जब देश में एक भाषा, एक कानून, एक वर्दी-एक पुलिस, तो वन रैंक वन पेंशन क्यों नहीं?
By कृष्ण कांत
16 मार्च, 2022 को उच्चतम न्यायालय ने भूतपूर्व सैनिकों के याचिका पर अपना निर्णय सुनानते हुए कहा कि एक रैंक एक पेंशन मान्य नहीं है और भारत सरकार के मान्यताओं को सही बताया। बाद में “रिव्यू पेटीशन” को भी ख़ारिज कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने सेवानिवृत्त सैनिकों के लिए लागू सरकारी वन रैंक वन पेंशन (OROP) की नीति को सही ठहराया।
शीर्ष अदालत ने कहा कि इसमें कोई संवैधानिक कमी नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नीति में 5 साल में जो पेंशन की समीक्षा का प्रावधान है वह बिल्कुल सही है।
मोदी सरकार ने उसे भी बंद कर दिया था, जो मनमोहन सिंह सरकार के समय से ही लागू था। उच्च्तम न्यायालय ने उसे 3 महीने में लागू करने का निर्देश दिया। यह शायद अब लागू हो।
उच्चतम न्यायालय में यह मामला 2016 से लंबित था और अंततः अंतिम सुनवाई 23 फरवरी, 2022 को पूरा हुआ और फैसला सुरक्षित रखा गया। पाठकों को ज्ञात होगा कि उस समय 5 विधान सभा में 7 चरण का चुनाव चल रहा था और जिसका अंतिम चरण 07 मार्च, 2022 को और मत गणना 10 मार्च को हुआ।
और न्यायालय का फैसला, जो इस बीच सुरक्षित था, 16 मार्च को आया है और सैनिकों के हित के खिलाफ है। क्या यह संयोगवश उच्चतम न्यायलय ने अपना फैसला देर से सुनाया?
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आंदोलन को कमजोर करना चाहती है मोदी सरकार
2014 में नरेन्द्र मोदी ने अपने चुनावी रैली में यह वादा किया था की सत्ता में आने के 100 दिन के अन्दर सैनिकों को “एक रैंक एक पेंशन” दिया जायेगा।
लेकिन जब सत्ता में आने के कई महीनों बाद भी वादा पूरा नहीं किया गया तो भूतपूर्व सैनिकों, उनके परिवारों, विधवाओं ने आंदोलन शुरू किया।
आंदोलन का केंद्र बना नयी दिल्ली का जंतर मंतर इसके बाद पूरे पशिमी, मध्य भारत में आंदोलन फ़ैल गया। बढ़ते आंदोलन का भभक पुरे भारत में दिखा।
भाजपा सरकार ने शक्ति बल, सैनिकों के बीच मतभेद पैदा कर (जातीय, क्षेत्रीय, रैंक, देश, आदि का आधार बना कर) आंदोलन को कमजोर करने की पूरी कोशिश की।
भूतपूर्व सैनिकों के संगठन एक्स सर्विस मैन (ESM, IESM, UFSM, आदि) के नेताओं पर पुलिस और सीबीआई आदि का दमन, ब्लैकमेल करने से लेकर एफआईआर दर्ज कर आंदोलन को उसके नेत्तृत्व से महरूम करने की कोशिश की गयी।
पुलिस द्वारा सीधे सीधे शक्ति बल और महिलाओं के ऊपर सोशल मीडिया पर भद्दी भद्दी टिप्पणियां कर मनोबल तोड़ने की कोशिश की गयी।
जंतर मंतर पर आंदोलनकारियों का टेंट और बाकि सामान भी पुलिस द्वारा तहस नहस कर दिया गया।
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आखिर की वापस लिया ओरोप आंदोलन
इस बीच 2016 में उच्चतम न्यायालय में केस दायर किया गया और जिसका नतीजा हमें मिला।
14 फरवरी 2019 को जब सीआरपीएफ के काफिले पर पुलवामा में आक्रमण हुआ और बदले में बालाकोट में जवाबी हवाई हमला हुआ, तब ओरोप आंदोलन के नेत्तृत्व ने आंदोलन वापस लेने का फैसला लिया।
यहां तक कि हर आवाज को भी बंद करने की कोशिश की गयी, जिसमें सोशल मीडिया पर विरोध का फोटो शेयर करना भी गलत माना गया।
भारत सरकार को नाराज करना देश हित के खिलाफ और ओरोप का विरोध करने जैसा करवाई बताया गया। सरकार से संघर्ष नहीं बल्कि मेल मिलाप कर ओरोप हासिल करने का रास्ता अपनाया गया। इसमें भाजपा सरकार की भी सहमति थी।
आंदोलन को संघर्ष के रास्ते से हटाकर अदालत के भरोसे और सरकारी सहयोग पर छोड़ दिया गया। जिसका नतीजा आज दिख रहा है। क्या इस स्थिति को “राम भरोसे” कहते हैं?
यह तो साफ है कि सैनिक इस सत्ता के लिए मोहरे मात्र हैं और राजनितिक दल इसके नाम का इस्तेमाल अपना उल्लू सीधा करने में करते हैं।
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OROP की मांग जायज
ओरोप (OROP) की मांग जायज थी, जिसे मनमोहन सिंह सरकार ने माना भी था और अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में इसे लागू करने का निर्देश भी दिया था।
लेकिन जो रकम आवंटन किया गया वह अधुरा था, यानी कम था और कोशियारी कमिटी के द्वारा परिभाषित और लोकसभा में पारित ओरोप को नहीं लागू कर सकता था।
वैसे यह बताना आवश्यक है कि भारतीय सैनिकों को 1973 तक ओरोप मिलता था और साथ ही पेंशन वेतन का 70% मिलता था, जिसे इंदिरा सरकार ने ख़त्म कर दिया, खासकर उस समय जब भारतीय सेना ने 1971 के ऐतिहासिक विजय (सयुक्त संघ वक्त के पूर्वी पाकिस्तान और अब बांग्लादेश में) हासिल की थी।
मोदी सरकार ने भी, कई रक्षा मंत्रियों द्वारा इसे लागू करने की बात की पर वह हमेशा ही धोखा था, जिसे सैनिकों ने “लंगड़ी ओरोप” का नाम दिया।
पुराने ओरोप की जगह नया ओरोप लाया गया , जो गलत था। बल्कि भूतपूर्व सीडीएस (Chief of Defence Staff; CDS) बिपिन रावत द्वारा बनायीं गयी कमिटी ने तो भूतपूर्व सैनिकों के पेंशन में कटौती करने का भी सुझाव दिया था कई तरीकों से, जो शायद अभी भी लागू हो सकता है। “अग्निपथ” उसी का एक रूप है।
यह साफ है कि सैनिकों का (उच्च स्तर के ऑफिसरों की बातें नहीं की जा रही है) का हितैषी कोई भी राजनितिक दल नहीं है। चाहे भाजपा हो या कांग्रेस या और कोई क्षेत्रीय और छोटे दल।
यह सभी पूंजीपति वर्ग के चापलूस हैं और चुनावी चंदे (Election Bonds) और दुसरे किस्म की सुविधायों के लिए या दलाली के लिए काम करते हैं।
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संघर्ष जारी
कानून बनाने वालों के वेतन तो कई गुना बढ़ जाता है (चुनाव जीतने के संख्या पर भी) और पेंशन भी उसी के आधार पर होता है और उनकी विधवाओं को पूरी जिंदगी 100% पेंशन मिलती रहती है।
राज्य सत्ता और इसके हर विभाग (जहां बाबूगिरी या लाल फीताशाही ज्यादा है और “जनता के लिए काम” जुमला मात्र है) या “प्रजातंत्र” और उसके स्तम्भ भी सैनिकों के लिए नहीं काम करते, वैसे ही जैसे कि वे किसान और मजदूर वर्ग के लिए नहीं हैं।
उच्चतम न्यायलय के फैसले से निराशा जरूर हुई है भूतपूर्व सैनिकों में और उनके परिवारों और विधवाओं के बीच, पर संघर्ष जारी है।
अब संघर्ष ESM से मुक्त हो कर, अर्ध सैनिकों, सिपाहियों, किसानों और मजदूरों, छात्रों और युवकों, बेरोजगाओं के साथ मिलकर करना होगा।
इस सरकार से या अभी के विपक्ष से उम्मीद करना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना है। व्यवस्था परिवर्तन की बात करने की मुहीम में शामिल होना पड़ेगा और इसमें भूतपूर्व सैनिकों की भी भूमिका हो सकती है।
ध्यान में रखें, अधिकांश सैनिक छोटे, मझोले और गरीब किसान परिवार से आते हैं।
2700 दिनों से अधिक हो गए सैनिकों का संघर्ष। कमजोर होने के बावजूद, मशाल लेकर सैकड़ों सैनिक (भूतपूर्व) बारी बारी से जंतर मंतर पर आते हैं, 2-3 बजे दोपहर में, अन्य राज्यों में भी, संघर्ष जारी है।
2024 के लोकसभा चुनाव से भी जुड़ने की चर्चाएँ हैं। अब ये सैनिक, भोले ही सही, राजनीति समझ रहे हैं। जब देश में एक भाषा, एक कानून, एक संविधान की बातें हो रही हैं तो एक रैंक एक पेंशन क्यों नहीं।
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