अवनी बाघिन के बहानेः इंसानों की दो पीढ़ियों ने वन्यजीवों की आधी आबादी नाश कर दी
By Jeta/Sanjay Kabir
अवनी पर महाराष्ट्र सरकार का दिल नहीं पसीजा। सरकार अवनी की जान बख्शने को तैयार नहीं हुई।
पांच साल की बाघिन अवनी या टी-1 को नागपुर में बहुत ही ठंडे दिमाग से मार डाला गया।
मौके से जो सबूत मिले हैं वे इस तरफ इशारा करते हैं कि मारने से पहले उसे बेहोश करने की भी कोशिशें नहीं की गई।
नागपुर व आसपास के इलाके में अवनी व चार अन्य बाघों का बसेरा है। दावा किया जा रहा है कि अवनी बाघिन नरभक्षी हो चुकी थी और उसके ऊपर 13 लोगों की मौत का आरोप लगाया जाता है।
इसी के चलते उसे मारने का आदेश महाराष्ट्र सरकार की ओर से जारी किया गया। लंबी प्रक्रिया के बाद शुक्रवार रात 11 बजे के लगभग उसे मार गिराया गया।
मीडिया रिपोर्ट की मानें तो मारने से पहले अवनी को बेहोश करने की कोशिश नहीं की गई, बल्कि मारने के बाद अपने हाथ से ही लेकर उसके शरीर में डार्ट चुभोया गया है।
नियमों के अनुसार बाघ के लिए रात के समय इस तरह का अभियान नहीं चलाया जा सकता।
लेकिन, नियमों का पूरी तरह से उल्लंघन करके उसकी जान ले ली गई।
बाघिन अवनी दस-दस महीने के दो बच्चों की मां थी। इस समय उसके बच्चे कहां हैं, इसका भी पता नहीं। अगर बच्चों की जान जाती है तो यह माना जाएगा कि तीन बाघों की हत्या की गई है।
यह तो तब है जब हमारे देश में सेव टाइगर मिशन चलाया जा रहा है और दुनिया भर में सिर्फ चार हजार के लगभग बाघ ही बचे हैं और जंगलों में रहने वाली उनकी सबसे बड़ी आबादी भारत में ही रहती है।
इनमें से तीन बाघ कम हो गए। वन्यजीव प्रेमियों की तरफ से आवाज उठाई जा रही थी कि अवनी की हत्या न की जाए। उसे ज़िंदा पकड़ा जाना चाहिए।
नरभक्षी होने की स्थिति में उसे चिड़ियाघर में रखा जा सकता था। उसकी जान बख्शने के लिए ऑनलाइन पेटीशन की भी शुरुआत की गई थी।
लेकिन, सरकारी जिद् उसकी जान लेने पर ही तुली रही और आखिरकार लगभग एक साल तक तमाम सरकारी कोशिशों के बावजूद सर्वाइव करने वाली अवनी कल खामोश हो गई। अब महाराष्ट्र के पांधरकावडा के जंगलों में कभी भी उसकी दहाड़ सुनने को नहीं मिलेगी।
हमारी दो पीढ़ियां ही खा गईं वन्यजीवों की आधी आबादी
तेजी से जानवरों का विलुप्त होना न सिर्फ वन्यजीवन को नष्ट कर रहा है, बल्कि ये हमारी सभ्यता के लिए भी खतरा है।
एक रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 1970 से अब तक हम मनुष्यों ने जानवरों की करीब 60 प्रतिशत आबादी को नष्ट कर दिया है। इतना बड़ा नुकसान अपने आप में त्रासदी है।
दुनिया के बड़े वैज्ञानिकों ने अपनी इस रिपोर्ट में कहा है कि इससे न सिर्फ जानवरों की बड़ी आबादी खत्म हुई है, बल्कि ये बात सभ्यता के अस्तित्व के लिए भी खतरा है।
हम मनुष्यों ने 60 प्रतिशत स्तनपायियों, पक्षियों, मछलियों और सरीसृपों को नुकसान पहुंचाया है। वन्यजीवन के इस तरह तेजी से नष्ट होने की बात ने पर्यावरण विशेषज्ञों को भी हैरत में डाल दिया।
वैज्ञानिकों का मानना है कि यह एक इमरजेंसी जैसी स्थिति है जो हमारी सभ्यता के लिए खतरा है।
वन्यजीवन के विनाश पर डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की हाल में आई इस रिपोर्ट को करीब 59 वैज्ञानिकों ने तैयार किया है।
रिपोर्ट की मानें तो वैश्विक जनसंख्या द्वारा खाद्य पदार्थों और संसाधनों की बढ़ती खपत जीवन के उस चक्र को नष्ट कर रही है जिसे बनाने में अरबों साल लग जाते हैं।
इसके उपर हमारी मानव सभ्यता पूरी तरह से निर्भर है चाहे वो साफ हवा के लिए हो या पानी के लिए।
पूंजीवाद बन गया है इस ग्रह के लिए ख़तरा
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ में साइंस और कंजर्वेशन के एक्सक्यूटिव डायरेक्टर माइक बैरेट ने कहा, यह एक तरह से खाई की तरफ आंख मूंदकर चलने जैसा है।
अगर ये 60 प्रतिशत की गिरावट मनुष्यों की जनसंख्या में आ जाए तो यह नॉर्थ अमेरिका, साउथ अमेरिका, अफ्रीका, यूरोप, चीन और ओसिएनिया के खाली हो जाने जैसी स्थिति होगी।
हमने प्रकृति को जो नुकसान पहुंचाया है, ये उसका पैमाना है। यह प्रकृति के खजाने को खोने से भी कहीं ज्यादा है।
यह लोगों के भविष्य को खतरे में डालने जैसा है। जर्मनी के पोट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट में ग्लोबल सस्टेनेबिलिटी एक्सपर्ट प्रोफेसर जोहान रॉकस्ट्रोम कहते हैं, हम समय से बहुत पीछे चल रहे हैं।
इकोसिस्टम और क्लाइमेट दोनों तरफ की दिक्कतों का समाधान करके ही हम भविष्य में धरती पर जीवन को बचा सकते हैं।
कई वैज्ञानिकों का कहना है कि दुनिया के विलुप्त होने की शुरुआत हो चुकी है। इसकी सबसे पहली वजह होमोसेपियंस बने हैं।
हालांकि बहुत से लोगों का मानना है कि पूंजीवाद ने न सिर्फ जैव विविधता को नुकसान पहुंचाया है बल्कि समूची पृथ्वी के लिए एक चुनौती खड़ी कर दी है।
नष्ट होने वाले जीवों में 83 प्रतिशत स्तनपायी
हाल ही में हुए एक एनालिसिस के मुताबिक, सभ्यता की शुरुआत से अब तक मनुष्यों ने करीब 83 प्रतिशत स्तनपायियों को नष्ट कर दिया है और करीब आधे पौधों को।
अगर विनाशलीला यहां आकर खत्म भी हो जाती है तब भी इस दुनिया को रिकवर होने में 5 से 7 लाख साल लग जाएंगे।
जुओलॉजिकल सोसायटी आॅफ लंदन के लिविंग प्लांट इंडेक्स के एक डेटा का इस्तेमाल 16,704 की जनसंख्या वाले स्तनपायियों, पक्षियों, मछलियों, सरीसृपों और जलस्थलचरों पर किया गया।
ये करीब 4000 प्रजातियों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। इनके जरिए वन्यजीवन की बिगड़ती स्थिति का पता लगाने की कोशिश की गई।
इस रिसर्च में सामने आया कि साल 1970 से 2014 के बीच इनकी जनसंख्या औसतन 60 प्रतिशत तक घट गई थी।
चार साल पहले ये गिरावट 52 प्रतिशत तक थी। बैरेट कहते हैं कि ये खौफनाक सच है कि वन्यजीवन का तेजी से क्षय हो रहा है।
धरती का एक तिहाई हिस्से में तबाही
जाने माने एनवॉयरमेंटल साइंटिस्ट प्रोफेसर बॉब वॉटसन कहते हैं कि वाइल्डलाइफ और इकोसिस्टम मनुष्य जीवन के लिए जरूरी हैं।
प्रकृति का बर्बाद होना उतना ही खतरनाक है जैसे जलवायु परिवर्तन. वह कहते हैं, प्रकृति इंसानों की बेहतरी के लिए सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दोनों तरह से जरूरी है।
धरती हमें अनाज पैदा करके देती है, साफ पानी देती है और उर्जा भी देती है। यह जलवायु से लेकर प्रदूषण, परागण और बाढ़ जैसी सभी स्थितियों को नियमित भी करती है।
लिविंग प्लानेट रिपोर्ट में ये साफ तौर पर सामने आया है कि मनुष्य की गतिविधियां प्रकृति को नुकसान पहुंचा रही हैं। यह आने वाली पीढ़ियों के लिए ख़तरनाक स्थिति पैदा कर रहा है।
वन्यजीवन के नुकसान की सबसे बड़ी वजह नैचुरल हैबीटेट्स को नष्ट किया जाना है।
खेती के लिए तेजी से नैचुरल हैबीटेट को खत्म किया जा रहा है। धरती का एक तिहाई हिस्सा इंसानों के गतिविधियों से प्रभावित है।
खाने के लिए जानवरों की हत्या करना भी स्तनपायियों के विलुप्त होने की बड़ी वजह है।
स्तनपायियों की करीब 300 प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं। वहीं केमिकल पॉल्यूशन की वजह से भी समुद्री जीवों की जनसंख्या में भी भारी कमी आई है।
अंधाधुंध पूंजीवादी उत्पादन, विनाश, मुनाफ़े की हवस ने वाकई इस ग्रह के अस्तित्व को ख़तरे में डाल दिया है।
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