लगातार 40 सालों तक फ़रीदाबाद मज़दूर समाचार निकालने वाले कॉमरेड शेर सिंह का जाना
के. संतोष
हालाँकि मृत्यु अवश्यंभावी है, लेकिन अपने पीछे एक रिक्तता तो छोड़ ही जाती है. शेर सिंह जी का अचानक चले जाना हमारे बीच से मज़दूर आंदोलन के एक सच्चे हिमायती का जाना भर नहीं है.
मज़दूर आंदोलन में फ़रीदाबाद और एनसीआर दिल्ली के आसपास के इलाकों में उनकी अनुपस्थिति एक बड़ा खालीपन छोड़ जाएगी. जहां भी कोई मज़दूर संघर्ष चल रहा होता था, वह के मज़दूर साथी, शेर सिंह को अपने साथ खड़ा पाते.
कल दिन भर उनको जानने वालों से बात होती रही, कई लोगों ने बहुत तरीकों से उन्हें याद किया. शेर सिंह वैसे ही थे, अतरंगी, सतरंगी, जिंदगी से भरपूर.
वह केवल मज़दूर आंदोलन के बारे में ही नहीं सोचते थे बल्कि उनका पूरा चिंतन और काम- पूरी मज़दूरी व्यवस्था यानी वेज स्लेवरी (Wage Slavery) के ख़िलाफ़ था. आज जब काम के घंटे बढ़ाने, अर्ली रिटायरमेंट और हसल कल्चर (Hustle Culture) के बारे में इतनी बातें हो रही हैं, उनका काम इन सबके विरोध में एक क्रिटिक है.
उनका चिंतन सिर्फ़ काम करने के बारे में नहीं था, बल्कि बोरियत और “काम से छुटकारा और जीवन के उल्लास” के बारे में था.
ऑटोपिन झुग्गी, फ़रीदाबाद में उनसे मिलने जाने वाले हर व्यक्ति को उनकी गर्मजोशी और सहजता का एहसास था. उनके पास जाने के लिए किसी खास समय की ज़रूरत नहीं थी.
आप कभी भी उनसे मिल सकते थे, और यह मुलाक़ा जैसे एक बड़ी निरंतरता में उनके साथ कभी भी किसी भी छोर को पकड़ कर जुड़ने जैसी होती थी, बिना किसी आगे पीछे वायदे और फॉलोअप के.
पिछले कुछ दशकों से जिन्होंने भी मज़दूरों के मुद्दों पर काम किया है, वे शेर सिंह से प्रेरित हुए बिना नहीं रहे.
मारुति आंदोलन और शेर सिंह
आप उनसे असहमत हो सकते हैं, लेकिन वो एक ऐसा स्पेस बनाते थे जहां पर आप उनसे असहमत होते हुए भी उनसे बात कर सकते थे.
वैचारिक रूप से हम सब लोगों से उनकी कभी नहीं बनी, हम सब की वैचारिक और ट्रेड यूनियन के तरीकों से उनकी गहरी असहमति थी.
केंद्रीय और स्थापित ट्रेड यूनियनों की नौकरशाही और ठस ढांचे की उनकी आलोचना ने कई छात्रों/युवाओं को उनके माध्यम से अल्टरनेटिव ट्रेड यूनियन परिकल्पना और राजनीति की ओर आकर्षित किया.
वो स्वतः लामबंदी/कार्रवाई (Self-Organising/self activity /Workers Enquiry) के आस पास की परंपरा से थे.
कुछ लोग उन्हें अराजकतावादी या एनार्किस्ट तो कुछ लोग उन्हें स्वायत्ततावादी (autonomist) मानते रहे हैं, हालांकि उन्हें इन किसी भी श्रेणी या परंपरा में रखना उनके साथ इंसाफ़ नहीं होगा.
क्या संयोग है कि जब मारुति के पूर्व मज़दूर अपने ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से निकाले जाने की लड़ाई को फिर से लड़ रहे हैं और पिछले 4 महीने से मानेसर चौक पर धरने पर बैठे हैं, शेर सिंह नहीं हैं.
इन मज़दूरों के साथ पिछले 10 साल में निकाले गए अस्थायी मज़दूर कंधा जोड़कर खड़े हैं.
शेर सिंह परमानेंट और टेंपरेरी मज़दूरों को एक साथ संघर्ष करने की सलाह देते थे. शायद यह बात आज उन मज़दूरों को अधिक प्रासंगिक लगे.
वे मारुति आंदोलन से बहुत क़रीबी से जुड़े रहे. जून 2011 में जब मारुति के पहले सिट-इन स्ट्राइक में मज़दूरों ने 13 दिन तक कंपनी के अंदर धरना दिया, प्रगतिशील मीडिया सहित सभी लोग यही बात लिखते थे कि मारुति मज़दूरों ने फैक्ट्री पर क़ब्ज़ा कर लिया है.
लेकिन शेर सिंह ने अपने अख़बार और बातचीत में कहा कि “जून 2011 को ए और बी शिफ्ट के मजदूरों ने मिलकर फैक्ट्री पर से कंपनी और सरकार का क़ब्ज़ा हटा दिया.”
किसने कब्जा किया और किसने हटाया—क्या खूबसूरत बात थी. यही फर्क था शेर सिंह के नज़रिए का.
ट्रेड यूनियनों के आलोचक
सोशल मीडिया के आगमन के बहुत पहले से ही, पीढ़ी दर पीढ़ी लोग शेर सिंह के व्यक्तित्व और उनके करिश्मा से प्रभावित और आकर्षित होते रहे हैं. उन्होंने अलग अलग समय में अलग अलग लोगों के साथ काम किया.
ट्रेड यूनियन आंदोलन के मामले में उनका मानना था कि, पूंजीवादी दौर के इस फेज में जब फैक्ट्री फोर्ट्रेस सिस्टम (Factory Fortress System) के बजाय एक औद्योगिक हब (Industrial Hub) जैसे कि IMT-ऑटो हब आ गए हैं, तो संगठित और असंगठित मजदूरों का यूनियन प्रभावी नहीं होगा.
उनका कहना थाी कि बजाय इसके एक ऐसी जगह होनी चाहिए जहां औपचारिक और अनौपचारिक मज़दूर एक साथ आ सकें, अपने अनुभव और विचारों का आदान-प्रदान कर सकें.
वे नेता-केंद्रित (लीडरी उनके शब्दों में) ट्रेड यूनियनों के आलोचक थे. वे रहस्यमयी स्वतःस्फ़ूर्तता (Mysterious Spontaneity) के विश्लेषण के भी बड़े आलोचक रहे.
उनका विचार एक “मॉर्फिक रेजोनेंस” (Morphic Resonance) जैसा था, जिसका अर्थ है कि संगठन कैसे बिना सामान्य बैठकों, भाषणों और नेताओं के हो सकता है. उनका नारा था- “ताल मेल, आदान-प्रदान, बातचीत. निमंत्रण.”
कल से पूरे देश में लोग उनके बारे में बात कर रहे हैं और उनकी विरासत को याद कर रहे हैं. ई लोगों ने फेसबुक पर उन्हें कई अलग-अलग तरीक़ों से याद किया.
फ़ेसबुक पर उनके साथी राजेश जाखड़ ने लिखा,
“उस वक्त के बेहतरीन किंग जॉर्ज स्कूल से, बिट्स पिलानी, फिर आईआईटी कानपुर, फिर आईआईटी मद्रास और जब देश में आपातकाल लगा तब जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पढ़ाई ऐसी छोड़ी के उसके बाद सिर्फ और सिर्फ बातचीत में ही मन लगाया शेर सिंह ने. मज़दूरों से, युवाओं से, अजनबियों से बात करते वक्त अंग्रेजी-हिंदी कुछ भी, बस दिल की बात करते हुए कोई अपना जीवन कैसे खोल सकता है, यह जीवंत उदाहरण हैं कि एक धेला न कमा कर भी एक वक्त के भोजन के बल पर जीवन उल्लास से भरपूर हो सकता है.”
ये कितनी बड़ी बात है, जब आज कोई तुच्छ आईआईटी बाबा की जैसी धूम मची हो, तब शेर सिंह जैसे लोग बहुत याद आएंगे.
उनकी एक और साथी कोयल लाहिड़ी ने फेसबुक पर लिखा-
” ……… No, there is no possibility, at the moment of doing him any justice in the honouring. But there is no way I cannot atleast make a feeble, highly inadequate attempt. I can’t not, just like all his friends and well-wishers will not be able to not try. So perhaps I can pay a final respect to him in the moment by refusing to allow the freelance deadline to shape ANY part of atleast today. I will use my hours for pleasure, and offer that to him today. Ok, Sher Singhji, most of the day, because I do have to turn this in- my January expenses ride on this……..”
उनके साथी प्रवीण ने उन्हें याद करते हुए फ़ेसबुक पर लिखा,
“…..सॉरी, सॉरी, सॉरी, नींद देर से खुली इसलिए लेट हो गया. ‘अरे इसमें सॉरी कैसी, शरीर को नींद की जरूरत थी, इसमें असहज होने की क्या जरूरत है?”
शेर सिंह से पहली बार मिलना था तो मैंने एक दिन पहले फोन करके कहा था कि मैं रविवार सुबह 9 बजे तक फ़रीदाबाद मजदूर लाइब्रेरी आ जाऊंगा. लेकिन मैं पहुंचा 11 के करीब. शेर सिंह आराम से धूप में बैठे हुए थे. मैं पहुंचते ही देरी से आने के लिए माफ़ी मांगने लगा.
पहली बार कोई शख़्स मिला जिन्होंने नींद को लेकर इतनी सहजता से बात की. एक जीवंत शख्सियत जिनके पास निराशा की कोई जगह ही नहीं थी, उनसे मिलना हमारी खुशकिस्मती रही. वो नहीं होते तो कौन हमें व्यवस्था की भागदौड़ से बचाता.”
हाँ, तो ऐसे ही थे शेर सिंह. वे एंटी-वर्क, एंटी-सिविलाइजेशन की परंपरा से आते थे. उनकी एक महत्वपूर्ण रचना, “Ballad against work” की पूरी दुनिया में चर्चा थी.
उनके काम पर जर्मनी के साथियों ने एक फिल्म बनाई थी, ‘Many Straws Make a Nest: A Documentary about Proletarian Unrest in Delhi’s Industrial Belt”. फ़रीदाबाद मज़दूर समाचार एक अभिनव प्रयोग था, 1982 से लगातार हर महीने बिना रुके निकालना और फिर खुद और अपने साथियों के साथ फ़रीदाबाद, ओखला, कापसहेड़ा और मानेसर में बांटना, मजदूरों से बात करना अद्भुत था.
फ़रीदाबाद मज़दूर समाचार की ख़ास बात यह थी कि यह दैनिक मज़दूरों के जीवन और उनकी धड़कनों को केंद्र में रखता था.
जैसा कि नयन ने उन्हें याद करते हुए लिखा है,
“Bringing out and distributing that singular intervention in working class life in the region – Faridabad Mazdoor Samachar – for over 30 years, every month on a set date, all by himself and his comrades. After ceasing publication of FMS during covid finally, he was on a spree of roaming, meeting with workers and friends of workers across the country, with young happy energy in his mid-70s…Roaming around in the industrial hinterlands in delhi gurgaon faridabad manesar in the last few years, one would inevitably encounter random workers all over NCR, who would enquire if that white-haired smiling affable old man is alright, if his health is fine, like one would enquire about a dear family member.
An institution by himself – a literal embodiment of class-for-itself, if there can be at all – are words that one might like to think of when thinking of Sher Singh, but he would disagree with it. Rather, the phrases that immediately come to mind when thinking about this amazing family member of the working class, are ‘sahaj saral jeevan’ (easy, normal, ordinary life) and ‘Jeevan ka ullas’ (the vibrancy and celebration of life).”
कोरोना के बाद से अखबार प्रिंट रूप में नियमित रूप से निकालना बंद हो गया. फिर उन्होंने पिछले अंकों से महत्वपूर्ण सामग्री को संकलित करके लोगों के साथ व्हाट्सएप पर शेयर करना शुरू किया. पिछले 2 सालों से वे पूरे भारत भ्रमण पर थे और लगातार व्हाट्सएप पर अपनी यात्रा, मज़दूरों से हुई बातचीत और औद्योगिक इलाकों के बारे में लिखते रहे. हर दिन सुबह 4:30 के आसपास उनका व्हाट्सएप मैसेज आता था.
उनके एक और साथी अवंतिका ने X पर उन्हें याद करते हुए लिखा कि, “A beautiful way to honour a life, precisely by betraying it—by reducing its radical singularity to a gesture that, while moving, forecloses the unbearable truth of its irreducible complexity. It’s a gesture that, in its effort to do justice reveals the impossibility of justice. “Every sunrise at every place on Earth heralds’ new energy. And, every night at every place brings serenity. It seems that human beings need to appreciate that their very being is a part of nature.”
और अंत में… जैसा कि हर समय बोलते-लिखते थे, “जीवन का उल्लास…” हमें भी उन्हें इसी ज़िंदादिली और उसी गर्मजोशी से याद करना चाहिए.
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