खात्मे जैसे सटीक शब्दों के बजाय संशोधन शब्द का इस्तेमाल किया है। आज तक के हेडलाइन है- “ एमपी: सरकार ने श्रम कानून में किया संशोधन, कारखानों का तीन महीने तक नहीं होगा निरीक्षण।”
मुकेश अंबानी के मालिकाना हक़ वाली न्यूज 18 हिंदी की हेडलाइन है- “ विदेशी निवेश की एक्सप्रेस पकड़ने की रेस हो गई है तेज।”
प्रभात ख़बर ने योगी सरकार द्वारा श्रम कानून के खात्मे को बड़ा फैसला बताते हुए हेडलाइन में लिखा है- “ योगी सरकार का बड़ा फैसला, उद्योगों को श्रम अधिनियम में मिली तीन साल तक की छूट।”
पूंजीवादी चरित्रधारी मीडिया से मज़दूर के हक़ में बोलने लिखने की उम्मीद क्यों
तमाम अखबारों और न्यूज चैनलों के हेडलाइंस के उपरोक्त उदाहरणों में हमने स्पष्ट देखा कि मीडिया मजदूर के हितों का संरक्षण करने वाले श्रम कानूनों के खात्मे का मुक्तकंठ प्रशंसा कर रहा है। इसमें किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
दरअसल अधिकांश मीडिया संसाधनों (प्रिंट और टीवी) पर बड़े कारोबारियों, उद्योगपतियों, कंपनी मालिकों, ब्रोकर्स और दलालों का मालिकाना कब्जा है।
ज़ाहिर है उद्योगपतियों का मीडिया होने के चलते मीडिया का चरित्र भी पूंजीवाद हितैषी और मजदूर विरोधी है। ऐसे में अपने चरित्र के उलट पत्रकारिता की उम्मीद करना भी बेमानी है।
वहीं जो चैनल या अख़बार पूंजीपतियों के मालिकाना कब्जेमें नहीं हैं उन्हें मजदूरों से क्या मिलेगा जबकि पूँजीपतियों से उन्हें कार्पोरेट विज्ञापन मिलेगा, जिसके बिना एक भी दिन मीडिया का चल पाना मुमकिन ही नहीं है।
फिर वो इन मजदूर विरोधीअध्यादेश के विरोध में लिखकर सरकार और कार्पोरेट की मुख़ालफत क्यों कर करें।
वर्गशत्रुता बनाम लोकतांत्रिक दायित्व
पूँजीवाद के लिए अपना हित ही सर्वोपरि है बाकी चीजें बाद में। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खंभा बोलकर आप उससे लोकतांत्रिक दायित्व निभाने की उम्मीद में बैठे आदर्शवादी लोगो को ये जान लेना चाहिए कि पूंजीवादी मीडिया का चरित्र भी पूँजीवादी ही होगा।
अतः मजदूर उसका वर्ग शत्रु हुआ। पूंजीवादी मीडिया अपने वर्गशत्रु का पक्ष लेकर लिखे-बोले ऐसे बात सोचना दरअसल निराशाकाल में उलटे दिशा में तैरकर उम्मीद की मछलियां पकड़ना है।
पूँजीवादी मीडिया लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व भले ही न निभा रहा हो लेकिन वर्गशत्रुता भली भाँति निभा रहा है।
लॉकडाउन में भूखे प्यासे हजार-2 हजार किलोमीटर पैदल जा रहे प्रवासी मजदूर को कोरोना फैलाने वाला और प्रधानमंत्री के प्रयास को विफल करने वाला देश और उच्च एवं मध्यवर्गीय समाज का शत्रु साबित करने में मीडिया कोई कसर नहीं छोड़ रहा है।
सड़कों और रेल की पटरियों पर कुचलकर मर रहे मजदूरों से सवाल करके अपनी पूंजीवादी चरित्र का बखूबी निर्वाहन कर रहा है कि वो लॉकडाउन में सड़कों पर क्यों जा रहा है, रेल की पटरियां क्या मजदूरों के सोने के लिए हैं।
कोरोना कोरोना के समय रोटी-रोटी, राशन-राशन चिल्लाने वाले इन चिरभुक्खड़ों को मीडिया बखूबी आईना दिखा रहा है।पूँजीवादी मीडिया ये सवाल भले न पूछ रहा हो कि क्यों इन मजदूरों के बकाया वेतन नहीं दिया जा रहा।
या इन्हें लॉकडाउन में रोककर रखने पर उनको राशन और वेतन क्यों नहीं दिया जा रहा है पर ये सवाल बखूबी पूछ रहा है कि इनके पास दारू पीने के पैसे हैं पर टिकट खरीदने के पैसे नहीं हैं!
मीडिया ये सवाल पूछ रहा है कि सारे मजदूर भाग गए तो लॉकडाउन खुलने के बाद कंपनियां फैक्ट्रियां कैसे चलेंगी। मीडिया मजदूर को नक्सली, माओवादी, कामचोर, राष्ट्र का दुश्मन तो साबित कर ही रहा है मीडिया से अब और क्या चाहते हो भाई।
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