भारत को भुखमरी की कगार पर पहुंचाकर विदेश में खाद्य सुरक्षा को लेकर चिंतत मोदी- नज़रिया
By मुकेश असीम
मोदीजी ने समरकंद में खाद्य व ऊर्जा सुरक्षा पर बहुत चिंता जताई। बाइडेन व अन्य नाटो नेताओं को भी पिछले दिनों खाद्य व ऊर्जा सुरक्षा की बहुत चिंता थी। पुतिन और शी को भी इसकी ही चिंता है।
संयुक्त राष्ट्र ने तो आंकड़े जारी किए हैं कि 35 करोड़ लोग तो एकदम भुखमरी की हालत में हैं।
पर खाद्य सुरक्षा को खतरा किससे है?
खाद्य निगम ने पिछले साल के मुकाबले इस बार लगभग 10 गुना चावल इथेनॉल बनाने वाली कंपनियों को बेचा है। यही वह सस्ता टूटा चावल है जिसके निर्यात की भारी मांग अफ्रीकी देशों से थी।
अंत में देश विदेश की भूखी गरीब मेहनतकश जनता के भोजन पर इथेनॉल बनाने वाले पूंजीपतियों के हित विजयी रहे। बाजार में चावल के दाम आम लोगों की पहुंच के बाहर हुए तो क्या?
ऐसे ही गेहूं का इस्तेमाल व्हिस्की के बढते उत्पादन के लिए हो रहा है। मुनाफा उसमें ज्यादा है कि मजदूर को आटा बेचने में? पिछले साल तक बताया जा रहा था कि एफसीआई के पास खाद्यान्न का भंडार संभालने तक की क्षमता नहीं है।
और इस साल खाद्यान्न की कमी पड़ने की स्थिति आ खडी हुई है और दाम हैं कि बढते ही जा रहे हैं, किसानों द्वारा बिक्री के लिए नहीं, इजारेदार पूंजीपतियों के मुनाफे लिए।
अंगूर का उत्पादन बढा है, पर महंगी वाइन के लिए खपत की वजह से अंगूर अधिकांश जनता की कभी कभार की पहुंच से भी दूर होता जा रहा है।
दुनिया में मक्का की खूब उपज है। पर वह भी इथेनॉल बनाने में लग रही है। चीनी की बडी खपत सॉफ्ट ड्रिंक्स में होती है।
बल्कि खेती की जमीन और सिंचाई के पानी का एक बडा हिस्सा ऐसी फसलों के लिए लगने लगा है जो अमीरों के ऐशो आराम के उत्पादों के उद्योग में काम आते हैं क्योंकि उसमें मुनाफा अधिक होता है।
पूंजीपतियों के मुनाफे की इस नीति से ही खाद्य सुरक्षा को खतरा है और इसी की वजह से खाद्य पदार्थों के दाम आसमान छू रहे हैं।
गरीब देशों में खाद्य असुरक्षा व ऊंचे दामों के लिए उक्रेन युद्ध को जिम्मेदार ठहराया गया था। पर आखिर जब गेहूं निकालने का समझौता हुआ तो वहां से लादे गए लगभग 100 जहाजों में से मात्र 2 ही गरीब देशों को गए, बाकी सब पश्चिम यूरोप में।
कुछ लोग कहेंगे कि ऊर्जा सुरक्षा भी जरूरी है, पेट्रोलियम महंगा है, इथेनॉल बनाने में क्या बुराई है? पर पेट्रोलियम की खपत का बहुत बडा भाग भी ऐसे प्रयोग में आता है जो सामाजिक आवश्यकता के लिए पूंजीवादी व्यवस्था के अनुत्पादक हिस्से में लगता है।
सार्वजनिक यातायात के बजाय निजी यातायात को बढावा दिया जाता है। बहुत बारीकी में न भी जाएं तो फौज पुलिस अफसरशाही, शस्त्र उत्पादन, युद्ध, अमीरों के ऐशो आराम, एडवरटाइजिंग जैसी चीजें ही ऊर्जा का बडा हिस्सा खर्च करती हैं।
ये सब पूंजीवाद की शोषक व मुनाफाखोर व्यवस्था की जरूरत है, कोई तार्किक सामाजिक मानवीय आवश्यकता नहीं, साथ में पर्यावरण को नष्ट करती हैं।
सामाजिक आवश्यकता के बजाय मुनाफाखोरी पर आधारित पूंजीवाद खाद्य व ऊर्जा सुरक्षा की बुनियादी वजह है और मोदी, बाइडेन, शी, पुतिन की चिंता आम लोगों के लिए इनकी व्यवस्था की नहीं बल्कि अपने पूंजीपतियों के लिए अधिकतम मुनाफे सुनिश्चित करने की है।
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