कोरोना के बहाने ‘तीसरा महायुद्ध’ – भाग एक

कोरोना के बहाने ‘तीसरा महायुद्ध’ – भाग एक

By आशीष सक्सेना

चार महीने पहले तक आर्थिक मंदी में डूबा विश्व, व्यापार युद्ध और जनांदोलनों की बयार। अचानक, एक नए संक्रामक वायरस से साम्राज्यवादी देशों में कुछ मौत ने दुनिया का पांसा ही पलट दिया।

नतीजा सामने है। सभी जगह की जनता सिर्फ खौफ में जी रही है, सबको महसूस करा दिया गया, जैसे अगली मौत उसी की होना है। कोई आंदोलन इस वक्त कहीं नहीं।

वायरस की पहचान होने के तीन महीने बाद वायरस संक्रमण को विश्व महामारी घोषित करते ही अधिकांश प्रमुख देशों में लॉकडाउन शुरू हो गया। मेहनत मजदूरी करने वालों को सड़कों पर फेंक दिया गया और हालात को देखकर इसको उन्होंने स्वीकार भी कर लिया, कोई विरोध नहीं, कोई ऐतराज नहीं। सिर्फ इतनी इल्तिजा कि कैसे ही घर की चौखट छू लें और शायद उनको जिंदगी का मुकाम मिल जाए।

खौफ से सहमी दुनिया दर-बदर हुए ये मजदूर फिर गरीबी में जी रहे उन्हीं जैसे करोड़ों मेहनतकशों के साथ वह हुआ, जिसकी कल्पना भी करना मुश्किल था। मीलों सफर पैदल तय करने के दौरान कई ने भूख से दम तोड़ दिया, कई को वाहन कुचलकर चले गए, कहीं उनके ऊपर केमिकल बरसा दिया गया, कहीं पीटा गया तो कहीं बेआबरू किया गया।

औद्योगिक क्षेत्र में मजदूर परिवारों के पास खाने को नहीं बचा तो उनके घरों की महिलाओं पर हवस के हैवानों ने नजर डालना शुरू कर दी है। किलो भर चावल और आटा मयस्सर न होने, बच्चों के भूख से तड़पने की व्यथा पर भी निजाम का दिल नहीं पसीजा।

राहत के नाम पर खानापूरी और सुर्खियां बटोरने के अलावा किसी भी मुल्क की हुकूमत ने जमीनी तौर कुछ नहीं किया, सिवाय वायरस का हौवा खड़ा करने। जिस तरह से वायरस से मानवता के खत्म होने से लेकर मुनाफाखोरी के बुनियादी एजेंडे पर सरकारें काम कर रही हैं, उससे भी यही जाहिर हो रहा है कि दाल में कुछ ज्यादा ही काला है।

कोरोना वायरस की नई नस्ल कोविड 19 को वैश्विक खौफ और वास्तविकता के बीच कई ऐसे प्रश्र सामने आ गए हैं, जिनको इसी वक्त समझना जरूरी है, जिससे भविष्य के रास्ते तय हो सकें।

श्रमिकों को  भी इस बात को समझने की जरूरत है। महामारी विज्ञान, सूक्ष्म जीव विज्ञान के विशेषज्ञ वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. बीआर सिंह ने ही कई सवाल खड़े कर दिए हैं। उनका कहना है कि आम फ्लू से हर साल 60 हजार लोग अमेरिका में मरते हैं, यानी पांच हजार हर महीने। इसी तरह पूरे विश्व में 6 लाख लो आम फ्लू से मर जाते हैं, मतलब 50 हजार मौत हर महीने।

जबकि दिसंबर से मार्च समाप्ति तक कोविड-19 के संक्रमण से मरने वालों की तादाद पूरी दुनिया में अब तक 34 हजार भी नहीं पहुंची है, यानी आठ-साढ़े आठ हजार मौत प्रति महीना। ये बात कोई भी साधारण मनुष्य समझ सकता है कि 50 हजार मौत हर महीने ज्यादा होती हैं या आठ-नौ हजार।

चिंताजनक आखिर क्या है बीमारी के लिहाज से इस विश्व में। सच्चाई ये है कि पूरी दुनिया में 1 लाख 55 हजार से ज्यादा लोग हर दिन मर जाते हैं, जिसका मौजूदा वायरस से कोई लेना देना नहीं है।

वरिष्ठ वैज्ञानिक सवाल कर रहे हैं कि कोविड 19 और इस वास्तविकता को समझने के लिए डब्ल्यूएचओ और वैश्विक नेता कहां हैं? क्या यह एक वास्तविक और प्राकृतिक प्रकोप है या बनावटी? क्या यह बीमारी है या आपको भिखारी बनाने की युक्ति? क्या यह वास्तविक बीमारी है या डायग्नोसिस की बीमारी है?

डॉ.सिंह कहते हैं कि तपेदिक (टीबी) को इलाज भी किया जा सकता है और उसको भी रोका जा सकता है। फिर भी,अकेले भारत में प्रतिरोधक दवा न मिलने से 1 लाख 30 हजार टीबी के रोगी असहाय हालत में हैं। कोविड 19 की तरह टीबी संक्रमण रोकने को भी कोई वैक्सीन नहीं है।

कोविड-19 की ही तरह टीबी भी संपर्क, खांसी से फैलता है। साथ ही टीबी अत्यधिक संक्रामक पशुजन्य रोग भी है जो बड़ी संख्या में जानवरों को भी प्रभावित करता है। टीबी रोगी अनिश्चित समय तक या अपने जीवनकाल में बीमारी फैलाता रहता है।

फर्क इतना ही है कि टीबी, गरीब और गरीबी की बीमारी है, जो दुनियाभर में 15 लाख लोगों की जान लेती है और दुनिया में मौत के टॉप-10 कारणों में से एक है। वर्ष 2018 में ही विश्व के तकरीबन एक करोड़ लोग टीबी की चपेट में आए, जिनमें 57 लाख पुरुष, 32 लाख महिलाएं और 11 लाख बच्चे थे।

हर साल टीबी के लगभग 64 लाख नए केस दर्ज किए जाते हैं। भारत में हर साल 4 लाख 40 हजार, यानी रोजाना 1205 लोग, यानी 50 लोग हर घंटे टीबी की वजह से खांसते हुए दम तोड़ देते हैं।

क्या ये भयावह हालात नहीं हैं, या ये खतरनाक संक्रामक बीमारी नहीं है। लेकिन इसकी परवाह किसी को नहीं, न डरने की जरूरत है, न डराने की, न जनता कफ्र्यू की और न लॉकडाउन की।

भारत में टीबी से ग्रसित 50 लोगों का हर घंटे खांसते मरना खतरनाक नहीं है, बल्कि 45 दिन में महज 27 लोगों का मर जाना भयावह है, जिसके लिए प्रधानमंत्री से लेकर बच्चा-बच्चा कोरोना की रट लगाए हुए है, भयभीत है।

सबको इन दिनों घर में बंद रहने की सलाह है, जबकि हर दिन लाखों टीबी रोगी देश भर में यात्रा करते हैं, कई बार तो रियायती टिकटों पर।

इसी तरह, भारत में हर साल लगभग 2 लाख 30 हजार लोग, यानी 630 रोजाना, यानी 26 लोग हर घंटे आत्महत्या करते हैं। पूरी दुनिया का यही हाल है, जिसकी वजह से इस बार विश्व स्वास्थ्य दिवस की थीम ही यही थी। लेकिन कोई नहीं सोचता कि वे क्यों मरते हैं।

आत्महत्या करने वालों में 75 प्रतिशत युवा हैं, जिन्हें भारत की ऊर्जा कहा जाता है। संक्रामक न होने के बावजूद ये मौत का सबसे बड़ा कारण बन गया है।

भारत में हर घंटे तकरीबन 17 लोग दुर्घटना या उससे संबंधी वजह से मरते हैं, हर साल डेढ़ लाख लोग। लेकिन ये हमें नहीं डराता। इसके कारणों को जानकर भी ठीक नहीं किया जा रहा।

 

क्रमश: जारी….

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ashish saxena