बिहार विधानसभा चुनाव में धांधली और ग़रीब मज़दूर आबादी से विश्वासघात की कहानी

बिहार विधानसभा चुनाव में धांधली और ग़रीब मज़दूर आबादी से विश्वासघात की कहानी

By संदीप राउज़ी

मतगणना के बीच बीजेपी की ओर से आनन फानन में एनडीए को विजेता घोषित किए जाने और उस पर न्यूज़ चैनलों और चुनाव आयोग की मुहर लगने के बाद बिहार की बहुसंख्यक ग़रीब-मज़दूर मेहनतकश जनता के सोचने के लिए क्या बचा है?

अगर हम अमेरिका के चुनाव से तुलना करने की ग़लती न करें तो मोटा मोटी तीन बातें समझने लायक हैं।

पहला, कोरोना के समय चुनाव कराए जाने, चिराग पासवान को नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ मैदान में उतारने और पूरे चुनावी प्रचार अभियान को नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ सीधे या भितरघात करके उन्हें विलेन बनाने से लेकर मैराथन 16 घंटे की मतगणना तक सबकुछ बीजेपी की रणनीति के हिसाब से हुआ।

लॉकडाउन की बेइंतहा परेशानी के लिए नीतीश कुमार की ओट लेकर मोदी एंड कंपनी अपनी करतूतों से साफ़ बच ही निकली बल्कि इस चुनाव में नीतीश कुमार को निपटा दिया। नतीजों में जिस तरह की अनियमितता के दावे विपक्षी पार्टियां कर रही हैं, उससे ज़ाहिर होता है कि बीजेपी की रणनीति शुरू से ही वोटों के बंटवारे से जीत हार के अंतर को मामूली कर देने की रही ताकि अंत समय में ‘संदेह का लाभ’ की आड़ में नतीजों को प्रभावित किया जा सके।

दूसरा, इस स्वघोषित जीत से भी बीजेपी के लीडरान निश्चिंत नहीं हैं। रात के दस बजे जब ख़बर आई कि तेजस्वी यादव और नीतीश कुमार के बीच बातचीत हो रही है तो आनन फानन में आधी रात को प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर बीजेपी ने एनडीए को पूर्ण बहुमत मिलने (122 विधायक जीतने) की घोषणा करने के साथ ही नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनाने का भी ऐलान कर दिया। जबकि मतगणना जारी थी और तबतक क़रीब 180 सीटों के ही नतीजे आए थे। यही नहीं बीजेपी नेता सुशील मोदी नीतीश कुमार के घर गए, अमित शाह ने फ़ोन कर उन्हें बधाई दी, जनता की पिटाई पर मौनी बाबा बने रहने वाले नरेंद्र मोदी ने भी ताबड़तोड़ ट्वीट कर बधाई और जनता की दुहाई दी।

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नीतीश कुमार के पास विकल्प

लेकिन महागठबंधन ने मतगणना में भारी धांधली के आरोप लगाए हैं और दावा किया है कि 119 सीटों पर उसके उम्मीदवारों की जीत की घोषणा चुनाव आयोग ने खुद अपनी वेबसाइट पर कर दी थी। राजद के प्रवक्ता मनोज झा ने शाम पांच बजे के बाद लगभग हर घंटे प्रेस कांफ्रेंस कर अनियमितता की शिकायत की। इस चुनाव में उम्मीद से अधिक प्रदर्शन करने वाली वामपंथी पार्टी सीपीआई एमएल ने भी आयोग से भोरे विधानसभा में अनियमितता की शिकायत की है। यानी ये मामला आयोग से होते हुए अदालत तक जा सकता है।

तीसरा, बीजेपी ने चिराग पासवान को आगे कर जो चोट पहुंचाई है, पूरे चुनाव में अपमान का घूंट पीकर गठबंधन का धर्म निबाहने वाले नीतीश कुमार को वो चैन से सोने नहीं देगी। उनके पास पहले से ही विकल्प बहुत सीमित थे और इस चुनाव में और सिमट गए हैं। अगर वो बीजेपी की ओर से थाली में सजा कर दी गई जीत का सेहरा पहनकर चौथी बार मुख्यमंत्री बनते हैं तो वो अपना चौथा कार्यकाल पूरा कर पाएंगे ये कहना बहुत मुश्किल है। अपने ट्रैक रिकॉर्ड के मुताबिक बीजेपी देर सबेर उन्हें चलता करते हुए अपना मुख्यमंत्री बैठाने से चूकने वाली नहीं। इसके लिए चाहे उसे जेडीयू और कांग्रेस के विधायकों को तोड़ना-खरीदना ही क्यों न पड़े। ऐसे में नीतीश कुमार और जेडीयू की राजनीतिक हत्या तय है।

अगर नीतीश कुमार इस पेचीदा स्थिति से निकलना चाहते हैं तो उन्हें महागठबंधन का थामना पड़ सकता है। इससे उनके विधायक बचे रह सकते हैं और तब गठबंधन के पास मौजूदा गणित में डेढ़ सौ से भी अधिक संख्याबल होगा। और ये कोई नई बात नहीं होगी। महाराष्ट्र इसकी नज़ीर है, जहां चुनाव पूर्व शिवसेना और बीजेपी का गठबंधन था और वहां भी बीजेपी ने शिवसेना को उसके गढ़ में जूनियर पार्टनर बनने पर मजबूर कर दिया था। चुनाव बाद शिवसेना ने एनडीए से अलग होना ही ठीक समझा और प्रदेश में विपक्षी पार्टियों के सहयोग से उसकी सरकार है।

बिहार चुनाव में इन तीन बातों के अलावा राजनीतिक पार्टियों के लिए अब कुछ और बचा नहीं है। लेकिन इस चुनाव का संबंध महज राजनीतिक पार्टियों की हार जीत से होता तब कोई बात नहीं थी, लेकिन बिहार के बहुसंख्यक मेहनतकश वर्ग की बदहाली और राहत से इसका बहुत गहरे तौर पर नाता बनता है।

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एनडीए के लौटने से फ़र्क

आईए, इसे कुछ उदाहरणों से समझने की कोशिश करते हैं। बिहार में भले ही मुखौटा नीतीश कुमार हों बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार के आते ही दलितों, महा दलितों, पिछड़ों के घर उजाड़ने की परियोजना पर काम तेज होना तय है। पिछले कार्यकाल में नीतीश सरकार ने बिहार में जल ज़मीन हरियाली की स्कीम के नाम पर लाखों दलित परिवारों को सरकारी ज़मीन पर बने उनके मकानों को खाली करने का आदेश जारी किया था। राज्य के कई ज़िलों में भूमिहीन लोगों के घर ढहा दिए गए और जेसीबी लगाकर गढ्ढे खोद दिए गए।

उसी सरकार ने झारखंड से लगे बिहार के आदिवासी बहुल ज़िले कैमूर के विंध्य रेंज के पहाड़ों में अभ्यारण्य घोषित कर आदिवासियों को जंगल से खदेड़ने का ऐलान कर दिया था। फिर से एनडीए सरकार बनती है तो लाखों आदिवासी परिवारों की ज़िंदगी संकट में पड़ जाएगी, जिसकी वो लड़ाई राज्य के गठन के बाद से ही करते आ रहे हैं।

बीजेपी की जहां जहां सरकार आई है, वहां विजिलैंट ग्रुप का बोलबाला बढ़ा है, जिन्हें कुछ लोग ‘कट्टर हिंदू आतंकवादी’ भी कहते हैं। मतलब लव जेहाद, बीफ़, मंदिर के नाम पर लिंचिंग, दंगा, हत्याओं की घटनाएं बढ़ेंगी। भले ही नीतीश कुमार ने यूपी के सीएम योगी के विदेशी नागरिकों को बाहर करने वाले बयान का मखौल उड़ाया हो, सीएए एनआरसी राज्य में लागू करवाने के लिए बीजेपी किसी भी हद तक जा सकती है।

एनडीए में बीजेपी चूंकि सबसे बड़े दल के रूप में उभरी है, इसलिए निवेश आकर्षित करने के नाम पर श्रम क़ानूनों को ख़त्म करने वाले लेबर कोड को जल्द से जल्द लागू करने का दबाव बढ़ाएगी। बीते संसद सत्र में बिना विपक्ष की मौजूदगी के ज़बरदस्ती ये क़ानून बीजेपी ने पास करा लिए थे। इस क़ानून के मार्फत पहले से ही पलायन झेल रही मेहनतकश आबादी के हाथपांव को काटकर गुलाम बनाने का काम तेजी पकड़ेगा। नीतीश सरकार ने पहले ही राज्य की सरकारी मंडियों को ख़त्म कर दिया था। जो बाज़ार समितियां बनाईं उन्हें भी व्यवस्थित तरीके से बर्बाद कर दिया गया। इसीलिए धान का कटोरा कहे जाने वाले करहगर ब्लॉक में किसान अपना धान पंजाब के अढ़तियों को बेचते हैं। नए कृषि क़ानून को जल्द से जल्द लागू करने के लिए नीतीश पर दबाव बढ़ेगा जिसका मतलब खेती किसानी में नई करवट लेने वाले बिहार की 90 प्रतिशत ग्रामीण आबादी पर आजीविका का संकट।

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सबका साथ पूंजीपतियों का विकास

बहुत संक्षिप्त में, राशन, मिट्टी का तेल, स्कूल, अस्पताल, बिजली, पानी और ऐसी बहुत सी सुविधाएं छीन ली जाएंगी जैसा बाकी के बीजेपी शासित राज्यों में हो रहा है। कल्याणाकारी परियोजनाओं की जानी दुश्मन वो है ही, इसीलिए मनरेगा, पेंशन, मुफ़्त इलाज़, शिक्षा जैसी सुविधाओं में कटौती कोई नीतीश कुमार नहीं रोक पाएगा।

ये कुछ बानगी है, जिसके मर्फ़त सिर्फ़ ये बताने की कोशिश है कि एक चुनाव हारने जीतने से मज़दूर, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, किसान और भूमिहीन आबादी की मुश्किलों पर कितना असर पड़ता है, अगर सीनियर पार्टनर के तौर पर बीजेपी के गठबंधन वाली सरकार बनी। इसे कुछ यूं समझिए कि बीजेपी पूंजीपतियों के हित साधने वाली उनकी अपनी पार्टी है, बल्कि वो घोर ब्राह्मणवादी भी, जो दलित पिछड़ी जातियों के शोषण को उच्च जाति के सवर्णों का अधिकार मानती है और इस अधिकार की उग्र तरीक़े से हिफ़ाजत करती है। इसीलिए जब वो कहती है कि सत्ता में आने के बाद नौकरियों का गेट खोल दिया जाएगा तो सबसे पहला काम आरक्षण ख़त्म करने और फिर नौकरी की सारी संभावनाओं को ख़त्म करने का किया जाता है। भ्रष्टाचार पर उसने बड़े दावे किए थे, लेकिन सत्ता में रहते हुए उसने काला धन बटोर कर रफ़ूचक्कर होने वाले माल्या, चौकसी जैसे लोगों को भागने का सुरक्षित रास्ता दिया। जब वो कहती है कि विकास करना है तो उसका मतलब सिर्फ अडानी टाटा बिड़ला अंबानी और मुट्ठी भर ऊंची जातियों लोगों के विकास से होता है। उसके राज्यों में दलितों पर अत्याचार बढ़े हैं, बिहार कोई अजूबा नहीं। इसीलिए उसके कार्यकाल में रिकॉर्ड नौकरियां गईं, हर संस्था को पूंजीपतियों के हवाले किया गया। नवरत्न कही जाने वाली सराकारी कंपनियों को कंगाल कर इस या उस पूंजीपति के हाथों बेच दिया गया। किसानों की आय दुगना करने का वादा करते करते किसानों को ग़ुलाम बनाने वाले काले कृषि क़ानून पास कर दिए गए। मज़दूरों को ग़ुलाम बनाने वाले लेबर कोड लाए गए।

यही धोखा देश के नौजवानों के साथ हुआ।

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चुनावी जीत हड़पने के आरोप

इसीलिए बीजेपी द्वारा चुनाव में लोकतांत्र के अपहरण का मसला महज कांग्रेस, आरजेडी, जेडीयू या किसी अन्य् पार्टी से नहीं जुड़े हुए हैं। बल्कि मेहनतकश जनता को मिलने वाली राहत का भी अपहरण है। साफ़ लब्ज़ों में कहा जाए तो असल में ये चुनावी धांधली कर जीत को हड़पना, बिहार की मेनतकश जनता से गद्दारी जैसा है। लिंचिंग, लव जेहाद, हिंदू मुसलमान, सीएए एनआरसी, बांग्लादेशी घुसपैठिए, चीन से लड़ाई के मुद्दे पर अपने खरीदे चैनलों के सहारे हंगामा खड़ा कर पिछले दवाज़े से मेहनतकश जनता की गर्दन रेतने का अभी तक बीजेपी का ट्रैक रिकॉर्ड रहा है।

इस चुनाव का सबक इतना ही है कि बीजेपी का आना न सिर्फ बिहार की जनता की गर्दन पर कुल्हाड़ी रखने जैसा होगा, बल्कि इस चुनाव से उसके द्वारा पास किए गए काले क़ानूनों और नीतिगत कुकृत्यों पर एक फर्जी मुहर लगेगी और इसकी आड़ में बीजेपी-संघ का अत्याचार बढ़ेगा। मेहनतकश जनता को महागठबंधन की सरकार में भी कोई ख़ास राहत नहीं मिलने वाली थी, लेकिन इतना नंगा मज़दूर किसान विरोधी नीतियों का सामना तो कम से कम नहीं ही करना पड़ता, जो बीजेपी के राज में आम है।

(लेखक वर्कर्स यूनिटी के संपादक हैं।)

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