देश में जिन्हें फासीवाद दिखता है, वे आदिवासियों का नरसंहार क्यों नहीं देख पातेः सरोज गिरी

देश में जिन्हें फासीवाद दिखता है, वे आदिवासियों का नरसंहार क्यों नहीं देख पातेः सरोज गिरी

जीएन साईबाबा केसः बड़ी पूँजी, कानून और आदिवासी संघर्ष के दहलीज पर

पता नहीं यह एक बीमारी में आता है या नहीं, लेकिन जिनको देश में फ़ासीवाद दिखता है, उनको आदिवासियों पर हवाई बमबारी या तो दिखती नहीं, या वे उसे नजरंदाज कर देते हैं।

वे अंबानी-अडानी के साथ मोदी सरकार के गठजोड़ का विरोध करते हैं, लेकिन इन बड़े पूंजीपतियों के पक्ष में आदिवासियों पर नरसंहारक (genocidal) हमला — वह भी अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन करते हुए — उन्हें नहीं दिखता।

“भारत जोड़ो यात्रा” मुस्लिम इलाकों से बखूबी निकली, किन्तु वह छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों से कोसों दूर रही। यह बात साफ है कि बड़े पूंजीपतियों का हिमायती बनके पूंजी संचय वाले आदिवासी इलाकों में प्रतिरोध का स्वर बुलंद करने में इनकी कोई दिलचस्पी नहीं है।

“भारत जोड़ो” एक जीवंत आंदोलन होता तो सिलंगेर, बेचाघाट, सारकेगुड़ा और गोमपाड़ के जमीनी आंदोलन को जा के गले मिलता।

इसलिए जब हम देखते हैं कि राहुल गांधी और अन्य विपक्षी नेता अडानी या अंबानी के मोदी सरकार के साथ गठजोड़ को मुद्दा बनाते हैं, तो हमें लगता है कि कहीं कुछ छूट रहा है।

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बात यह है कि कोई निर्दिष्ट “पूंजीपति” (ये या वो “पूंजीपति”) एक चीज है, और “पूंजी” कुछ और. मार्क्स द्वारा उनकी मुख्य कृति “पूंजी” को लिखना महज़ इत्तिफाक़ नहीं था। पूंजीपतियों के बिना “पूंजी” का अस्तित्व नहीं है, पर “पूंजी” के बिना भी “पूंजीपति” का वजूद नहीं हो सकता. मौजूदा सरकार के क़रीबी किसी इस या उस “पूंजीपति” की आलोचना करना विपक्षी दलों को आसान लगता है लेकिन “पूंजी” के मूल चरित्र पर प्रहार इनसे हो नहीं पाता.

जी. एन. साईबाबा के केस में सिर्फ “पूंजीपति” का नहीं बल्कि “पूंजी” का तांडव देखते हैं, जो आम तौर पर दिखाई नहीं देता है.

हमारे लिए “पूंजी” को पूँजीपतियों से अलग करना, संश्लेषण के दृष्टिकोण से, मार्क्सवादी पद्धति में बेहद ज़रूरी है। वैसे तो व्यवहारिक राजनीति में, और यहाँ तक की

“वामपंथी” सैद्धांतिक लेखों में भी “पूंजी” को बचाकर पूँजीपतियों पर निशाना साधा जाता है। मार्क्स जिसको ‘सार्वजनिक “पूंजी”’ कहते हैं, या यूं कहें, ‘”पूंजी” का सूक्ष्म (विशुद्ध) स्वरूप’, इसको ध्यान में रखना बेहद अहम है.

साईबाबा के प्रकरण में गढ़चिरौली के सेशन कोर्ट के जज साहब ये या वो पूँजीपति के समर्थन के साथ साथ सार्वजनिक पूंजी, पूंजी के विशुद्ध स्वरूप की वकालत करते हैं। साईबाबा पूंजी निवेश (capital investment) और “विकास” को नहीं होने दे रहे हैं, “पूंजी” निवेश में रुकावट डाल रहे हैं, इसको आधार बनाकर उनको साल 2017 में आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई.

आइए इस प्रकरण पर नज़र डालते हैं:

https://www.workersunity.com/wp-content/uploads/2023/05/Meeting-for-realease-of-saibaba-in-delhi.jpg

लगभग दो महीने पहले (28 अक्टूबर 2022) को गांधी शांति प्रतिष्ठान में साईबाबा प्रकरण के मुद्दे पर एक मीटिंग हुई थी। बीच में बॉम्बे हाई कोर्ट के नागपुर बेंच से हमे उम्मीद की एक किरण दिखी थी। लेकिन दूसरे ही दिन (15 अक्टूबर 2022 को) सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले को रद्द कर दिया। हाई कोर्ट के निर्णय के बाद जिस तरह की अफरा-तफरी मची और शासक वर्ग ने अपने-आप को उसके बाद रातों-रात कुछ ही घंटों में व्यवस्थित/संगठित करके दूसरे ही दिन सुप्रीम कोर्ट से हाई कोर्ट के फैसले को पलटवा दिया। कई लोग कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के जो दो जज, एमआर शाह और बेला त्रिवेदी , जिन्होंने रिहाई के आदेश को रद्द किया वे सत्ता में बैठी पार्टी के क़रीबी लोग हैं। उसके बाद लोगों ने इनकी बायोग्राफी भी देखी कि मौजूदा सरकार में बैठे लोगों के साथ इनके किस-किस तरह के रिश्ते रहे हैं।

लेकिन मुझे लगता है कि इसमें कुछ और भी बात थी और केवल यह बात नहीं थी कि वे शासन कर रही पार्टी के क़रीबी लोग थे या वे वैचारिक तौर पर उनसे जुड़े हुए थे। कुछ लोग कहते हैं कि वे जज सेवानिवृत्त होने वाले हैं, तो सेवानिवृत्ति के बाद कोई दूसरा पद पाने के लालच में उन्होंने ऐसा निर्णय दिया। ऐसा लगता है कि किसी तात्कालिक फायदे के लिए उन्होंने साईबाबा को रिहा नहीं होने दिया। ऐसा लगता है कि केवल उन दो जजों के बेंच के चलते ऐसा हो गया।

मुझे लगता है कि यह मामला इससे काफी ज़्यादा गंभीर और बड़ा है। मैं मानता हूँ कि अगर हमारे पसंद के ही कोई और जज भी होते तो भी रिहाई को कुछ न कुछ करके रोका जाता। पहले भी साईबाबा को ज़मानत मिली थी लेकिन उसके बाद दोबारा उनको ले जाकर जेल में बंद कर दिया गया। भीमा कोरेगाँव प्रकरण में या फिर दिल्ली दंगा प्रकरण में बहुत से लोग ज़मानत पर बाहर आ गए और अब वे किसी से बात भी नहीं कर सकते हैं, काफी बंदिश है। हो सकता है कि उस तरह से और भी लोग ज़मानत पर बाहर आ जाएँ।

हर प्रकरण में एक व्यक्ति होता है जिसके ऊपर राज्य के षड्यंत्र का पूरा मामला टिका रहता है। और साईबाबा को उन्होंने इस तरह का व्यक्ति बनाया है। यहाँ 5-6 लोगों को तो हम देख ही रहें हैं। पांडु नरोत्तो तो शहीद हो गए। इधर भीमा कोरेगाँव के केस में साईबाबा को प्रकरण की एक धुरी (लिंचपिन) जैसा बनाया है। साईबाबा का प्रकरण कैसे भीमा कोरेगाँव से जुड़ा है, इसके लिए मेरा लेख देखें.

इसलिए बेंच कौन सा था, वकील कौन से थे, यह बात बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। कभी किसी जज ने अच्छा निर्णय दे दिया तो लोग कुरेद-कुरेद कर निकालते हैं कि उस जज का झुकाव कुछ प्रगतिशीलता की ओर है, उसकी पत्नी कभी मानवाधिकारों पर काम करती थी! आपको पता है कि मैं किस जज के बारे में बात कर रहा हूँ!!

जिस ज़मीनी आंदोलन के साथ यह प्रकरण जुड़ा हुआ है, उसे हमें नहीं भूलना चाहिए। यह ज़मीनी आंदोलन है जो सच में हो रहा है। जब हम कहते हैं की राज्य झूठ बोल रहा है, फर्जी केस गढ़ रहा है तो हम बात को कभी-कभी वहाँ तक ले जाते हैं कि हम ज़मीनी आन्दोलन की वास्तविकता से इंकार कर बैठते हैं। बस केवल कुछ बौद्धिक लोग, मीडियाकर्मी, कलाकार, रंगकर्मी, विपक्ष की पार्टियाँ हैं, जो राज्य के ख़िलाफ़ बोल रहे हैं, उसके गलत कामों का विरोध कर रहे हैं। जिसके असहमति की आवाज़ (dissenting voices) कहते हैं।

लेकिन आंदोलन यथार्थ में चलते हैं और ये तरह-तरह की प्रकृति के होते हैं। मो. ज़ुबैर को इन्होंने गिरफ्तार किया; उससे पहले इन्होंने तीस्ता को गिरफ्तार किया था और छत्तीसगढ़ के अंदर 2009 में आदिवासियों का जो जनसंहार हुआ, उस प्रकरण में हिमांशु कुमार पर जुर्माना लगाया. वे सब एक ही समय में (साल 2022 में) हुआ। आप उस समय कोई सभा कर रहे होते हैं तो सोचते हैं इन तीनों को एक ही में जोड़ देते हैं। अच्छी बात है जोड़ना चाहिए। लेकिन जोड़ते समय हमे देखना चाहिए कि इन तीनों में समानता होते हुए भी इनके कुछ अलग-अलग आयाम (डाइनामिक्स) हैं।

आदिवासियों के जो सवाल है, आदिवासी का जो चेहरा आप यहाँ (इस सभा में) देख रहे हैं, आदिवासियों का जो संघर्ष है, वह तो हकीकत है न, या वो भी सरकार ने बुद्धिजीवियों को फंसाने के लिए झूठ गढ़ा गया है? मुहम्मद ज़ुबैर का संघर्ष, तीस्ता सीतलवाड़ का संघर्ष सभी देश के अंदर जनता के सवालों पर चलने वाले संघर्ष हैं, लेकिन मध्य भारत में जो आदिवासियों का संघर्ष है वह पूँजीपतियों के सामने सीधे-सीधे प्रतिरोध खड़ा कर रहा है। आप जैसा कि कहते हैं कि हम निगमीकरण (corporatisation) के ख़िलाफ़ हैं, लेकिन निगमीकरण के ख़िलाफ़ संघर्ष में भी आपको अंतर करना पड़ेगा। पंजाब में किसानों ने भी निगमीकरण का विरोध किया, जिसमें उन्होंने जियो के टॉवर को तोड़ करके उसे संचार से अलग कर दिया, उन्होंने टोल गेटों को हटाकर कुछ दिनों के लिए गाड़ियों का आना-जाना फ्री करा दिया था, ट्रेन में भी लोग उन दिनों बिना टिकट यात्रा करने लगे थे और उस समय किसानों ने पंजाब को भी कुछ समय के लिए मुक्त क्षेत्र (Liberated Zone) बना दिया था, जो कि अच्छी बात है।

लेकिन जहाँ से अदानी, अंबानी खनन करके कोयला, हीरा, मोती, सोना, चाँदी, लोहा निकाल रहे हैं, वहाँ पर आधुनिक “पूंजी” निर्माण (Modern Primitive Accumulation/ आधुनिक आदिम संचय) हो रहा है। इसलिए मध्य भारत में आदिवासियों का इसके ख़िलाफ़ आंदोलन चल रहा है, उसको रोकने के लिए राज्य ने अपनी पूरी क्षमता से तरह-तरह से जाल बिछाया है, छत्तीसगढ़ में सलवा जुड़ुम चलाकर आदिवासियों को आदिवासियों से लड़ाया, जिसमें कितने लोग मारे गए। राज्य द्वारा इस आंदोलन को रोकने के लिए हर तरह की कोशिशें की गईं।

साईबाबा का प्रकरण तो गढ़चिरौली का है, जो छत्तीसगढ़ से सटा हुआ है, और इस तरह से दोनों एक ही क्षेत्र हैं। “पूंजी” ने अपने उच्चतम रूप में खुद को संगठित (मोबिलाईज़) किया है। इसलिए कौन सी पार्टी आज सत्ता में है, सवाल केवल उसका नहीं है। बल्कि यह राज्य के ढांचे का सवाल है। इसलिए कोई भी पार्टी सत्ता में रहे नीति नहीं बदलती है।

आज छत्तीसगढ़ में कॉंग्रेस सत्ता में है, महाराष्ट्र में जहाँ पर साईबाबा का मुकदमा चल रहा है, वहाँ अभी सत्ता में भाजपा नीति सरकार है लेकिन इसके पहले कॉंग्रेस-शिवसेना गठबंधन सरकार थी। वहाँ की सत्ता पर उनका नियंत्रण था, जो आज “भारत जोड़ो यात्रा” कर रहे हैं। इन मामलों में उन्होंने ने भी आदिवासियों के प्रति कोई हमदर्दी नहीं दिखाई। महाराष्ट्र में खुद को किसानों का नेता कहने वाले शरद पवार, विपक्ष के बहुत बड़े नेता हैं, उन्होंने भीमा कोरेगाँव के केस को एनआईए को सौंप दिया। यह उस स्तर पर चल रहा है कि चाहे राहुल गांधी हों या नरेंद्र मोदी हों, उनके बीच फ़र्क करना बहुत मुश्किल होता जा रहा है। मैं कहता हूँ कि न्यायधीश डी. वाई. चंद्रचूर्ण इस मामले में बच गए कि सोमवार के दिन यह केस उनके बेंच से नहीं टकराया। अगर ऐसा होता तो मुझे लगता है कि सर्वोच्च न्यायालय में एक तरह का न्याय संबंधी संवैधानिक संकट खड़ा हो जाता कि वह साईबाबा को छोड़ रहे हैं। यह टल गया, यह उस स्तर पर हो रहा है!

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साईबाबा की पत्नी ए. एस. बसंता जब साई से मिलने नागपुर जेल में जाती हैं या जब पांडू नरोते का देहांत हुआ था, तो ऐसे में स्थानीय न्यायालय व स्थानीय सरकारी कार्यालयों मे कुछ छोटी-मोटी कागज़ी कार्रवाई करनी पड़ती है। आपको क्या लगता है कि साईबाबा के प्रकरण में स्थानीय वकील सहयोग करते होंगे व हमदर्दी दिखाते होंगे? ऐसा बिलकुल नहीं होता है। उसमें स्थानीय न्यायालय, स्थानीय अधिकारी उन्हें सहयोग नहीं करते हैं। स्थानीय वकील भी बिल्कुल सहयोग नहीं करते हैं। सुरेंद्र गाडिलिंग गिरफ्तार होने से पहले, जो भीमा कोरेगाँव प्रकरण में जेल में हैं, ने स्थानीय वकीलों के तरफ से बहुत अधिक भेदभाव और अत्याचार का सामना किया। छत्तीसगढ़ में जैगलैग (JAGLAG) के जो वकील (शालिनी गेरा की टीम) जाते थे, छत्तीसगढ़ के स्थानीय वकीलों ने उन्हें वहाँ से मार कर भगाया था। उन्हें वहाँ किराए का एक मकान भी नहीं मिला। बेला भाटिया अभी भी वहाँ हैं और मानवाधिकार कार्यकर्ता के बतौर कार्य कर रहीं हैं। साईबाबा का केस केन्द्रीय सरकार के तरफ से एनआईए के स्तर पर लड़ा जा रहा है। लेकिन वहाँ का स्थानीय तंत्र भी खनन निगमों के साथ मिलकर काम कर रहा है।

वर्ष 2017 के प्रकरण में साईं को आजीवन कारावास मिला, और जज ने अपने फैसले में कहा कि साईबाबा गढ़चिरौली क्षेत्र में विकास में बाधा पहुंचा रहे हैं। आप जज (श्री सूर्यकांत शिंदे) का निर्णय पढ़ेंगे तो पाएंगे कि उन्होंने अपने निर्णय में साईबाबा को उस तरह से षड्यंत्र रचने और उन पर देशद्रोह का आरोप नहीं लगाया है, जैसा कि भीमा कोरेगाँव के केस में लगाया गया है। उन्होंने माओवादी षड्यंत्र की तो बात कही है लेकिन बार-बार सुरजागढ़ में होने वाले माईनिंग को केंद्र में रखा है और सुरजागढ़ का नाम लिया है। एक जज, जिसका काम कानून का पालन करवाना है, खनन पर क्यों इतना ज़ोर दे रहा है? इससे पता चलता है कि आंदोलन से उन्हें कहाँ “पूंजी” की सत्ता पर मार पड़ी है। राज्य और “पूंजी” के गठजोड़ पर चोट कहाँ हुई है। निर्णय पढ़ने पर यह बात खुलकर सामने आ जाती है। जज बार-बार बोल रहा है कि सुरजागढ़ में जो खदान है, उसका खनन नहीं करने दिया, उसे लूटने नहीं दिया। बढ़िया लूट चल रही थी उसे रोक दिया गया, इसका मुकदमा साईबाबा पर है।

मैंने पहले ही कहा कि आंदोलन तरह-तरह के होते हैं। जैसे हम यहाँ सभा कर रहे हैं, हम जंतर-मंतर पर आंदोलन करते हैं, जेएनयू में, डीयू में और जगहों पर आंदोलन करते हैं, रेडिकल गाने गा लेते हैं, यह सब चलता रहता है। आप यहाँ पूंजीवाद के ख़िलाफ़ माहौल बनाते रहिए, सरकार के ख़िलाफ़ हवा बनाते रहिए, लेकिन उससे पूंजीवाद जो अपना डंपर लेकर माईनिंग के लिए जाता है वह नहीं रुकता, खदान में चलने वाली ड्रीलिंग मशीन नहीं रुकती है, माईनिंग में चलने वाले ट्रैक्टर व डंपर नहीं रुकते हैं। लेकिन साईबाबा के प्रकरण में गुस्सा इस बात का है कि सुरजागढ़ के खदान में काम रुका है, वहाँ पर ड्रीलिंग मशीन, डंपर व ट्रैक्टर रुके और आदिवासियों के आंदोलन के दौरान कई ट्रकों को हटाया गया और कुछ को जला दिया गया। साईबाबा के प्रकरण में जज बार-बार बोल रहा है कि सुरजागढ़ में जो लोहे की खदान थी, उसे हमें खोदने नहीं दिया, उसमें से हमें लोहा नहीं निकालने दिया, हमारी जो अच्छी लूट चल रही थी उसे करने नहीं दिया। हमारी लूट चल रही थी और बढ़िया लूट चल रही थी, इस आंदोलन ने उस लूट को रोक दिया। (दर्शक दीर्घा में तालियाँ)

राज्य सोचता है कि कितना भी बड़ा आंदोलन हो वह उसे खरीद लेगा या उसे लंबा चलाने के लिए मजबूर करेगा, जैसा उन्होंने किसान आंदोलन के मामले में किया। लेकिन आखिरकार आपको कभी न कभी अप्राप्ति ही मिलती है। लेकिन मध्य भारत में चल रहा यह आंदोलन एक ऐसा आंदोलन है जो अप्राप्ति की स्थिति में जा ही नहीं पा रहा है, वहाँ काम शुरू हो ही नहीं पा रहा है। इससे राज्य और पूंजीपतियों को जो चोट लगी है, “पूंजीपति” और राज्य दोनों मिलकर उसका बदला ले रहे हैं, जो साईबाबा के सर पर जा रहा है। उन्होंने सोचा है कि सबसे पहले साईबाबा को ठीक करो तो सब ठीक हो जाएंगे। इसलिए साईबाबा के केस को मैं तो हमेशा गंभीरता से लेता हूँ।

मैंने इस संबंध में जो लेख भी लिखा है, हालांकि उसे मुझे भीमा कोरेगाँव के नाम से लिखना पड़ा। चूंकि वामपंथी लोग लहर में चलते हैं इसलिए मैंने भी “भीमा कोरेगाँव लहर” का इस्तेमाल किया। लेकिन आप उसको ठीक से पढ़ेंगे तो आपको उसका झुकाव देखने को मिलेगा।

मैं जो बात बोल रहा रहा था कि “स्थानीय पूंजी” का वहाँ के पुलिस अधिकारी, न्यायालय, क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों, राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों के स्थानीय कमेटियों का जो गठजोड़ है। मैं नाम भी बता सकता हूँ कि जैसे बिनायक सेन के प्रकरण में था, आईपीएस ऑफिसर विश्व रंजन, महाराष्ट्र में आईपीएस ऑफिसर सुरेश बोडके, छत्तीसगढ़ में कल्लूरी, इन लोगों ने वहाँ के स्थानीय मीडिया को भी खरीद लिया था। कल्लूरी ने छत्तीसगढ़ में स्थानीय मीडिया से आंदोलन के संबंध में नकारात्मक ख़बर छपवाने के लिए वहाँ के स्थानीय पत्रकारों को पुलिस विभाग के विभिन्न ठेके तक दे दिए। उदाहरण के लिए पानी के बोतल की आपूर्ति के लिए फलां जर्नलिस्ट ठेकेदार बन गया। इस तरह से कल्लूरी ने वहाँ पर पूरा एक जाल बिछाया था। आप सोचते हैं कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट जैसे ऊँचे न्यायालयों में जब आप जाते हैं तो आपको लगता है कि बड़े-बड़े जज बैठे हैं, वे आपको न्याय दे देंगे, पर हुआ क्या?

मुझे लगता है 2014 के बाद जो नया चीज़ हुआ है वह यह है कि बहुत सारे पैटर्न तो पहले जैसे ही हैं लेकिन जो स्थानीय स्तर पर “पूंजी” का स्थानीय पुलिस, स्थानीय गुंडों, क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों, नेताओं और चुनाव के साथ जो बड़ा गठजोड़ था, वह गठजोड़ हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के स्तर पर भी पहुँच आया है। इसलिए यह साईबाबा का केस इस ढंग से महत्वपूर्ण है। लेकिन हमें यह उम्मीद भी देता है कि इससे हमें सबक लेना चाहिए, या यूँ कहें कि साईबाबा का केस हमें आभास करता है कि देश में एक खास तरीके का बहुत ही सशक्त आंदोलन इस समय में भी मौजूद है। साईबाबा पर इस तरह का हमला हो रहा है क्योंकि ऐसा आंदोलन अभी भी चल रहा है। हम जानते हैं कि सिलंगेर में ऐसा ही आंदोलन चल रहा है।

हमने अपने बात-चीत में यह माहौल बना लिया है कि उन्होंने सब कुछ पर क़ब्ज़ा कर लिया और फ़ासीवाद आ गया है। पर मुझे नहीं लगता कि फ़ासीवाद आया है। अगर ठीक ढंग से देखेंगे तो, यह मैं कहना चाहूँगा कि यदि आप सिर्फ सरकार बनाम वामपंथी बौद्धिक, पत्रकार, अकादमिक, कलाकार वाला फ्रेमवर्क बना लेते हैं तो लगता है फ़ासीवाद आ गया है, लेकिन अगर आप दूसरा फ्रेमवर्क “पूंजी” बनाम सरकार वाला देखेंगे तो पाएंगे कि अभी भी ज़मीनी संघर्ष चल रहे हैं, तो आपके लिए उम्मीद ही उम्मीद है। मुझे नहीं लगता है कि इस तरह के संघर्ष को इस देश में अभी पूरी तरह से कुचल दिया गया है। बौद्धिक लोगों को पकड़ा है, ठीक है हम जेल जाएंगे। नेहरू के समय से हम भी मज़े ले रहे हैं। जेएनयू, डीयू जैसे संस्थानों के निहित हित में एक तरीके से हम भी काफी सालों से बने हुए थे, जिसको हम पहले संशोधनवाद बोलते थे। भले ही संशोधनवादी शब्द पुराना पड़ गया है, जिसे हम भूल गए हैं। संशोधनवादी हम भी हैं, निहित हित में हम भी हैं। यह वामपंथी दायरे में बहुत ही वाजिब शब्द है।

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आज मैं आखिरी बात कहना चाहता हूँ कि “पूंजी” कैसे अपना काम करती है। यह एक मज़ेदार बात है कि हमने हिमांशु कुमार के समय में आदिवासियों को एक मीटिंग करवाई थी। उसमें चिंता का विषय था कि इतने आदिवासी भाई बहन लोग छत्तीसगढ़ से आ रहे हैं, तो इस संबंध में यहाँ मीडिया किस तरह की ख़बर छापेगा। हम लोग बोले कि चलो जो गोदी मीडिया है वह तो नहीं दिखाएगा, लेकिन जो मीडिया गोदी नहीं है, उसके बारे मे क्या? जब आप लोग हिन्दू मुस्लिम का प्रश्न उठाते हैं तो गोदी मीडिया बनाम नॉन-गोदी मीडिया का फर्क साफ-साफ दिखता है, सांप्रदायिक बनाम धर्मनिरपेक्ष मीडिया के प्रश्न पर, मीडिया में एक तरह का प्रगतिशील खेमा है। उस खेमे में ध्रुव राठी से लेकर कुनाल कामरा तक तरह-तरह के लोग हैं। आदिवासी के सवाल पर यानि “पूंजी” का जो सवाल है उस पर हमने देखा कि जब उस तरह का संघर्ष जो जहाँ ड्रिलिंग हो रहा है उसे रोक सकता है, तो बहुत सारे प्रगतिशील मीडिया के बड़े खेमे भी पीछे हट गए।

हमने सुना कि एनडीटीवी से रवीश कुमार अलग हो गए, उस समय हमें लगा कि रवीश कुमार तो ज़रूर कवरेज करेंगे। ऐसा हमारा मानना था। दिया। हमने अंग्रेज़ी माध्यम के एनडी टीवी को तो पूछा ही नहीं था, क्योंकि उससे हमें कोई उम्मीद ही नहीं था। हम लोग रवीश कुमार से मिले और कहा कि हम इस तरह के कार्यक्रम का आयोजन कर रहे हैं और उन्हें उस कार्यक्रम में आमंत्रित किया। हमने उनसे यह भी कहा कि वाम व प्रगतिशील खेमे के जो लोग भागीदारी करेंगे वे तो आशा करेंगे कि आप इसका कवरेज ज़रूर करें, लेकिन उन्होंने बिलकुल कवरेज नहीं किया और इस अनुरोध को सिरे से ठुकरा दिया।

आज जब रवीश कुमार त्यागपत्र दे रहे हैं तो मैं सोच रहा हूँ कि क्या चल रहा है, सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता पर डट कर दृढ़ता से बात रखने वाली मीडिया का हिस्सा जो आपके साथ समझे जाते हैं, आदिवासियों के मुद्दे पर बहुत संभल-संभल कर चलना चाहते हैं। साईबाबा के केस में जब नागपुर बेंच ने कहा कि उनको रिहा किया जाना चाहिए, तब जाकर इस खेमे के लोगों ने बोलना शुरू किया। इसलिए मैं कह रहा हूँ कि साईबाबा का मुद्दा बहुत पेंचीदा है लेकिन यह निराशा का बिन्दु नहीं है। मैं बहुत आशावादी रहते हुए यह कह रहा हूँ कि साईबाबा का प्रकरण संकेत दे रहा है कि देश में एक बहुत ही सशक्त आंदोलन अभी भी चल रहा है और साईबाबा उसका हिस्सा थे। यह साईबाबा का व्यक्तिगत सवाल नहीं है बल्कि वह जिस राजनीतिक आंदोलन की ओर संकेत करते हैं उसके प्रति हमें सजग रहना चाहिए, उसे आगे बढ़ाना चाहिए।

आपने बोलने का मौका दिया बहुत-बहुत धन्यवाद।

(यह आलेख उस भाषण का  लिप्यांतरण है जिसे प्रोफ़ेसर सरोज गिरी ने 5 दिसम्बर 2022 को दिल्ली में हरकिशन सिंह सुरजीत भवन में आयोजित एक मीटिंग में दिया था.)

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