मरणासन्न स्वास्थ्य सेवाओं में जान फ़ूंकने की तत्काल ज़रूरत, क्या स्वास्थ्य बजट बढ़ाएगी मोदी सरकार?
By मुनीष कुमार
देश की स्वास्थ्य व्यवस्था की बदहाली किसी से छुपी नहीं है। आरटीआई से प्राप्त जानकारी के अनुसार, दिल्ली के एम्स हॉस्पिटल में भी रेज़िडेंट डॉक्टरों के 1325 स्वीकृत पदों में से 441 पद रिक्त हैं।
फैकल्टी के 1131 स्वीकृत पदों में से 397 पद रिक्त व 46 पदों पर फ़ैकल्टी संविदा (ठेके) पर भर्ती किये हुए हैं। पैरा मेडिकल स्टाफ़ के 7872 स्वीकृत पदों में से 1380 पद रिक्त पड़े हुए हैं।
जब देश का सबसे प्रतिष्ठित अस्पताल भी स्टाफ़ के अभाव में बीमार हालत में पड़ा हुआ है तो देश के दूर दराज के अस्पतालों की स्थिति क्या होगी इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा पिछले वर्ष जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, साल भर में हमारे देश में 5.5 करोड़ लोग इलाज पर खर्च करने के कारण ग़रीबी रेखा से नीचे चले गये।
बुनियादी सुविधाओं के अभाव में जहाँ देश के ज़्यादातर सरकारी अस्पताल रेफरल सेंटर में तब्दील हो चुके हैं वही प्राइवेट अस्पतालों में महँगा इलाज करा पाना आम आदमी की पहुँच से दूर है।
जरा आँकड़ों पर नजर डालें तो कारण समझ आ जाते हैं कि क्यों हमारे देशवासी इलाज के अभाव में दम तोड़ने को मजबूर हैं।
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स्वास्थ्यः न बजट, न डॉक्टर, न बिस्तर
हमारे देश में केन्द्र व राज्य सरकारें मिलकर स्वास्थ्य पर जी.डी.पी का मात्र 1.4 प्रतिशत ही खर्च करती हैं, जिसमें से एक बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य बीमा के माध्यम से प्राइवेट अस्पतालों को चला जाता है।
भारत से ज्यादा गरीब मुल्क भी स्वास्थ्य पर जी.डी.पी का 3 से 5 प्रतिशत तक खर्च करते हैं। हमारे देश में स्वास्थ्य तन्त्र हर तरह से लड़खड़ाया हुआ है, यह खुद ही आईसीयू में पहुँचा हुआ है।
अस्पताल, दवाइयाँ, ऑक्सीजन, बैड, वेंटिलेटर, चिकित्सकों व अन्य स्वास्थ्य कमिर्यों की बेहद कमी के कारण आये दिन हजारों लोग उन छोटी-छोटी बीमारियों से भी दम तोड़ देते हैं जिनका इलाज आसानी से हो सकता है।
भारत के अस्पतालों में 10,000 लोगों पर सिर्फ़ 5 बिस्तर उपलब्ध हैं। जबकि WHO के मानकों के अनुसार प्रति 10,000 जनसंख्या पर 50 बिस्तर होने चाहिये।
हाल ही में जारी मानव विकास रिपोर्ट 2020 से पता चला है कि 167 देशों में से भारत बिस्तर की उपलब्धता के मामले में 155वें स्थान पर है।
भारत की तुलना में कम बिस्तरों वाले जनसंख्या अनुपात वाले देशों में युगांडा, अफगानिस्तान, नेपाल और ग्वाटेमाला जैसे देश शामिल हैं।
जापान में प्रति 10,000 लोगों पर 130 बिस्तर, इतने ही लोगों पर चीन में 45 बिस्तर, श्रीलंका में 42 बिस्तर, वियतनाम में 32 बिस्तर हैं।
यहाँ तक कि बाँग्लादेश भी भारत की तुलना में थोड़ा बेहतर है, जहाँ प्रति 10,000 जनसंख्या पर 8 बिस्तर हैं।
आज भी हमारे देश में शिशु मृत्यु दर प्रति 1000 पर 29 है जो कि दुनिया के कई पिछड़े देशों से भी बुरी स्थिति है। श्रीलंका में शिशु मृत्यु दर प्रति 1000 पर 8, वहीं ईरान में 16 है।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 में ”जीवन जीने और स्वतंत्रता” के अधिकार को मौलिक अधिकार सुनिश्चित किया गया है। जीवन जीने के अधिकार के अंतगर्त स्वास्थ्य सम्बंधित निम्न अधिकार अंतनिर्हित हैं-
1) चिकित्सा का अधिकार
2) प्रदूषण रहित जल एवं हवा का उपयोग करने का अधिकार
3) दुघर्टना मुक्त परिस्थितियों का अधिकार
लेकिन देश के सत्ताधीश संविधान प्रदत्त इन मौलिक अधिकारों का सम्मान करना भी जरूरी नहीं समझते।
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ईएसआई के 13.3 करोड़ लोगों पर सिर्फ 151 अस्पताल
देश के नागरिक इलाज के अभाव में तो अपनी जान दे ही रहे हैं इसके अलावा संतुलित व पयार्प्त भोजन का अभाव, जजर्र सड़कों, अमानुषिक कार्य परिस्थितियों की वजह से होने वाली दुघर्टनाओं का शिकार हो जाना, विषैले प्रदूषण की वजह से कैंसर, स्वाँस रोगों आदि की चपेट में आ जाना इस जीवन जीने के अधिकार को ठेंगा दिखाता है।
हालत यह है कि देश के गरीब किसानों और मजदूरों के परिवारों की वार्षिक औसत आय मात्र 80 हजार रुपए के करीब है जिससे न संतुलित भोजन प्राप्त किया जा सकता है न ही अमानुषिक कार्यपरिस्थितियों में काम करने से इनकार किया जा सकता है।
इलाज करने के लिये उचित सरकारी अस्पताल मुहैया हो पाना एक सपना सा बनता जा रहा है।
मज़दूरों से ईएसआईएस के तहत पैसा उसूलने के बावजूद अस्पतालों की कमी व सुविधाओं के अभाव में उन्हें उचित इलाज नहीं मिल पाता है।
देश में ईएसआई स्कीम में 13.3 करोड़ लोग नामित हैं, लेकिन देश भर में ईएसआईएस के तहत केवल 151 सरकारी अस्पताल खोले गये हैं।
यह सवर्विदित है कि प्राइवेट अस्पतालों में मामूली से इलाज पर एक बार में ही लाखों रुपए खर्च हो जाते हैं। इसका खर्च वहन करने में असमर्थता और सरकारी सेवाओं के अभाव में आम जन नीम-हकीमों के भरोसे रहकर घर पर ही दम तोड़ देते हैं।
प्राइवेट अस्पतालों की बेलगाम लूट का आलम यह है कि खाता पीता मध्यवर्ग भी उन अस्पतालों से कंगाल बन कर निकलता है।
देश के स्वास्थ्य तन्त्र की इतनी बुरी स्थिति में जब देश की सरकारें इस को सुधारने की दिशा में कोई ठोस प्रयास करने के बजाय सरकारी अस्पतालों को पीपीपी मॉडल में डालने या फिर सीधे निजी हाथों में सौंपने पर आमादा है।
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कोरोना में सरकार की आपराधिक लापरवाही
कोरोना महामारी के दौरान हम सभी ने देखा कि भारत की सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह चरमराई हुई है। सच तो यह है कि भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था पहले से ही बहुत जजर्र व बीमार है, कोरोना काल में इसकी पूरी सच्चाई सब के सामने आ गयी।
साल 2020-2021 गवाह हैं कि कोविड-19 महामारी के दौरान लाखों लोगों ने अपनी जान गँवाई है। हम सभी ने अपने परिवार, रिश्तेदार, जान-पहचान में से किसी न किसी को खोया है।
नदियों में बहती व अनगिनत चिताओं में जलती लाशों के मंजर को भला कौन भुला सकता है। ऑक्सीजन सिलेंडर के लिये देश में हाहाकार मचा हुआ था, सड़कों, अस्पतालों के दरवाजों पर लोग दम तोड़ रहे थे।
भारत सरकार इस महामारी से लोगों को बचाने के लिये कोई प्रभावी कदम नहीं उठा पायी, लोगों को ताली-थाली बजाने जैसे अवैज्ञानिक मामलों में उलझाये रखा।
केन्द्रीय मन्त्री बाबा रामदेव की बनायी फर्जी दवा ‘कोरोनिल’ का प्रचार करते नज़र आये। स्थिति बेक़ाबू होने पर सरकार किंकर्तव्यविमूढ़ बनी रही। आख़िर में लोगों का ग़ुस्सा भड़कने से रोकने के लिये मौत के आँकड़ों को छुपाने में सारी ताक़त लगाती रही।
भारत सरकार के अनुसार, कोरोना की वजह से 5.2 लाख लोगों की मौत हुई जबकि डब्ल्यूएचओ के अनुसार ये आंकड़ा 40 लाख से भी ऊपर रहा है। ऊपर से सरकार की बेशर्मी का आलम यह है कि वह ऑक्सिजन की कमी से किसी की भी जान जाने से साफ इनकार करती है।
वैज्ञानिक प्रक्रिया को अपनाये बग़ैर कोरोना वैक्सीन का इस्तेमाल की इजाज़त सरकार ने दी लेकिन वैक्सीन के दुष्प्रभावों की वजह से हुई मौतों के लिये सरकार ने ज़िम्मेदारी लेने से साफ़ इनकार कर दिया।
वैसे तो आजादी के बाद से ही स्वास्थ्य के प्रति केन्द्र व राज्य सरकारों का उपेक्षापूर्ण व्यवहार रहा है। पर अब तो इनका रवैया गैर जिम्मेदार, संवेदनहीन तथा आपराधिक हो चला है।
सरकारें स्वास्थ्य के बजट में बढ़ोतरी करने के बजाय आँकड़ों की बाजीगरी कर जनता के साथ छलावा करती हैं, ऐसे में हम सभी जागरूक , प्रगतिशील , संवेदनशील व अपने अधिकारों के लिये सचेत रहने वाले नागरिकों का कतर्व्य बन जाता है कि हम अविलम्ब एकजुट होकर स्वास्थ्य के अधिकार के लिये व्यापक संघर्ष खड़ा करें।
समाजवादी लोक मंच स्वास्थ्य के अधिकार को लेकर 15 जनवरी को दिल्ली के जीपीएफ़ में एक कार्यक्रम कर रहा है, जिसमें देश की बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था पर एक श्वेतपत्र जारी किया जाएगा।
मंच ने केंद्र सरकार से मांग रखी है-
1) समूचे स्वास्थ्य क्षेत्र का राष्ट्रीयकरण करे!
2) स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार घोषित करे!
3) जी.डी.पी का 10 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करे!
4) प्रदूषण व दुघर्टनाओं को दूर करने के लिये जरूरी कदम उठाये!
5) प्रोडक्ट पेटेंट समेत सभी पेटेंट क़ानूनों को रद्द किया जाए।
(मुनीष कुमार समाजवादी लोक मंच के संयोजक हैं।)
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