भारत में रोहिंग्या रचने की साजिश है असम में एनआरसी

-कमल सिंह, वरिष्ठ पत्रकार

असम इस बार जिस मुद्दे को लेकर सुर्खियों में है वह न तो असमिया व गैर असमिया अथवा असम की अस्मिता की पहचान का मुद्दा है न ही बोडो जनजातियों की स्वायत्ता का मुद्दा। अलग असम राज्य की मांग को लेकर उल्फा (यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम) भी सुर्खियों की वज़ह नहीं है।

राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) की सूची के मुताबिक 3.39 करोड़ में से 2.89 करोड़ लोगों को नागरिकता के लिए योग्य पाया गया। इसका मतलब ये हुआ कि 40 लाख लोगों के नाम इस लिस्ट में नहीं हैं। इससे पहले पिछले साल 31 दिसंबर को भी एनआरसी की पहली लिस्ट जारी की गई थी। इसमें कुल 1.90 करोड़ लोगों के नाम थे।

एनआसी की इस कवायद में पिछले 3 साल में असम के 3.29 करोड़ लोगों ने नागरिकता के लिए 6.5 करोड़ दस्तावेज भेजे। ये दस्तावेज करीब 500 ट्रकों के वजन के बराबर थे। इसमें एक लाख से ज्यादा कर्मचारी लगाए गए। इस पूरी कवायद में 1200 करोड़ रु खर्च हुए।

रोहिंग्या बना देने की साजिश!

पिछले साल असम के ढुबरी में स्वतंत्रता दिवस पर झंडारोह़ का एक वीडियो वायरल हुआ था…इसमें सबसे छोटे बच्चे 9 साल के हैदर को एनआरसी में जगह नहीं मिली.

इसके बावजूद अब जारी दूसरी व अंतिम सूची में भारी विसंगतियां हैं। एक ही परिवार में कुछ सदस्यों के नाम हैं, कुछ के नहीं हैं। यहां तक भाजपा के एक विधायक एवं यूडीए के एक विधायक का नाम ही नदारत है। पूर्व राष्ट्रपति फखरूद्दी अली अहमद के परिजन का नाम भी सूची में नहीं है। एेसे भी अनेक लोग हैं जिनके नाम पहली सूची में थे या पूर्व की वोटर लिस्ट में थे अब उनके नाम नहीं हैं।

कुल मिलाकर स्थित यह है कि 40 लाख लोग जो दशकों से भारत में रह रहे हैं। यहां जन्मे, पले-बड़े, अपनी मेहनत के बल पर यहां की अर्थव्यवस्था में योगदान दिया तथा टैक्स आदि अदा किए, अब उनकी नागरिकता को संदिग्ध मान लिया गया है। एनआरसी उन्हें एक अवसर अभी दिया गया है कि 30अगस्त से 28 सितंबर तक अपने दावे और आपत्ति दाखिल कर सकते हैं।

इसके बाद उन्हें भारत का नागरिक न मानकर बेवतन घोषित कर दिया जाएगा। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह तो अभी से उन्हें ‘घुसपैठिया’ घोषित कर रहे हैं। इनकी स्थित भी कमोबेश रोहिंग्या मुसलमानों जैसी हो जाएगी।

दुनिया में म्यांमार में सबसे ज्यादा 10 लाख रोहिंग्या आबादी है, जो किसी देश के नागरिक नहीं हैं। इसके बाद थाईलैंड में 7 लाख, सीरिया में 3.6 लाख, लातविया में 2.6 लाख लोगों के पास किसी भी देश की नागरिकता नहीं हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के मुताबिक दुनिया में एक करोड़ लोग ऐसे हैं, जो किसी देश के नागरिक नहीं है।

अब भारत में भी बांग्लादेशी घुसपैठियों के नाम जितनी बड़ी मुस्लिम आबादी को बेवतन किए जाने की कावायद की जा रही है वह दुनिया में घोषित बेवतनों से अधिक होगी।

एनआरसी = 67 संसदीय सीटें

बांग्लादेशियों की ‘घुसपैठ’ के रूप में समस्या को हिंदुत्ववादी जो आकार देने की कोशिश कर रहे हैं, यह असम तक सीमित नहीं है। यह कवायद उत्तर पूर्व के अन्य राज्य, प. बंगाल आैर अन्य राज्यों तक पसरी है।

2001 में एक खु‍फिया रिपोर्ट में बताया गया था कि करीब डेढ़ करोड़ से अधिक बांग्लादेशी अवैध रूप से रह रहे हैं जिसमें से 80 लाख पश्चिम बंगाल में और 50 लाख के लगभग असम में, बिहार के किसनगंज, साहेबगंज, कटियार और पूर्णिया जिलों में भी लगभग 4.5, दिल्ली में 13लाख, त्रिपुरा में 3.75 लाख और इसके अलावा नागालैंड व मिजोरम भी बांग्लादेशी ‘घुसपैठिए’ बताए गए थे।

अब इसके अतिरिक्त मध्यप्रदेश के भोपाल, इंदौर, गुजरात के बड़ौदा, अहमदाबाद, राजस्थान के जयपुर और उदयपुर, उड़ीसा, अंध्रप्रदेश आदि में बांग्लादेशी हैं आैर आरएसएस उससे जुड़े संगठन विश्वहिंदू परिषद आदि इन्हें आतंकवाद के पनाहगार व ‘विदेशी घुसपैठिए’बताकर लगातार विषवमन करते रहते हैं।

इस तरह भाजपा को 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए देश में हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य आैर मतों के ध्रुवीकरण के लिए मुद्दा मिल गया है। दरअसल, असम से सटे पश्चिम बंगाल में भी इसी तरह ध्रुवीय करण की कोशिश हो रही है। असम में 34 प्रतिशत से ज्‍यादा मुस्लिम आबादी है, जबकि बंगाल में यह आंकड़ा 27 से 28 प्रतिशत के बीच है।

असम में 14 लोकसभा सीटें और पश्चिम बंगाल में 42। पूरे उत्तर-पूर्व राज्य (जो कभी असम का ही हिस्सा था) की बात करें तो असम समेत यहां 25 लोकसभा सीटें हैं। इस प्रकार से अगर पश्चिम बंगाल और उत्तर-पूर्व राज्यों की सभी सीटों को जोड़ दिया जाए तो कुल लोकसभा सीटें बनती हैं- 67, यानी एनआरसी ड्राफ्ट का इन 67 सीटों पर सीधा असर होगा।

आग में घी माने एनआरसी

इतना ही नहीं, असम की तर्ज पर अवैध बांग्लादेशियों की पहचान के लिए बीजेपी ने देश के दूसरे राज्यों में एनआरसी की प्रक्रिया को शुरू करने की मांग की है। इनमें बिहार, दिल्ली, यूपी, राजस्थान, मध्यप्रदेश और पश्चिम बंगाल में भाजपा व आरएसएस से  जुड़े संगठन यह मांग उठा रहे हैं।

पश्चिम बंगाल में प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष दिलीप घोष और प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय ने तो दिल्ली में प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष मनोज तिवारी ने राजधानी में, केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने बिहार में और नरेश अग्रवाल ने यूपी में एनआरसी की मांग की है।

दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष मनोज तिवारी ने तो लोकसभा में शून्य काल के दौरान एक नोटिस दिया है जिसमें उन्होंने कहा है कि दिल्ली में भी असम जैसी एनआरसी की प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिए।

बंगाल में बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष ने कहा, ‘हम राज्य में रह रहे अवैध प्रवासियों को बांग्लादेश वापस भेजेंगे। हम बंगाल में कोई भी अवैध प्रवासी को बर्दाश्त नहीं करेंगे। राज्य में एक कारोड़ बांग्लादेशी अवैध रूप से रह रहे हैं। इन्हें बाहर निकालकर रहेंगे।’

आखिर भारत का नागरिक कौन है?

 संविधान के प्रारंभ में नागरिकता से संबंधित प्रावधानों को भारत के संविधान के भाग II में अनुच्छेद 5 से 11 में दिया गया है। नागरिकता के सवाल को राष्ट्रवाद से जोड़ना अपने में विवादित है। संविधान के अनुसार नागरिकता अधिनियम 1955 में बना।

इसके अनुसार 26 जनवरी 1950 के बाद  जो भी व्यक्ति भारत भूमि में जन्मा हो अथवा यदि विदेश में जन्मा हो, उसके अभिभावक भारतीय नागरिक हैं तो वह भारत का नागरिक समझा जाएगा।

1986 में इसमें संशोधन के बाद यह  व्यवस्था की गर्इ कि भारत में जन्म लेने पर भी नागरिकता के लिए जरूरी होगा कि माता-पिता में से एक भारतीय नागरिक हो। इसके बाद नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 1986, नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 1992, नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 2003 आैर नागरिकता (संशोधन) अध्यादेश 2005 द्वारा संशोधित किया गया।

जन्म एवं वंश के अतिरिक्त शरणार्थियों, विदेशियाें को नागरिक के रूप में पंजीकृत करने की भी व्यवस्था कानून में है। यही नहीं यदि व्यक्ति 10 वर्ष भारत में रह चुका है तो उसे नागरिकता प्रदान करने की व्यवस्था 1985  के संशोधन में की गर्इ यह भी खासतौर से असम के संबंध में जबकि इससे पहले समय सीमा की यह अवधि 5 वर्ष ही थी।

एनआरसी  को लेकर उठे वर्तमान तूफान का केंद्र असम ही क्याें बना? इसकी वजह यह है कि इस समय देश में यह अकेला राज्य है, जहां राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) को अपडेट किया जा रहा है।

दरअसल, 1951 की जनगणना के बाद राष्ट्रीय स्तर पर नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) तैयार किया गया था। इसमें यहां के हर गांव के हर घर में रहने वाले लोगों के नाम और संख्या दर्ज की गई थी।

इसके बाद उसे कभी अपडेट नहीं किया गया। संबंधित दस्तावेज उपायुक्त या एसडीएम के कार्यालय में रहते थे। 1960 के बाद एनआरसी के सारे आंकड़े पुलिस को सौंप दिए गए आैर एनआरसी को अपडेट करने का काम छोड़ दिया गया।

असम में बहिरागतों की समस्या 

असम मिश्रित संस्कृति का एक उदाहरण है। आस्ट्रिक, मंगोलियन, द्रविड़ और आर्य जैसी विभिन्‍न जातियां प्राचीन काल से इस प्रदेश की पहाड़ियों और घाटियों में समय-समय पर आकर बसीं और यहाँ की मिश्रित संस्‍कृति में अपना योगदान दिया।

इस तरह असम में संस्कृति आैर सभ्यता की समृ‍द्ध परंपरा रही है। विकास के स्वाभाविक क्रम के विपरीत बहिरागतों की समस्या आज जिस रूप में है, उसकी शुरूआत ब्रिटिश शासन के अंतर्गत असम के आने के बाद से प्रारंभ हो गर्इ थी।

आज़ादी के पहले ब्रिटिश भारत के अंतर्गत असम राज्य में वर्तमान मेघालय, नगालैंड, मिजोरम आैर अरुणाचल प्रदेश आते थे। यह जनजातिय बाहुल्य प्रदेश था। अंग्रेजों ने यहां प्रशासन एवं व्यवसाय के लिए हिंदू बंगालियों का प्रयोग किया।

यहां की अर्थव्यवस्था में चाय आदि पौधरोपण का विस्तार किया, उसमें अधिकांश में बिहार (उस समय बंगाल का ही हिस्सा था),  बंगाल, उड़ीसा तथा अन्य प्रांतों से आए हुए कुलियों की संख्या प्रमुख हो गई। यह सिलसिला आज़ादी के बाद भी जारी रहा।

जातियों को आपस में लड़ाने आैर ‘फूट डालो राज्य करो’ की ब्रिटिश नीति ने असम की जनजातियां और आम असमी इस क्रम में अपने ही क्षेत्र में हाशिए पर चले गए। ब्रिटिश शासन  के खिलाफ जनजतीय विद्रोह नागालैंड आंदोलन, मिजो विद्रोह, गोरा घाटियों में विद्रोह आदि क्रम भारत की स्वतंत्रता के बाद भी जारी रहे। आज भी उत्तर पूर्व राज्यों में मिलिटेंसी उसी की धारावाहिकता है।

असम में बहिरागतों की समस्या को लेकर नया मोड़ आया सत्तर व अस्सी के दशक में। पाकिस्तान में शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व में आंदोलन, पूर्वी पाकिस्तान में फौजी दमन के दौरान पूर्वी पाकिस्तान से भारी तादाद में हिंदू आैर मुसलमान बंगाली भाग कर भारत आ गए थे।

भारत-पाक के बीच 1971 का युद्ध आैर बांग्लादेश के रूप में नए राज्य के गठन के बाद उनमें से बड़ी संख्या में बांग्लादेश लौट गए परंतु अनेक हिंदू व मुस्लिम बांग्लादेशी भारत में ही रह गए।

असम जहां वैसे भी असमिया अस्तित्व का मुद्दा सुलग रहा था वहां इसने विवाद को तीव्र कर दिया। असम में तकरीबन 10 लाख शरणार्थी आ गए थे। इनमें से अधिकतर लौट गए परंतु लगभग 1 लाख असम में रह गए बताए जाते हैं।

इनमेंं मुसलमान ही नहीं बड़ी संख्या में हिंदू भी थे। देश के अन्य हिस्सों में भी हिंदू जो लौटकर बांग्लादेश नहीं गए आैर यहां ही बस गए हैं। 1971  के बाद भी बांग्लादेश से मुस्लिम आैर हिंदू बांग्लादेशियों के आने जाने का क्रम कमोबेश जारी रहा।

दरअसल बांग्लादेश आैर भारत की सीमा एक तरह से खुली हुर्इ मानी जा सकती है। तार खींच कर जो सीमांकन  किया गया है वह भी भौगालिक पेचीदगियां के कारण मुकम्मल नहीं है। मोदी सरकार ने सीमांकन सही तरीके से करने आैर घुसपैठ रोकने के लिए चुस्त-दुरुस्त व्यवस्था का वायदा जरूर किया था परंतु इस दिशा में वह कुछ भी करने में नाकामयाब रही है।

असम आंदोलन आैर सैन्य दमन

यह सही है कि असम में बहिरागतों के कारण वहां की अर्थव्यवस्था पर दबाव बहुत बढ़ गया। इसने असमिया अस्मिता की समस्या भी उत्पन्न हो गर्इ। आैर असम में छात्र-नौजवानों ने आंदोलन की बागडोर संभाली। यह जेपी आंदोलन के बाद का दौर था। केंद्र में जनता पार्टी की सरकार थी।

उसके बाद 1980  में कांग्रेस ने वापसी की थी। आंदोलन कारियों की मांग थी कि 1951 के बाद आए सभी को बाहरी घोषित किया जाए। भारत सरकार 1971 के बाद आए लोगों को ही बाहरी मानने पर सहमत थी। इस तरह समझाैता नहीं हो सका।

आंदोलनकारियों का कहना था राज्य की जनसंख्या का 31 से 34 प्रतिशत बहिरागत हैं। उनकी मांग थी बाहरी लोगों को असम आने से रोकने के लिए  सीमाओं को सील किया जाए, बाहरी लोगों की पहचान कर उनके नाम को मतदाता सूची से हटाये जाएं।

यह भी मांग थी कि 1961 के बाद राज्य में आने वाले लोगों को उनके मूल राज्य में वापस भेजा जाए या कहीं दूसरी जगह बसाया जाए। इस प्रकार आंदोलन मूलतया बांग्लादेशियों के विरोध में नहीं बल्कि ‘असम असमियों का’ इस सोच पर केंद्रित था। आंदोलन को असमिया भाषा बोलने वाले हिंदुओं, मुसलिमों और यहां तक बंगालियों ने भी खुल कर समर्थन दिया।

केंद्र सरकार ने दमन का सहारा लिया। इसका नतीजा असम में मिलिटिएंसी के विकास के रूप में सामने आया। सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से संप्रभु समाजवादी असम को स्थापित स्वतंत्र असम राज्य की मांग को लेकर उल्फा जैसे मिलिटेंट संगठन का अस्तित्व में आया। संप्रभु समाजवादी असम को स्थापित करना इसका लक्ष्य था।

आैर इसके लिए सशस्त्र संघर्ष उनका रास्ता। इसने उत्तर पूर्व के अन्य मिलिटिएंट संगठनों के साथ भी एकता कायम की। केंद्र सरकार ने अर्द्ध सैन्य बल आैर इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद दमन आैर तेज हुआ।

कांग्रेस की बोयी फसल बीजेपी काट रही है

मार्च 1980 में सेना तैनात कर दी। असम के ज्यादतर क्षेत्र को अशांत क्षेत्र घोषित कर दिया गया। संगीनों की छाया में 1983 में विधानसभा के चुनाव कराए गए जिसका व्यापक बहिष्कार हुआ। कर्इ क्षेत्रों में तो तीन प्रतिशत से भी कम वोट पड़े।

सुरक्षा बलों की छत्रछाया में चुनाव के दौरान असम के नेल्ली क्षेत्र में आजाद भारत का सबसे बड़ा सांप्रदायिक दंगा हुअा। सरकारी आंकड़ों के अनुसार इसमें  तीन हज़ार से भी ज़्यादा लोग मारे गये। चुनाव बाद कांग्रेस पार्टी की सरकार ज़रूर बनी, लेकिन इसे कोई लोकतांत्रिक वैधता हासिल नहीं थी।

1984 में यहां 14 संसदीय क्षेत्रों में चुनाव ही नहीं हो पाया। इंदिरा गाधी की मौत के बाद जब राजीव गांधी ने सत्ता संभाली असम आंदोलनकारियों के साथ जो समझौता हुआ उसके अनुसार आंदोलनकारियों की मांग तो नहीं मानी गर्इ लेकिन 25 मार्च 1971 की तारीख बहिरागतों को परिभाषित करने के लिए तय की गर्इ।

यह समझौता जरूर हुआ परंतु इस पर अमल नहीं  हुआ। असम आंदोलनकारियों के जिस हिस्से ने समझाैता किया उसके खिलाफ अन्य हिस्से ने बगावत कर दी।

बहिरागत कौन है यह तय करने के लिए दिक्कत अवैध प्रवासी की शिनाख्त के लिए ट्रिब्यूनल (आर्इएमडीटी) बनाया गयाा।

1946  के कानून के तहत इसमें अवैध प्रवासी साबित करने के लिए सबूत देने का जिम्मा शिकायत कर्ता पर था।

ज्यादातर अवैध प्रवासियों ने अपने मतदाता पहचान पत्र, राशन कार्ड आदि बनवा लिए थे। इस स्थिति में असम गण परिषद के नेता आैर आल स्टूडेंट्स यूनियन के अध्यक्ष सर्बानंद सोनाेवाल (अब भाजपा में आैर वर्तमान मुख्यमंत्री) ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर आर्इएमडीटी की वैधता को चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट ने याचिका के पक्ष में फैसला किया।

2005 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 1951 के नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजनशिप को अपडेट करने का फैसला किया था। तय किया गया कि असम में अवैध तरीके से भी दाखिल हो गए लोगों का नाम नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजनशिप में जोड़ा जाएगा लेकिन इसके बाद यह विवाद बहुत बढ़ गया और मामला कोर्ट तक पहुंच गया।

असम पब्लिक वर्क नाम के एनजीओ सहित विभिन्न संगठनों ने 2013 में इस मुद्दे को लेकर सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिकाएं दायर की थीं।

असम के चुनाव में बीजेपी ने इसे एक बड़ा मुद्दा बनाया। 2015 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश और निगरानी में आइएएस अधिकारी प्रतीक हजेला को एनआरसी अपडेट करने का काम दे दिया गया।

इधर, चुनाव आयोग ने नागरिकता संबंधी कागजात दिखा पाने में असमर्थ लोगों को डी- कैटेगरी में डाल दिया है. ‘डी’ यानी ‘संदेहास्पद’ वोटर्स की श्रेणी 1997 के चुनाव में असम में लायी गयी थी।

राष्ट्रवाद बनाम नागरिकता 

नागरिकता रजिस्टर में नाम दर्ज करने को भाजपा आैर उसके समर्थक मीडिया चैनल राष्ट्रवाद से जोड़ कर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा दे रहे हैं। इस बहस में मोदी सरकार द्वारा प्रस्तावित नागरिकता अधिनियम, 1955 के कुछ प्रावधानों में संशोधन के लिए पेश विधेयक पर चर्चा सुनार्इ नहीं पड़ रही है।

जुलाई में प्रस्तावित यह विधेयक फिलहाल संसद की स्थायी समिति के पास विचारधीन है। प्रस्तावित संशोधन के मुताबिक, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से बिना किसी वैध कागजात के भाग कर आने वाले गैर-मुसलमान आप्रवासियों को भारत की नागरिकता दे दी जाएगी।

इसके दायरे में ऐसे लोग भी शामिल होंगे जिनका पासपोर्ट या वीजा खत्म हो गया है। प्रस्तावित संशोधन के बाद अब उनको अवैध नागरिक या घुसपैठिया नहीं माना जाएगा।

नागरिकता कानून में बदलाव की इन कोशिशों का पूर्वोत्तर में कड़ा विरोध हो रहा है। यहां तक कि असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने इस मसले पर इस्तीफे तक की धमकी दे दी है। मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड के. संगमा की अध्यक्षता में हुई मंत्रिमंडल की बैठक में इसका विरोध करने का निर्णय सर्वसम्मति से लिया गया है।

भाजपा के सहयोगी दल असम गण परिषद ने कहा है कि केंद्र सरकार नागरिकता के प्रावधानों में जो संशोधन कर रही है, वह असम समझौते की मूल भावना के खिलाफ है। अखिल असम छात्र संघ (आसू) समेत कोई तीन दर्जन संगठन इसका विरोध कर रहे हैं।

आसू के मुख्य सलाहकार समुज्जवल भट्टाचार्य ने प्रस्तावित विधेयक को असम समझौते की भावना और सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ  बताते हुए कहा है, “25 मार्च, 1971 के बाद बांग्लादेश से आने वाले किसी भी व्यक्ति को असम स्वीकार नहीं करेगा वह चाहे हिंदू हो या मुसलमान.”

उनका आरोप है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर राज्य के लोगों की पहचान की रक्षा के लिए नेशनल सिटीजंस रजिस्टर (एनआरसी) को अपडेट करने का काम चल रहा है. इसी दौरान धार्मिक आधार पर नागरिकता अधिनियम में संशोधन के लिए नया विधेयक तैयार करने से भाजपा की मंशा साफ होती है.

इस विधेयक के पारित होने की स्थिति में दूसरे देशों से आने वाले तमाम हिंदुओं को नागरिकता मिल जाएगी और उनका नाम भी एनआरसी में शामिल करना होगा। इससे राज्य में जातीय संतुलन गड़बड़ा जाएगा।

असम में आरएसएस की इतनी दिलचस्पी क्यों?

2011 की जनगणना के अनुसार असम में मुस्लिम आबादी 34.2 प्रतिशत है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की प्रतिनिधि सभा में लगातार असम को लेकर यह चिंता व्यक्त की जाती है कि देश में जम्मू कश्मीर एक मात्र मुस्लिम बहुल राज्य है आैर उसके बाद असम ही वह प्रांत है जहां मुस्लिम अाबादी सर्वधिक है। असम  समस्या के महत्वपूर्ण पक्ष हैं,  असमिया अस्मिता का सवाल।

यह सवाल असम की स्वायत्ता एवं आत्मनिर्णय के अधिकार से जुड़ा है। भारत विभिन्न भाषा एवं संस्कृतियों वाला उपमहाद्वीप है। इसकी एकता विविधिताआें को कुचल कर एकता नहीं विविधिताआें के फलने-फूलने आैर विकसित होने के आधार पर ही मुमकिन है।

असमिया संस्कृति आैर भाषा की अपनी अलग पहचान एवं एेतिहासिक परंपरा है। यहां की संस्कृति समृद्ध है। इसमें दक्षिण एशियाई और दक्षिण पूर्वी एशियाई संस्कृति का संगम देखा जा सकता है। असम की नृत्यकला, संगीत, संगीत वाद्ययंत्र और वेश-भूषा भी अन्य राज्यों की तुलना में अलग हैं।

यहां 1960 में असमिया को यहां की अधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता देने के लिए संघर्ष से ही असम की अस्मिता के आंदोलन की शुरूआत देखी जा सकती है।

1985  के राजीव गांधी के साथ हुए समझौते में असमिया-भाषी लोगों के सांस्कृतिक, सामाजिक और भाषाई पहचान की सुरक्षा के लिए विशेष कानून और प्रशासनिक उपाय करने का आश्वासन दिया गया था।

असम प्राकृतिक संसाधानों से समृद्ध कृषि प्रधान प्रदेश है। यहां की जनता कठोर परिश्रमी है। आौपनिवेशिक काल से यहां के प्राकृतिक संसधानों का दोहन एवं नागरिकों के श्रम का शोषण जारी है।

केंद्र सरकार सदा ही यहां की जनता को उनके लोकतांत्रिक अधिकारों से महरूम करती आर्इ है। यहां की मुख्य समस्या है कि असम का भाग्य तय करने का अधिकार असम वासियों को दिया जाए या नहीं.

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