क्या आपको ख़बर है कि बैंगलुरु में एप्पल बनाने वाली कंपनी के मज़दूर क्यों उग्र हुए?
By मनोज कुमार
एप्पल कंपनी ने आज माना कि उसके लिए एप्पल प्रोडक्ट बनाने वाली ताइवानी कम्पनी विस्ट्रॉन ने बंगलूरू के कारखाने में काम करने वाले मजदूरों को वेतन देने में गड़बड़ी की।
आपको शायद ख़बर हो कि समय पर वेतन नहीं मिलने के कारण विस्ट्रॉन के कोलार कारखाने में मजदूरों ने 12 दिसम्बर को तोड़-फोड़ की थी।
एप्पल ने ताइवानी कंपनी को अपना प्रोडक्शन आउटसोर्स किया तो ताइवानी कंपनी ने मजदूरों की नियुक्ति का काम छह ठेकेदारों को आउटसोर्स कर दिया।
विस्ट्रॉन ने इसी साल बैंगलुरु में अपना प्रोडक्शन शुरू किया है। बड़ी-बड़ी ख़बरें लगीं कि बहुत लोगों को रोजगार मिलेगा। मिला भी, लेकिन कंपनी के कुल 10 हजार मजदूरों में 1500 के आसपास के मजदूर स्थायी पेरोल पर हैं बाकी लगभग साढ़े आठ हजार मजदूर छह ठेकेदारों से जुड़े हुए हैं।
मजदूरों का कहना है कि कंपनी की तरफ से उन्हें 18 हजार की तनख्वाह तय है जिसमें से कई ठेकेदार 6 हजार ले लेते हैं। बाकी बचा 12 हजार। काम कभी-कभी 12 घंटे भी करने पड़ते हैं जिसके लिए कोई ओवरटाइम नहीं मिलता है।
इस सब के बाद जब समय पर वेतन मिलने भी देरी हुई तो मजदूरों का सब्र टूट गया। घटना के दिन नाइट शिफ़्ट के बाद कुछ मजदूर एचआर डिपार्टमेंट के पास इकठ्ठा हुए।
जब वेतन को लेकर ना नुकूर की स्थिति बनी तो तोड़-फोड़ शुरू हुआ। कंपनी ने पहले कहा कि लगभग साढ़े चार सौ करोड़ की सम्पति का नुकसान हुआ, लेकिन बाद में कुछ ही प्राथमिकी में उसने 40-45 करोड़ नुकसान की बात दर्ज करवाई।
अब एप्पल अपनी नैतिक श्रेष्ठता दिखाने के लिए विस्ट्रॉन पर दोष मढ़ रहा है और विस्ट्रॉन अपने छह लेबर कॉन्ट्रैक्टर्स पर।
विस्ट्रॉन ने वर्करों की सैलरी देने में अनियमितता स्वीकार की है और वाइस प्रेसिडेंट को निकाल दिया है। उधर एप्पल ने विस्ट्रॉन को अपने ऑर्डर देने पर रोक लगा कर ज़िम्मेदारी पूरी कर ली।
इसे कहते हैं नैतिक जिम्मेवारियों की आउटसोर्सिंग। बहरहाल क्या किसी लेबर कांट्रेक्टर की गिरफ़्तारी अभी तक हुई है? नहीं।
पुलिस का कहना है कि उसकी प्राथमिकता है कि पहले वह हंगामा करने वाले मजदूरों को पकड़ेगी। लेबर कांट्रेक्टर का मामला बाद में देखेगी।
अभी तक डेढ़ सौ से ज़्यादा वर्करों को गिरफ़्तार कर लिया गया है और क़रीब 7,000 वर्करों पर मुकदमा लाद दिया गया है।
जैसा कि आप अपेक्षा कर सकते हैं विस्ट्रॉन कंपनी में कोई लेबर यूनियन नहीं है। होता भी तो श्रम कानूनों में संशोधन के बाद ओवरटाइम आदि पर कुछ बोलने का मतलब नहीं रह जाता।
अब आइए किसान आंदोलन पर। एक तरफ हैं दिग्गज अर्थशास्त्री जिन्हें नए कृषि कानूनों में सब फायदे ही फायदे दिख रहे हैं। दूसरी तरफ हैं दिल्ली की ठंढ में अपने ट्रैक्टर ट्रालियों पर जमे किसान।
किसानों ने अर्थशास्त्र की पाठ्यपुस्तक नहीं पढ़ी है, लेकिन वे कृषि अर्थव्यवस्था के साथ और उसके भीतर ही साँस लेते हैं।
हो सकता है उन तक अभी विस्ट्रॉन/एप्पल कंपनी की ख़बर नहीं पहुँची हो, लेकिन उन्हें पता है कि जब बड़े कॉर्पोरेट घरानों पर आपकी निर्भरता बढ़ती है तो आपका क्या होता है।
एक तरफ ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ और ‘इकोनॉमिक टाइम्स’ वाले स्वामीनाथन अंकलेशवर अय्यर हैं तो दूसरी तरफ हैं ‘ट्राली टाइम्स’ वाले ये किसान।
आप किस तरफ हैं? जिस तरफ भी हों आप फिलहाल धूमिल की ये चार लाइनें पढ़िए:
लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुँह में लगाम है।
(यह धूमिल की अंतिम कविता मानी जाती है )
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