संयुक्त राष्ट्र मानव विकास सूचकांक की अपनी रिपोर्ट में क्या छुपा रहा है?

संयुक्त राष्ट्र मानव विकास सूचकांक की अपनी रिपोर्ट में क्या छुपा रहा है?

मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) में भारत दुनिया के 189 देशों में 130वें नंबर पर आया है।

शुक्रवार को जारी संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की सालाना रिपोर्ट में भारत पिछले साल 131वें नंबर पर था।

एचडीआई यानी किस देश में ज़िंदगी की क्वालिटी कैसी है, इस पर रिपोर्ट। इस रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत में बड़े पैमाने पर जारी ग़ैरबराबरी की महामारी कम होने की बजाय बढ़ी है।

पिछले साल भारत का एचडीआई 0.636 तो इस बार ये .004 बढ़कर 0.640 हो गया है।

साल 1990 से 2017 के बीच भारत के एचडीआई वैल्यू में 0.427 से लेकर 0.640 की वृद्धि हुई है। इसमें करीब 50 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इस सूची में बांग्लादेश 136वें और पाकिस्तान 150वें नंबर पर है।

रिपोर्ट के अनुसार, भारत की सकल राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति आय 1990 से 2017 के बीच 266.6 प्रतिशत बढ़ी, लेकिन एचडीआई मूल्य का करीब 26.8 प्रतिशत गैरबराबरी की वजह से कम हो जाता है। इसके अलावा स्त्री पुरुष के बीच ग़ैरबराबरी भी इस बदतर सूरत के लिए ज़िम्मेदार है।

सामाजिक, आर्थिक और संसदीय संस्थाओं में महिलाओं की स्थिति बदतर तो है ही, मेहनत के मामले में भी उनकी हिस्सेदारी कम है।

कल कारखानों में 78.8 प्रतिशत मर्दों के मुकाबले केवल 27.2 प्रतिशत औरतें हैं। मर्द औरत गैरबराबरी सूचकांक में 160 देशों में भारत 127वें स्थान पर है।

अमीर और अमीर, ग़रीब और ग़रीब

भारत की विकास दर की कहानी किसी अचंभे से कम नहीं है। यहां पिछले डेढ़ दशक से विकास दर आसमान छू रहा है, लेकिन मज़दूरी घटी है, कर्मचारियों का उत्पीड़न बढ़ा है।

श्रम क़ानूनों को बेकार बनाने की कोशिश कांग्रेस और भाजपा दोनों की सरकारें करती रही हैं।

एक तरफ मुट्ठीभर लोगों के हाथों में दौलत जमा हो रही है और दूसरी तरफ आम जनता कंगाल होती जा रही है।

इसी का नतीजा है कि पिछले साल भारत में अरबपतियों की संख्या 101 हो गयी।
जबकि वास्तविक मज़दूरी कम हुई है। रही सही कसर महंगाई ने पूरी कर दी है।

भारत में मानव पूँजी यानी श्रम शक्ति का सिर्फ 57 फीसदी ही इस्तेमाल हो पा रहा है। बाकी हाथ बेकार, बेरोज़गार हैं।

यूएनडीपी का ‘नरो वा कुंजरो’

साल भर में एक पायदान की भारी वृद्धि को यूएनडीपी ने भारत सरकार के लिए तमगा माना है।

यूएनडीपी इंडिया के कंट्री निदेशक फ्रांसिन पिकअप का कहना है कि एचडीआई में सुधार करने के लिए कई योजनाओं जैसे बेटी बचाओ-पढ़ाओ, स्वच्छ भारत और मेक इन इंडिया के साथ-साथ स्कूली शिक्षा को अनिवार्य बनाना और स्वास्थ्य देखभाल के कारण इसमें सुधार हुआ है।

पिछले डेढ़ दशक में शिक्षा और दवा इलाज को निजी हाथों में देने के लिए पूरे सरकारी ढांचे को तहस नहस कर दिया गया।

मोदी सरकार ने बीमा कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए, हर नागरिक को बीमा देने की स्कीम के बहाने उसके स्वास्थ्य के मूल अधिकार को ही छीन लिया।

शिक्षा का हाल और बुरा है, पिछले तीन सालों में राजस्थान, छत्तीसगढ़ समेत देश के अन्य हिस्सों में हज़ारों सरकारी स्कूल बंद कर दिए गए। तो सवाल उठता है कि एचडीआई में सुधार इन वजहों से तो नहीं ही आया होगा।

जो यूएनडीपी इंडिया भारत की आम जनता से छिपा रही है वो ये कि पिछले डेढ़ दशक में उदारीकरण की नीतियों को लागू करने की होड़ में भारत सरकार ने यहां के वर्करों को गुलाम बनाने जैसे हालात पैदा कर दिए हैं।

हालात ये हैं कि श्रम क़ानूनों को लगभग अप्रासंगिक कर दिया गया है और परमानेंट वर्करों की नियुक्ति को बीते ज़माने की बात बनाने की पुरजोर कोशिश हो रही है।

एक तो नौकरियां नहीं हैं, जो हैं उनमें सिर्फ ज़िंदा रह पाने वाली तनख्वाहें हैं और और जो परमानेंट वर्कर हैं, उन्हें भी मेक इन इंडिया के नाम पर निकाल बाहर कर ठेके के सस्ते श्रमिकों को भर्ती किया जा रहा है।

ऐसे में सबसे बड़ा सवाल है कि भारत में मानव विकास हो भी तो कैसे हो!

Workers Unity Team

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.