मौजूदा किसान आंदोलन मोदी सरकार के सामने अभूतपूर्व चुनौती क्यों है?
पिछले 25 दिनों से चल रहा किसान आंदोलन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के सामने उपस्थित सबसे बड़ी चुनौती क्यों है?
पूरे पंजाब में यह एक जनांदोलन है। जिसे पंजाब के बहुलांश जनता का समर्थन प्राप्त है और यह समर्थन बढ़ता ही जा रहा है।
हरियाणा में भी यह तेजी से जनांदोलन की शक्ल ले रहा है। देश के कोने-कोने से धीरे-धीरे इस आंदोलन को बड़े पैमान पर समर्थन प्राप्त हो रहा है और यह एक देशव्यापी जनांदोलन बनने की ओर बढ़ रहा है।
अभी तक इस जनांदोलन की बागडोर उन किसानों और किसान नेताओं के हाथ में है, जो झुकने को तैयार नहीं हैं। इस आंदोलन को खालिस्तानी और नक्सली-माओवादी कहकर बदनाम करने की कोशिश नाकाम साबित हुई है, बल्कि इसका उलटा असर पड़ा है।
इस आंदोलन की रीढ़ पंजाबी सिख हैं, जो गहरे स्तर पर मानवतावादी होने के साथ ही अपने मान-सम्मान के लिए लडाकू कौम रही है। अत्याचारी शासकों के खिलाफ संघर्ष और कुर्बानी की इनकी करीब 500 वर्षों की परंपरा है।
यह मेहनतकश किसानों का जनांदोलन है, जो खुद अपने खेतों में अपने परिवार सहित कठिन श्रम करते हैं, भले ही इसके साथ वे मजदूरों का उपयोग करते हों। वे अपने खेतों में अपने पूरे परिवार सहित काम करते हैं, जिसमें महिला-पुरूष दोनों शामिल हैं।
इस आंदोलन की रीढ़ मूलत: पंजाब-हरियाणा के वे किसान हैं, जिनकी समृद्धि एवं संपन्नता का मूल आधार उनकी खेती है।
यह आंदोलन उन किसानों का आंदोलन है, जो अपने आर्थिक संसाधनों के बलबूते इस आंदोलन को महीनों-वर्षों टिकाए रख सकते हैं।
प्राकृतिक आपदा, युद्ध, जनसंघर्षों-जनांदोलनों आदि में देश-दुनिया के हर क्षेत्र में हर समुदाय के लिए सहायता पहुंचाने वाले सिखों के देशव्यापी एवं विश्वव्यापी समूह इस आंदोलन की हर तरह से मानवीय सहायता कर रहे हैं।
कुछ जड़सूत्रवादी वामपंथियों को छोड़कर हर तरह के जनवादी-प्रगतिशील समूह इस आंदोलन के साथ हैं, वे अपने तरीके से हर संभव मदद इस आंदोलन को पहुंचा रहे हैं।
देश के किसानों, विशेषकर पंजाब-हरियाण के किसानों को इस बिल से यह संंदेश गया है कि मोदी सरकार किसानों की फसल और जमीन अपने कार्पोरेट मित्रों ( अंबानी-अडानी) को सौंपना चाहती है और उन्हें इन कार्पोरेट घरानों का गुलाम किसान या मजदूर बना देना चाहती है। उनकी सोच आधार है, क्योंकि दुनिया के कई सारे देशों में ऐसा हुआ और इसकी तरीके से कार्पोरेटे को खेती की जमीन सौंपी गई।
सिंघू बार्डर और टिकरी बार्डर पर मौजूद किसान इस आंदोलन को अपने जीवन-मरण के प्रश्न के रूप में देखने लगे हैं। उन्हें यह विश्वास हो गया है कि यदि ये कानून लागू हो गए तो उनकी जितनी भी और जैसी संपन्नता एवं समृद्धि है, वह खत्म ही हो जाएगी, इसके साथ आने वाली पीढियां भी बर्बाद हो जायेंगी।
यह एक ऐसा जनांदोलन है, जिसके निशान पर कार्पोरेट घराने और उनके मीडिया हाउस भी हैं।
इस जनांदोलन में शामिल अधिकांश किसानों को यह विश्वास हो गया है कि मोदी सिर्फ कार्पोरेट घरानों के लिए काम करते हैं, वे उनके हाथ की कठपुतली हैं। अंबानी-अडानी जो चाहते हैं, वही होता है। यह मोदी की सरकार नहीं अंबानी-अड़ानी की सरकार है। उनका कहना है कि यह कानून भी अंबानी-अडानी के हितों के लिए बनाया गया है।
इस जनांदोलन को बहुलांश वैकल्पिक मीडिया का खुला समर्थन प्राप्त है और सोशल मीडिया भी इस जनांदोलन को समर्थन दे रही है।
इस जनांदोलन को मोदी जी हिंदू-मुस्लिम का एंगल या पाकिस्तान का एंगल नहीं दे पा रहे हैं। सिर्फ उनके पास कोसने के लिए विपक्षी पार्टियां हैं। विपक्षी पार्टियां किसानों को गुमराह कर रही हैं यह तर्क अधिकांश लोगों के गले नहीं उतर रहा है। शायद भीतर से मोदी सरकार को भी इस पर भरोसा नहीं।
भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के वादों को पूरा करने में मोदी जितन भी सफल हुए हो, लेकिन आर्थिक मामलों में उन्होंने जितने भी वादे किए उन सभी में वे अविश्वसनीय साबित हुए हैं। जिसके चलते मोदी जी के किसी भी वादे पर किसानों को भरोसा नहीं है, क्योंकि उन्हें लग रहा है कि वे किसानों के नहीं कार्पोरेट के दोस्त हैं और उनके द्वारा पाले-पासे गए हैं।
इस आंदोलन को धीरे-धीरे मजदूरों का भी समर्थन प्राप्त हो रहा है, क्योंकि जिन कार्पोरेट मित्रों के लिए ये तीन कृषि कानून बने हैं, उन्हीं कार्पोरेट मित्रों के लिए मोदी सरकार तीन बड़े लेबर लॉ भी पास कर चुकी है।
आम गरीब जनता में भी यह संदेश जा रहा है कि यदि गेहू-चावल पैदा करने वाले किसानों की खेती कार्पोरेटे के हाथ में चली गई, तो उन्हें सस्ते गल्ले की दुकानों से मिलने वाला सस्ता अनाज मिलना भी बंद हो जाएगा और उनकी भूखमरी और कंगाली और बढ़ जाएगी।
निम्न कारणों से मोदी जी इस कानून को वापस नहीं लेना चाहते है या नहीं ले पा रहे हैं-
पहला, देशी-विदेशी कार्पोरेट घरानों की निगाह देश के किसानों की फसल और जमीन पर है और यह कानून देश के किसानों की फसल और जमीन पर कार्पोरेट के कब्जे का रास्ता खोलता है, जो कार्पोरेट के मुनाफे और संपदा में बेहतहाशा वृद्धि करेगा
दूसरा, खेती पर निर्भर करीब 75 करोड़ लोगों के बड़े हिस्स की तबाही उन्हें शहरी स्लम बस्तियों में जाने के लिए बाध्य करेगी, जो कार्पोरेटे घरानों के लिए बहुत ही सस्ते मजदूर के रूप में उपलब्ध होंगे। यही कार्पोरेट घराने चाहते हैं.
तीसरा, खाद्य उत्पादों पर कार्पोरेट का नियंत्रण उन्हें बड़े पैमाने पर उपभोक्ताओं से मुनाफा कमाने का अवसर प्रदान करेगा।
चौथा, चुनाव जीतने के लिए कार्पोरेट घरानों द्वारा भाजपा को मुहैया कराए गए अकूत धन की वसूली के लिए कृषि क्षेत्र को कार्पोरेट घरानों को सौंपना नरेंद्र मोदी की बाध्यता है, जैसे आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन को और बैंकों एवं भारतीय जीवन बीमा निगम की पूंजी को।
पांचवां, इसके साथ मोदी का व्यक्तिगत अहंकार भी इसके आड़े आ रहा होगा,जिस व्यक्ति ने देश को तबाह कर देने वाली नोटबंदी को भी आज तक अपनी गलती नहीं मानी, वह कैसे मान लेगा कि ये तीन कृषि कानून गलत हैं और उन्हें वापस लिया जा रहा है।
मोदी जी इन कृषि कानूनों को वापस लेने या स्थगित करने की जगह गुरु तेगबहादुर के शहदी दिवस पर उन्हें माथा टेकने का भावात्मक खेल खेल रहे हैं। लेकिन इस जनांदोलन में शामिल किसान इस पाखंड कह रहे हैं।
किसान आर-पार की लडाई की तैयारी के साथ बार्डर पर डटे हुए हैं, पीछे से उन्हें रसद मुहैया हो रही है, देखना है कि इन जाबांज किसानों के सामने मोदी सरकार कितने देर टिकती है और अपने बचाव के लिए कौन सा रास्ता निकालती है।
अबकी बार मोदी सरकार का सामने योद्धाओं की कौम से है, जिन्हें शहीद होना तो आता है, लेकिन झुकना नहीं आता। उन्हें झुकाना एक बहुत मुश्किल भरा काम है। साथ में उनका सबकुछ दांव पर लगा हुआ है।
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