ये हमारी बेटियां हैं : स्वराज बीर
By स्वराज बीर
समाज में रहते कई तरह के लोगों से मिलना जुलना होता रहता है। दो-तीन दिन पहले एक सज्जन से मुलाकात हुई। बातचीत में उन्होंने दिल्ली में महिला पहलवानों के विरोध प्रदर्शन का जिक्र किया। मैंने उन्हें बताया कि हमारे अखबार ने उनके बारे में खबरें छापी है। उन्होंने बीच में टोका और पूछा, ”क्या आप वहां गए हो?”
मैंने कहा, “नहीं, लेकिन हम पत्रकारों और एजेंसियों की खबरें छाप रहे हैं। हमने दोनों तरफ़ के पक्षों को दिखाया है”। उन्होंने पूछा, “ये “दूसरी’ तरफ़ कौन है?”
मैंने कहा एक तरफ़ महिला पहलवान है और दूसरी तरफ़ कुश्ती संघ का अध्यक्ष बृज भूषण शरण सिंह। उस सज्जन ने कहा, “क्या बात कर रहे हो? वो हमारी बेटियां हैं। तुम वहाँ क्यों नहीं गए?” मैंने उससे पूछा कि क्या वह वहाँ गया था। उन्होंने कहा कि उन्हें छुट्टी नहीं मिल रही है लेकिन छुट्टी मिलते ही वह वहां जाएंगे। बातचीत समाप्त हुई।
वह बातचीत तो समाप्त हो गई लेकिन मेरे कानों में यही विचार गूँज रहा है, “ये हमारी बेटियाँ हैं।” उस सज्जन की आवाज़ में गहरी पीड़ा थी, दुख था, निराशा थी। शायद ख़ुद के वहाँ जंतर-मंतर न पहुंच पाने की पीड़ा या फिर यह पीड़ा कि मानवाधिकारों के पक्ष में आवाज उठाने वाले तमाम लोग जंतर-मंतर क्यों नहीं पहुंचे।
शायद यह वाक्य कई लोगों के कानों में गूंज रहा है इसीलिए लोग विरोध प्रदर्शन करने वाली महिला पहलवानों के पास पहुँच रहे हैं और उनके प्रदर्शन में शामिल हो रहे हैं। उनके साथ एकजुटता व्यक्त कर रहे है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक विजेता खिलाड़ी विनेश फोगाट और साक्षी मलिक उनकी अगुवाई कर रही हैं। पुरुष पहलवान और अन्य खिलाड़ी भी उनका साथ दे रहे हैं।
इन पहलवानों ने जनवरी में विरोध प्रदर्शन भी किया था। इसके बाद एक जांच समिति का गठन किया गया और उन्हें आश्वासन दिया गया कि उनके साथ न्याय किया जाएगा। उन्होंने (महिला पहलवानों ने) उस वादे पर विश्वास किया और धरना उठा लिया लेकिन अब उनका कहना है कि उन्हें न्याय नहीं मिला; उन्हें धोखा दिया गया। उन्हें फिर से धरने पर बैठना पड़ रहा है।
कुश्ती संघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ भी मामला स्वत: दर्ज नहीं हुआ। ललिता कुमारी मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने नवंबर 2013 में निर्देश दिया था कि अगर शिकायत में गंभीर अपराध के तत्व शामिल हैं तो तुरंत मामला दर्ज किया जाना चाहिए; उसके लिए प्रारंभिक जांच की जरूरत नहीं है, लेकिन दिल्ली पुलिस ने मामला दर्ज नहीं किया और कहा कि वह (दिल्ली पुलिस) प्रारंभिक जांच करने के बाद कार्रवाई करेगी।
केस दर्ज कराने के लिए भी महिला पहलवानों को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद मामला दर्ज होना दिखाता है कि महिला पहलवान का मुक़ाबला कितनी शक्तिशाली ताक़तों से है। सदियों से हमारे समाज के हालात ऐसे ही रहे हैं; सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक पुरुष नेता बेटियों के साथ अन्याय करते रहे हैं, जैसा कि 350 साल पहले वारिस शाह ने पंजाब की बेटी हीर के पक्ष में लिखा था, “दाड़ी शेखों की, छुरी कसाइयों की / बह खड़े विच पंच संदावदे हन’। शोषण करने वाले समाज के नेता या पंच बनते हैं।
यह धरना इसलिए दिया जा रहा है क्योंकि पहला धरना विफल हो गया था। असफलता के बाद फिर से संघर्ष करने के लिए उठना बहुत साहस और समर्पण की आवश्यकता होती है। वैसे भी हमारे समाज में महिलाएं अक्सर अपने अधिकारों के लिए लड़ने से बचती हैं। एक महिला जो अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए खड़ी होती है, वह शुरुआत में बहुत अकेली होती है। उसे समझाया जाता है कि अपने अधिकारों के लिए लड़ने का कोई मतलब नहीं है; ऐसा करने से उसकी बदनामी होगी; यह सामाजिक शिष्टाचार के विपरीत है; ऐसा करना अच्छी बेटियों को शोभा नहीं देता। अच्छी बेटियों को क्या शोभा देता है?
अगर हम सामाजिक समझ की आवाज सुनें तो अच्छी बेटियों को उनके खिलाफ हर ज्यादती सह लेनी चाहिए; मन से उठने वाली आवाज को मन में ही दबा देना चाहिए। सामाजिक मानसिकता के चरित्र को देखें तो पता चलता है कि जो नारी अपने अधिकारों के लिए उठ खड़ी होती है, वह उसका एक बड़ा साहस होता है; उसके मन में घोर कश्मकश होती है कि मैं अपने साथ हुए अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाऊँ या न उठाऊँ; उसके मन में तरह-तरह के विचार और प्रश्न उठते हैं –”चुपचाप सहने और ‘इज्जत’ बनाये रखने में ही भलाई है; जो होना था सो हो गया”। बहुत सारी औरतें इस सोच को प्रमुख मानते हुए अवाज ही नहीं उठा पाती। और जो महिला इस सोच को खारिज कर अत्याचार और अत्याचारी के खिलाफ आवाज उठाने का फैसला करती है, वह बहुत बड़े खतरे को झेलती है।
जंतर-मंतर पर प्रदर्शन कर रही बेटियों पर बड़ा खतरा मंडरा रहा है। हम देख सकते हैं कि उनसे क्या-क्या सवाल पूछे जा रहे हैं: इन महिलाओं ने तीन महीने पहले केस दर्ज क्यों नहीं किया? इससे पहले क्यों नहीं अवाज उठाई? उनकी मांगों के पीछे राजनीतिक एजेंडा क्या है?
इन महिलाओं का राजनीतिक एजेंडा “अपने शरीर पर भोगी हुई पीड़ा का एजेंडा है”। पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को हजारों मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।
हमारे समाज में बेटियों के प्रति सबसे तीखी और छिपी हुई कुप्रथाओं में से एक है उन्हें समान इंसान नहीं बनने देना; उन्हें बताना कि वे अबला हैं; उन्हें रक्षा की जरूरत है और उनकी वह रक्षा पुरुष करेंगे। स्त्री में ‘अबला’ होने की भावना पैदा करना सबसे बड़ा सामाजिक और पारिवारिक अन्याय है। यह उसके अंदर आजीवन नाजुकता की भावना पैदा करता है जिससे वह अपने पैरों पर खड़े होने के लिए सहारे और मदद की तलाश में रहती है; संघर्ष करने से कतराती और डरती हैं।
जंतर-मंतर पर धरने पर बैठी महिलाओं ने अपनी अबला की प्रचलित धारणा को खारिज कर दिया है; अपने वजूद का एहसास करवाया है, अपने होने का एहसास करवाया है। उन्नीसवीं सदी में पंजाबी की दलित शायरा पीरो ने आमंत्रण दिया था, “आओ मिलो सहेलियों, मिलकर मसलित करें”। “मसलित” मतलब मिल जुल कर बैठकर, गोष्ठी या मजलिस करने से है।
ये महिलाएं एक साथ बैठकर अपने हक के लिए आवाज उठा रही हैं। अमेरिकी कवयित्री मारिया एंजेलो ने कहा है, ”हर बार जब कोई महिला अपने अधिकारों की रक्षा के लिए खड़ी होती है, तो बिना जाने, बिना दावा किए वह सभी महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज उठा रही होती है।”
जंतर-मंतर पर अपने हक़ों की आवाज उठा रही औरतें सारे देश कि औरतों के हक़ों की अवाज उठा रही है। उन सज्जन के शब्द मेरे कानों में गूंजते हैं, “वे हमारी बेटियाँ हैं।”
महिलाएं सदियों से संघर्ष कर रही हैं। सोजॉर्नर ट्रुथ (कानूनी नाम इसाबेला वॉन वैगनर), 18वीं और 19वीं शताब्दी के दौरान अमेरिका में गुलामी की गई लाखों अश्वेत महिलाओं में से एक, गुलामी के खिलाफ लड़ती हुई, खुद को आज़ाद करवाया और अपने बेटे को एक गोरे मालिक की गुलामी से मुक्त करने वाली पहली महिला बनीं।
1851 में, ओहियो में एक महिला अधिकार सम्मेलन में, उन्होंने एक भाषण दिया, “क्या मैं एक महिला नहीं हूँ?”
सम्मेलन में, अपनी दाहिनी भुजा दिखाते हुए, उन्होंने कहा, “मैंने हल चलाया है, फसलें लगाई हैं, और बड़े अनाज के भंडारण वाले दालान साफ किए है और कोई भी आदमी मेरा मुकाबला नहीं कर सकता। क्या मैं एक महिला नहीं हूँ? मैं किसी भी आदमी के जितना काम कर सकती हूं और अगर मुझे भरपेट खाना मिल जाए तो मैं उसके (आदमी) जितना खा भी सकती हूं और कोड़े भी सह सकती हूं। क्या मैं एक महिला नहीं हूं?’
जंतर-मंतर पर बैठी औरतें भी ऐसा ही सवाल पूछ रही हैं, जो उस सज्जन के सवाल में छिपा है, “क्या हम आपकी बेटियां नहीं हैं?”
देश की सभी लोकतांत्रिक ताकतों को इन बेटियों के पक्ष में आवाज उठानी चाहिए। जैसा कि पंजाबी शायर आश्क़ रहील कहते हैं, “जो मंजिलो पर हमें ले जाये/ कहीं कदमों के वे निशान देखूँ”। महिलाओं के ये कदम सामाजिक समानता की ओर कदम हैं; ये कदम लोकतंत्र के कारवां की पहचान बनने वाले हैं। देश की लोकतांत्रिक ताकतों को इन कदमों के साथ कदम मिलाने चाहिए। देश की बेटियों के अधिकारों से बड़ा संवेदनशील मुद्दा कोई नहीं हो सकता। अगर हम उसमें संवेदना महसूस नहीं करते हैं तो हम खुद को क्या चेहरा दिखाएंगे?
(लेखक पंजाबी दैनिक अख़बार “पंजाबी ट्रिब्यून” के संपादक हैं। यह लेख मूल रूप से 3 मई 2023 के पंजाबी ट्रिब्यून में संपादकीय पृष्ठ पर “ख़ास टिप्पणी” स्तंभ में छपा है। इसका हिन्दी अनुवाद जेएनयू दिल्ली के शोधार्थी हरिंदर हैप्पी ने किया है।)
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