चुनावी मौसम में किसानों-मज़दूरों से लोक लुभावन वादे महज दिखावा या हकीकत

चुनावी मौसम में किसानों-मज़दूरों से लोक लुभावन वादे महज दिखावा या हकीकत

By अभिनव

बीते कई महीनों से हम देख रहे हैं कि कई राजनितिक पार्टियां और राजनेता मज़दूरों-किसानों के मुद्दे पर बेहद मुखर नज़र आ रही हैं. सरकार द्वारा भी मज़दूरों- किसानों के लिए कई नयी स्कीमों/योजनाओं की घोषणा की जा रही हैं.

कल तक दिल्ली की सीमा पर बैठे किसानों की आवाज़ जिस सरकार के कानों तक नहीं पहुँच रही थी, फ़िलहाल नए लेबर कोड के प्रावधानों को लागू करने से बच रहीं हैं. यहाँ तक की नए लेबर कोड को लागू करने को लेकर राज्य सरकारों के भी हाथ पावं फूल रहे हैं.

चाहे भाजपा शासित प्रदेश हो या कांग्रेस शासित लगभग हर जगह न्यूनतम आय, स्वास्थ्य बीमा या पेंशन सम्बन्धी योजनाओं की बाढ़ आ गई है. हालाँकि आने वाले दिनों में धरातल पर इन योजनाओं की क्या हालात होंगी ये देखने वाली बात होगी.

लेकिन इन सब के बीच इस मेहनतकश वर्ग को इस बात का ध्यान रखना होगा की ये वर्ष चुनावी वर्ष है. केंद्र की चुनावों के साथ-साथ कई राज्यों में इस साल विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं. और हम सभी जानते है की चुनावी मौसम में ऐसे वायदों और दावों का चुनावी पार्टियों द्वारा अंबार लगा दिया जाता है.

राजस्थान में मुख्यमंत्री गहलोत के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने बीते दिनों में आर्थिक और सामाजिक तौर पर पिछड़े-वंचित तबके को लक्ष्य करते हुए कई एक्ट/ योजनाएं बनाई है.

वकर्स यूनिटी ने भी राजस्थान सरकार के द्वारा लाये गए नए कानून और योजनाओं को रिपोर्ट किया था. फिर चाहे गिग वर्कर्स के लिए बनाये गए नए कानून हो या न्यूनतम आय गारंटी योजना हो.

गौरतलब है की ये साल एक चुनावी वर्ष है. जहाँ राजस्थान के विधानसभा चुनाव आने वाले है है वही अगले वर्ष के पहले छमाही में लोकसभा चुनाव भी होने वाले है. ऐसे में सवाल ये खड़ा होता है की क्या इन कानूनों का पालन भी होगा या सिर्फ ये चुनावी जुमला बन कर रह जायेंगे.

देश का पहला गिग वर्कर्स वेलफेयर एक्ट

मुख्यमंत्री गहलोत ने 2023 – 24 के अपने बजट सत्र के दौरान ये घोषणा की थी की वो देश और दुनिया का पहला गिग वर्कर्स वेलफेयर एक्ट लाने वाले है. जो गिग वर्कर्स को शोषण से बचाने के साथ-साथ उन्हें सामाजिक सुरक्षा भी देगी.

वायदे के अनुसार जुलाई माह के मानसून सत्र के दौरान गहलोत सरकार ने इसे एक एक्ट का रूप दे दिया.

सीएम गहलोत ने गिग वर्कर्स वेलफेयर एक्ट पेश करके गिग वर्कर्स को सामाजिक सुरक्षा के प्रावधान की घोषणा की और इसके तहत, एक गिग वर्कर्स वेलफेयर बोर्ड का गठन किया. जिसके लिए 200 करोड़ रुपये का फंड आवंटित किया गया है. साथ ही यह बिल गिग वकर्स को भी नए लेबर कोड के सामाजिक सुरक्षा के दायरे में लाता है.

हालाँकि 27 जुलाई को जंतर- मंतर पर देश के कई गिग वकर्स यूनियन ने अपने प्रोटेस्ट मार्च के दौरान ये मांग की गिग वर्कर्स को भी मज़दूरों के श्रेणी में रखा जाये ताकि उन्हें मज़दूरों के लिए बनाये गए कई प्रकार के सामाजिक सुरक्षा सम्बन्धी प्रावधानों का लाभ मिल सके. राजस्थान गिग वर्कर्स वेलफेयर एक्ट में भी इस सम्बन्ध में कोई चर्चा नहीं की गई गई है.

इस विधेयक की चर्चा इसलिए भी ज्यादा हो रही है क्यूंकि देश में लाखों लोग ओला,उबर,स्विगी,जोमाटो, अमेज़ॉन इत्यादि जैसी कंपनियों के लिए गिग वर्कर्स के रूप में काम करते है.

केंद्र की मोदी सरकार भी गिग वर्कर्स के मुद्दे पर एक कमिटी बिठाने जा रही है जो गिग वर्कर्स के सामाजिक सुरक्षा सम्बन्धी मुद्दों को नए लेबर कोड में जोड़ने संभावाओं पर अपनी रिपोर्ट बनाएगी.

इसके साथ ही मिडिया से बातचीत करते हुए गहलोत ने बताया की नरेगा, महात्मा गाँधी न्यूनतम आय गारंटी योजना, राइट टू हेल्थ, इंदिरा गाँधी शहरी रोजगार और पेंशन योजना जैसी कल्याणकारी योजनाओं को 15 अगस्त से पहले लागु कर दिया जायेगा.

मध्यप्रदेश सरकार द्वारा भी हाल ही में आशा ,उषा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के लिए पेंशन सहित स्वास्थ्य बीमा की घोषणा की गई.

आसाम सरकार द्वारा स्नेह स्पर्श योजना ले आई गई ,जिसके अंतर्गत गरीब तबके के लोगों को गंभीर बिमारियों के इलाज के लिए सहायता दी जाएगी. साथ ही राज्यकर्मियों के लिए स्वास्थ्य बीमा की घोषण की गई.

छत्तीसगढ़, झारखण्ड जैसे आदिवासी बहुल राज्यों में भी गरीब आबादी की आय बढ़ाने सम्बन्धी योजनाएं लायी गई हैं.

क्या आंदोलनों से डर रही हैं सरकारें

हम देख चुके हैं की कैसे संसद से कृषि बिल पास होने के बाद देश के किसानों ने अब तक का सबसे लम्बा विरोध प्रदर्शन किया. अपने तरह का एक अनूठा विरोध प्रदर्शन ,जिसका असर देश के अलग- अलग कई क्षेत्र के कर्मचारियों- मज़दूरों के संगठित प्रतिरोध पर पड़ा साथ ही साथ सरकारों के लिए भी एक सबक साबित हुई.

किसानों के विरोध प्रदर्शनों के परिणामस्वरुप केंद्र की मोदी सरकार को ये बिल वापस लेना पड़ा.

इसी तरह केंद्र सरकार द्वारा पारित नये लेबर कोड के रूल्स बनाने के लिए भी राज्य सरकारों पर दबाव बनाया जा रहा है. लेकिन आंदोलनों और विरोध प्रदर्शनों को देखते हुए राज्य सरकारों के हाथ-पैर फूल रहे है.

साथ ही ये साल चुनावी वर्ष होने के कारण सरकारें भी फ़िलहाल किसी भी तरह का रिस्क लेने से पीछे हट रही है.

दूसरी तरफ विपक्षी पार्टियां भी लगातार किसान-मज़दूरों के सवाल पर केंद्र सरकार पर दबाव बनाये हुए हैं. राहुल गाँधी भारत जोड़ों यात्रा के बाद से लगातार किसानों और मज़दूरों से मिल रहें हैं.

सोनीपत में खेतिहर मज़दूरों से मिलते नज़र आते है तो कभी दिल्ली के करोलबाग में मैकेनिक से मिलते है. बंगलौर में कभी डेलिवरी बॉय के साथ घूमते नज़र आते है तो कभी चंडीगढ़ हाइवे पर ट्रक ड्राइवरों से उनकी समस्याओं पर बात करते नज़र आते हैं.

इस तरह हम देख सकते है कि वो एक तरह से शहरी कामगारों के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों में मेहनत मज़दूरी कर रहे लोगों के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुनावी दावं खेल रहे हैं. उनकी ये सारी कोशिशें सत्ता पक्ष पर भी दबाव बनाती नज़र आ रहीं हैं.

ऐसे में एक बड़ा बदलाव कई दशकों के बाद भारत कि चुनावी राजनीती में देखने को नज़र आ रही है कि धार्मिक-जातीय, क्षेत्रीयता के इतर पार्टियां मज़दूरों- किसानों के सवाल को भी चुनावी मुद्दों के रूप में उठा रही हैं,हो सकता है ये मुद्दे सतही तौर पर ही उठाये जा रहे हों लेकिन ये परिवर्तन गौर करने लायक है.

हालाँकि इसके साथ ही मज़दूर-किसान वर्ग को भी अपनी एकजुटता के साथ खड़ा रहना होगा ताकि इनके मुद्दे भी बाकि के चुनावी मुद्दों कि तरह कही सिर्फ जुमला बन कर न रह जाएँ.

अब जब कि दिखावे के लिए ही सही अगर ये मुद्दे उठाये जा रहे है तो मज़दूर-किसान संगठनों, ट्रेड युनियनों का ये काम बनता है कि वो इन सवालों के साथ एक आंदोलन कि राह को मज़बूत करें.

इन मांगो को बुर्जुआ चुनावी पार्टियां के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता, अन्यथा ये सिर्फ वोट लेने-देने का मामला बन कर रह जायेगा.

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Abhinav Kumar

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