झारखंड में टाटा पॉवर प्लांट को ज़मीन देकर नौकरी मिली, पर वेतन न जीने लायक न मरने लायक
By खुशबू सिंह
झारखंड में जिन आदिवासियों की ज़मीनें अधिग्रहित कर टाटा ने अपना पॉवर प्लांट लगाया और स्थानीय लोगों को रोज़गार देने का वादा किया, लेकिन रोज़गार के नाम पर न्यूनतम मज़दूरी दी जा रही है।
मज़दूरों को विस्थापित कर के उनके ही ज़मीन पर पॉवर प्लांट बनाया गया। विस्थापित मज़दूर यंहा नौ साल से काम कर रहे हैं, लेकिन इतने सालों में उनके वेतन में इज़ाफा महज 20 फ़ीसदी ही हुआ।
मज़दूरों ने कई बार वेतन बढ़ाने के लिए टूल डाउन भी किया, हड़ताल भी की पर हर बार प्रबंधन वेतन को लेकर झारखंड न्यूनतम वेजेस एक्ट 1948 का हवाला देकर पल्ला झाड़ लेता है।
झारखंड के मैंथन में स्थित टाटा मैंथन पॉवर लिमिटेड (एमपीएल) में काम करने वाले मज़दूर एमए. ग्रेजुएट और बीकॉम हैं, पर इन्हें वेतन 5,460 – 8,710 रुपए ही मिलता है।
झारखंड न्यूनतम मज़दूरी क़ानून 1948 के तहत अप्रशिक्षित मज़दूर को 8,571.78 रुपये अर्द्ध प्रशिक्षित मज़दूर को 8,977.47 रुपये और पूर्ण प्रशिक्षित को 11,935.06 रुपये प्रति माह मिलता है।
इसके अनुसार इन मज़दूरों के वेतन में साल में दो बार इज़ाफ़ा किया जाता है, लेकिन ताज्जुब है कि ये 2-5 रुपए जैसे मामूली वृद्धि तक ही सीमित है।
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2018 से कर रहे हैं संर्घष
इस सिलसिले में टाटा पॉवर प्लांट के मज़दूरों ने धनबाद श्रम आयुक्त को 2018 में पत्र लिखा था। पर हर बार मिनिमम वेजेस एक्ट 1948 का हवाला देकर मज़दूरों की मांग को नज़र अंदाज़ कर दिया जाता रहा है।
एमपीएल कामगार यूनियन के सचिव केशव चंद तिवारी ने वर्कर्स यूनिटी को बताया, “प्रबंधन सरकारी क़ानून के तहत अगर हमारे वेतन में इज़ाफ़ा नहीं कर सकता है तो, काबिलियत के अनुसार पदोन्नति तो कर ही सकता है।”
वो कहते हैं, “जिन लोगों को विस्थापित करके प्लांट बनाया गया है उन्हें अलग से फैक्ट्री में सुविधा मिलनी चाहिए। इन्हीं मांगों को लेकर हम लोग कई सालों से लड़ रहे हैं। 2018 में कई बार अधिकारियों को पत्र भी लिखा पर कोई हल नहीं निकला।”
वहीं इस प्लांट में 800 से अधिक वे मज़दूर काम करते हैं जिनकी ज़मीन पर टाटा ने पॉवर प्लांट खड़ा किया है और 2200 से अधिक अन्य मज़दूर काम करते हैं।
केशव चंद बताते हैं, “जब भी हम वेतन बढ़ाने को लेकर हड़ताल करते हैं तो हमें कहा जाता है कि, मज़दूर अनस्किल्ड हैं और उन्हें उसके हिसाब से वेतन मिल रहा है। जबकि सच तो ये है कि सभी मज़दूरों से एक बराबर ही काम कराया जाता है।”
वो दावा करते हैं कि टाटा प्रबंधन को इस बात का डर है कि स्थानीय लोगों की एकजुटता कहीं व्यापक एकता का रूप न ले ले इसलिए टाटा प्रबंधन चंद मज़दूरों को अपने ही इंस्टीट्यूट में एक महीने की ट्रेनिंग देकर उन्हें स्किल्ड मज़दूरों में शामिल कर देता है।”
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प्लांट से प्रदूषण बढ़ा
केशवचंद तिवारी के अनुसार, टाटा पॉवर प्लांट का अपना इंस्टीट्यूट है जिसमें वे मज़दूरों को ट्रेनिंग देकर स्किल्ड बनने का सबूत देते हैं।
टाटा के इंस्टीट्यूट में यदि कोई मज़दूर एक माह कोर्स करता है तो उसे सिल्वर कार्ड दिया जाता है। दो माह वाले को गोल्ड कार्ड दिया जाता है और तीन माह कोर्स करने वाले मज़दूर को डायमंड कार्ड दिया जाता है।
इस कार्ड के अनुसार से ही तय किया जाता है कि कौन मज़दूर कितना कुशल है।
केशव चंद कहते हैं, “लेकिन अब ऐसा नहीं है। कोई साल भर भी कोर्स करेगा तो उसे सिल्वर कार्ड ही दिया जाता है। और फैक्ट्री में काम करने वाले मज़दूरों से कोर्स के लिए पैसा नहीं लिया जाता है।”
“इस प्लांट के कारण आस-पास के गांवों का पानी दूषित हो गया है, जिसके कारण हर घर में किसी न किसी को किडनी की बीमारी है। और इसमें अधिकतर मज़दूर वर्ग शामिल हैं। इन सभी मुद्दों को लेकर हम लोग लगातार लड़ रहे हैं। पर कोई सुनवाई नहीं है।”
उन्होंने आरोप लगाया कि, “सीएसआर (कंपनी सोशल रेस्पांसिबिलिटी) के तहत हर साल 8 से 10 करोड़ रुपये का खर्च किया जाता है, लेकिन काम पर 30 फ़ीसदी का ही खर्च होता हैं। अधिकारी बीच में पैसा खा जाते हैं।”
केशव चंद ने झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) पर आरोप लगाते हुए कहा कि, “इन लोगों ने हमारी समस्या को सुलझाने का कई बार वादा किया पर सभी लोग पूंजीपतियों की गुलामी करते हैं।”
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