कोरोना ने बता दिया है बिना समाजवाद मज़दूरों की जान नहीं बचने वाली, एक ही विकल्प समाजवाद या बर्बरता- नज़रिया
By मुकेश असीम
कोविड 19 बीमारी ऐसे वक्त में दुनिया को अपनी चपेट में ले रही है जब 40 साल की नवउदारवादी आर्थिक नीतियों ने एक ओर तो सार्वजनिक स्वास्थ्य जैसी सेवाओं की कमर पहले ही तोड़ दी है।
दूसरी ओर श्रमिकों का अधिकांश भाग अब बिना किसी श्रम क़ानूनों की सुरक्षा वाले ‘शून्य’ कांट्रैक्ट पर काम करता है अर्थात निर्धारित मजदूरी, छुट्टी, ESI मेडिकल -बीमा, कुछ नहीं।
नवउदारवादी आर्थिक नीतियों ने श्रमिकों को ‘स्वतंत्र’ कर दिया है, जब जितना काम मिला तब उतनी मजदूरी अन्यथा भूखे मरने की पूर्ण आजादी, पूंजीपति की कोई ज़िम्मेदारी नहीं।
पर इन्हीं नवउदारवादी आर्थिक नीतियों ने पूंजीवाद को गंभीर वैश्विक आर्थिक संकट के भंवर में भी फँसा दिया है क्योंकि अधिशेष अर्थात मुनाफा तो मजदूरों के श्रम से ही पैदा होता है।
श्रमिकों की मजदूरी पर खर्च घटाने की कोशिश ने अधिशेष मूल्य अर्थात मुनाफे की दर को भी घटा दिया है। अब संकट चक्रीय नहीं निरंतर है और एक संकट से निकलने की कोशिश पूंजीवाद को और गहरे संकट में धकेल रही है।
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कंपनियों को पैकेज और जनता को ‘राम भजो’
लेकिन पूंजीवाद संकट में होने का अर्थ यह नहीं कि पूँजीपति लोग गरीबी और भुखमरी का शिकार होते हैं। कुछ दिवालिया जरूर होते हैं पर मुख्यतः उनकी कंपनियाँ, निजी तौर पर मालिक कम ही ऐसी स्थिति में जाते हैं।
वर्ग के तौर पर पर देखें तो इतना ही होता है कि शेयर बाजार व अन्य संपत्ति के बाजार दाम गिरने से उनकी दौलत का आंकिक (nominal) मूल्य घट जाता है, वास्तविक संपत्ति में कमी नहीं आती।
साथ ही संकट से राहत के नाम पर सरकारें जो राहत पैकेज लेकर आती हैं उनका अधिकांश लाभ भी पूँजीपति वर्ग को ही मिलता है।
हर संकट के बाद पूँजीपतियों की संपत्ति की बाजार कीमतों को फिर से बढ़ाने की कोशिश होती है तथा कंपनियों के शीर्ष मालिकों-प्रबंधकों को इन राहत पैकेज के बल पर वेतन-बोनस में छप्पर फाड़ बढ़ोत्तरी भी मिल जाती है।
उदाहरण के तौर पर गहन आर्थिक संकट के वक्त भी अमेरिका में राहत पैकेज की घोषणा होते ही गोल्डमैन सैक्स के CEO के वेतन में 19% वृद्धि हो भी गई है।
पूंजीवादी संकट की वास्तविक तकलीफ हमेशा श्रमिकों एवं अन्य मेहनतकश लोगों तथा निम्न-मध्यम या टुटपूंजिया वर्ग को ही झेलनी होती है।
श्रमिक और भी बेरोजगार होते हैं एवं उनकी मजदूरी और भी कम हो जाती है, जो थोड़ी बहुत सुविधायें उन्होने अपने संघर्षों से हासिल की हैं वे भी छीनी जाती हैं।
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पूंजीवादी शोषण और बर्बर दमन
साथ ही टुटपूंजिया वर्ग का एक हिस्सा भी दिवालिया हो श्रमिक बनता जाता है। नतीजा यह कि हर पूंजीवादी संकट मेहनतकश जनता के हिस्से में और अधिक गरीबी, बेरोजगारी, भूख, बीमारी का कहर बन कर टूटता है।
पहले से ही वैश्विक आर्थिक संकट से जूझती पूंजीवादी व्यवस्था का संकट कोविड 19 की महामारी से उत्पादन और वितरण में आई रुकावट से भयानक रूप अख़्तियार कर रहा है।
और उसी अनुपात में मेहनतकश जनता पर डाले जाने वाला कष्टों का बोझ भी बढ़ रहा है – बेरोजगारी, मजदूरी में कटौती, रोज़मर्रा की आवश्यक वस्तुओं का अभाव और महँगा होना, सार्वजनिक अस्पताल-दवा-इलाज की कमी से किसी तरह की गई थोड़ी बहुत बचत का भी निपट जाना, साथ में सरकारी मशीनरी का बर्बर दमन।
ये सभी हम होते देख रहे हैं। दुनिया के पूँजीपतियों के एक बड़े भोंपू वाल स्ट्रीट जर्नल ने तो पूरी बेशर्मी से ऐलान ही कर दिया है, “कोई समाज अपनी आर्थिक सेहत की कीमत पर लंबे अरसे तक सार्वजनिक सेहत की सुरक्षा नहीं कर सकता।”
साथ में भारत जैसे सांस्कृतिक रूप से पिछड़े समाजों में जहाँ पूंजीवादी आर्थिक शोषण के साथ जाति, लिंग, धर्म, इलाकाई, भाषाई, राष्ट्रीयता के आधार पर भी जुल्म भारी परिमाण में मौजूद है, वहाँ इन दमित समुदायों के अधिकांश सदस्यों के लिए तकलीफ और भी बढ़ जाती है क्योंकि सरकारी व सामाजिक तंत्र दोनों ही उनके प्रति घोर नफ़रत से भी भरा हुआ है।
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अपनी नाकामी का ठीकरा मज़दूरों पर
किंतु इस स्पष्ट अन्याय से प्रतिवाद की संभावना भी पैदा होती है। इस प्रतिवाद को जड़ में निर्मूल करने के लिये पूंजीवादी राज्य व्यवस्था को उसके द्वारा खुद ही घोषित जनतांत्रिक, संविधानिक मूल्यों के आधार पर चलाना मुश्किल होता जाता है।
अतः हर संकट राज्य व्यवस्था में जनतान्त्रिक मूल्यों को खोखला करता जाता है और अधिकाधिक दमनकारी व अधिनायकवादी बनाता जाता है।
भारत जैसे सांस्कृतिक रूप से पिछड़े तथा पहले से कमजोर अधूरे जनवाद वाले देशों में जहाँ जाति, धर्म, इलाकाई नफरत ऐतिहासिक रूप से ही मजबूत रही है।
वहाँ इसके आधार पर संकटग्रस्त समाज में कम होते संसाधनों के बँटवारे में इसके आधार पर भी नफरत और अन्यीकरण के जरिये एक फासिस्ट मुहिम को खड़ा करना आसान होता है।
खास तौर पर दिवालिया होते टुटपूंजिया वर्ग के दिमाग में अपनी तकलीफ़ों का कारण इन अन्य समूहों एवं मजदूरों को बनाना तुलनात्मक रूप से आसान होता है।
कोविड 19 से इस आर्थिक संकट में जो तीव्रता आई है वह भी इन्हीं प्रवृत्तियों को और सशक्त करेगी। पहले ही ऐसा होता देखा जा सकता है।
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इलाज से पल्ला झाड़ा
सरकारें अस्पताल-इलाज की व्यवस्था से अधिकाधिक पल्ला झाड़ रही हैं, स्वास्थ्य कर्मियों के लिये न्यूनतम सुरक्षा सुविधायें तक उपलब्ध नहीं हैं, सबके लिये निशुल्क टेस्टिंग से इंकार कर निजी टेस्टिंग को बढ़ावा दिया जा रहा है।
बीमारी से निपटने के लिये मेडिकल विशेषज्ञों के व्यापकतम टेस्टिंग द्वारा रोगियों की पहचान तथा अलगाव द्वारा रोकथाम की बजाय पूरे देश को ही पुलिस डंडे से लॉकडाउन कर देने का विकल्प अपनाया जा रहा है।
इसका सर्वाधिक दुष्प्रभाव मेहनतकश जनता के जीवन पर ही पड़ रहा है। इससे हमारे समाज में जो थोड़े बहुत जनवादी अधिकार व आजादी मौजूद है उसके भी खत्म हो जाने का खतरा आ खड़ा हुआ है। साथ ही राज्यसत्ता संकट के नाम पर हर व्यक्ति पर नजर रखने का अधिकार भी हासिल कर ले रही है।
इसके अतिरिक्त, जिस तरह से घर पर क्वारंटीन, मोहर लगाने या घरों पर पोस्टर लगाने जैसे फैसले किए जा रहे हैं वे छुआछूत व भेदभाव के इतिहास वाले हमारे समाज में अन्यीकरण व लिंचिंग जैसी प्रवृत्तियों को और भी बढ़ावा दे रहे हैं।
ऐसे बहुत से उदाहरण पहले ही सामने आ चुके हैं जिनका शिकार रोज़मर्रा के काम करने वाले जैसे अखबार डालने वाले हॉकर, डिलीवरी करने वाले, सब्जी-दूध पहुंचाने वाले, घरेलू नौकर, आदि ही नहीं सार्वजनिक यातायात के मुसाफिर, डॉक्टर-नर्स, आदि स्वास्थ्य कर्मी या विदेशों से भारतीय नागरिकों को वापस लाने भेजे गये विमानों के कर्मी तक भी हो रहे हैं।
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समाजवाद या बर्बरता
साथ ही ऐसा प्रचार भी किया जा रहा है कि इस वक्त में सरकार से सवाल करने के बजाय उसके हर कदम चाहे वे कितने भी दमनकारी क्यों न हों उनका समर्थन करना चाहिये और सवाल करने वाले शैतान या खलनायक हैं। इसे फासीवादी सत्ता और मजबूत होगी।
सर्वहारा वर्ग की निम्न वर्ग चेतना और उसके वर्गीय संगठनों का अभाव ही राजसत्ता को यह करने का मौका दे रहा है क्योकि वर्ग चेतना और संगठन के आधार पर ही इन नीतियों की वास्तविक समझ और इनका प्रतिरोध मुमकिन है।
बुर्जुआ वर्ग के टुकडखोर बुद्धिजीवियों द्वारा दिये जा रहे वैश्विक एकजुटता और मानवीय सहयोग के खोखले नैतिक उपदेशों द्वारा नहीं।
संकट के दौर में पूँजीपतियों और पूँजीपति देशों में बाजार पर आधिपत्य के लिये गलाकाट होड़ और तेज होगी, यह निजी संपत्ति और मुनाफा आधारित उत्पादन वाले पूंजीवाद के चरित्र में ही है।
कोई भलमनसाहत भरे नैतिक उपदेश इसे नहीं रोक सकते क्योंकि पूंजीपति वर्ग की नैतिकता सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं, लगाई गई पूंजी से और अधिक पूंजी कमाना है।
खुद विकसित पूंजीवादी देशों में भी इस सच्चाई को महसूस किया जा रहा है कि बाजार आधारित निजी व्यवस्था नहीं सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवायें ही कोविड 19 जैसी समस्याओं-संकटों से निपट सकती हैं।
वहाँ भी इनके राष्ट्रीयकरण की जरूरत महसूस की जा रही है। पर ऐसा सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये सामूहिक श्रम आधारित नियोजित अर्थव्यवस्था में ही मुमकिन है।
समाजवाद या बर्बरता – रोजा लक्ज़मबर्ग का यह कथन अपनी पूरी सच्चाई के साथ इस वक्त हमारे सामने आ खड़ा हुआ है।
(ब्लॉग अर्थ से अनर्थ तक से साभार।)
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