अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ 1907 की वो रेल हड़ताल जब कोई भी ट्रेन स्टेशन तक नहीं पहुंचीः इतिहास के झरोखे से-1
By सुकोमल सेन
मजदूरों की आर्थिक स्थितियों में निरंतर हो रहे ह्रस और काम का बोझ (बर्क लोड) बढ़ाकर शोषण में की जा रही वृद्धि ने विभिन्न स्थानों के रेलेव मजदूरों के सन् 1907 में देशव्यापी कर्रवाई करने के लिए बाध्य कर दिया।
रेलवे के बड़े कारखानों (वर्कशॉप) के मजदूरों ने प्रबंधन की दमनकारी नीतियों के खिलाफ कड़ा प्रतिरोध किया।
1 मई 1907 को मुंबई में रेलवे के कारखाने में तीन हजार मजदूरों ने काम रोक दिया।
एक सप्ताह तक हड़ताल चली और मजदूर कुछ रियायतें हासिल कर, विजयी होकर काम पर लौटे।
ईस्ट इंडिया रेलवे के मजदूरों ने सन् 1907 की सबसे बड़ी हड़ताल संगठित की। रेलवे के गार्ड और ड्राइवरों ने 18 नवंबर को अनिश्चकालीन हड़ताल शुरू कर दी।
अधिकतर हड़ताली लोग यूरोपियन मूल के और एंग्लो इंडियन थे। भारतीय कर्मचारियों की कम ही संख्या थी। हड़ताली कर्मचारियों की मांगे पूर्णत: आर्थिक ही थीं।
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कोई रेलगाड़ी अपने स्टेशन तक नहीं पहुंची
फिर भी इस हड़ताल ने पूरे देश में हलचल मचा दी और प्रवीणतापूर्वक मजदूर वर्ग की संगठित कार्रवाई की शक्ति का प्रदर्शन किया।
आसनसोल रेलवे स्टेशन से प्रारंभ होकर शीघ्र ही यह हड़ताल उत्तर में इलाहाबाद से लेकर टुंडला तक फैल गई। हड़ताल की कार्रवाई 43 बिंदुओं के मांग पत्र पर शुरू हुई।
इसमें हर्जाना और आर्थिक दंड व्यवस्ता (जिसके कारण वेतन कम हो जाता था) का पुनर्निर्धारण, बेहतर कार्यस्थितियां और समय के अनुसार भुगतान की प्रचलित व्यस्था के स्थान पर मील (दूरी) के आधार पर भुगतान व्यवस्था की मांग शामिल थी।
आसनसोल रेलवे स्टेशन से प्रारंभ होकर शीघ्र ही यह हड़ताल उत्तर में इलाहाबाद से लेकर टुंडला तक फैल गई। हड़ताल की कार्रवाई 43 बिंदुओं के मांग पत्र पर शुरू हुई।
इसमें हर्जाना और आर्थिक दंड व्यवस्था (जिसके कारण वेतन कम हो जाता था) का पुनर्निर्धारण, बेहतर कार्यस्थितियां और समय के अनुसार भुगतान की प्रचलित व्यवस्था के स्थान पर मील (दूरी) के आधार पर भुगतान व्यवस्था की मांग शामिल थी।
हड़ताल इतनी सफल थी कि कोई भी रेलगाड़ी अपने गंतव्य तक नहीं पहुंच सकी। प्रबंधन ने विपिनचंद्र पाल और अन्य बंदियों के बंगाल-नागपुर रेलवे के जरिए आसनसोल से कोलकाता लाने का प्रयास किया लेकिन रेल मार्ग पर 200 रेल कर्मचारियों ने खड़े होकर इस प्रयास को असफल बना दिया।
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कोयले का संकट पैदा हो गया
हावड़ा रेलवे स्टेशन के रेलवे कर्मचारी हड़ताल के लिए इतने दृढ़ संकल्पित थे कि उन्होंने वहां से एक भी ट्रेन नहीं चलने दी। सैकड़ों यात्री स्टेशन पर परेशान होते रहे। मालगाड़ी के 300 डिब्बे स्टेशन पर ही खड़े रहे।
20 नवंबर तक इलाहाबाद और कानपुर में भी पूरी तरह से रेलवे का काम बंद हो गया और हावड़ा-कोलकाता लाइन पर की मिलों में कोयले का गंभीर संकट खड़ा कर दिया और कोलकाता बंदरगाह पर बाहर जाने वाले जलपोत खड़े हो गए।
24 नवंबर तक करीब एक हजार खाली और 400 माल से भरे रेल के डिब्बे कोलकाता बंदरगाह पर खड़े हो गए। बर्दवान, आसनसोल, मुलगसराय, इलहाबाद टुंडला, कानपुर अम्बाला और बुहत से दूसरे स्टेशनों पर हड़ताल का प्रभाव पड़ा।
इन रेलवे लाइनों पर ट्रेनों का यातायात पूर्णत: ठप हो गया।
रेलवे पदधिकारियों और सरकार ने दामनकारी कार्रवाइयों का रस्ता अपनाया। सैनिकों टुकड़ियों और हथियारबंद पुलिस स्टेशनों पर तैनात की गई।
हावड़ा रेलवे स्टेशन को सेना के आधीन कर दिया गया और बड़ी संख्या में हथियार बंद टुकड़ियां आसनसोल भेज दी गई।
लेकिन सरकार और आधिकारियों द्वारा सैनिक प्रदर्शन के जरिए मज़दूरों को आतंकित करने के प्रयास का विपरीत प्रभाव पड़ा। हड़ताल बंगाल- नागुपर रेलवे अचंल में भी फैल गई।
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दस दिन की हड़ताल
अधिकारियों द्वारा इस रेल लाइन के चालकों (ड्राइवरों) को दूसरी रेलवे लाइन पर काम में लगाने से उनके अंदर गहरा आक्रोश फैल गया। रेलवे गार्ड भी हड़ताल में शामिल हो गए लेकिन यह हड़ताल 24 घंटे से अधिक नहीं चली।
रेलवे अधिकारियों और रेलवे कर्मचारियों के प्रतिनिधियों को शामिल कर एक शांति कमेटी का निर्माण किया गया जिसने हड़तालियों की मांगों के समाधान का आश्वासन दिया।
ईस्ट इंडिया रेलवे की (18 नवंबर से 28 नवबंर 1907) दस दिन की हड़ताल ने वायसराय के मुख्यालय कोलकाता शहर को पुरे तौर पर अलग-थलग कर दिया।
एक सुविख्यात सोवियत सिध्दांतकार ए.आई. लिव्कोवस्की ने लिखा, यह ब्रिटिश शासन को गंभीर झटका था ऐसा झटका जिसने पराक्रमी की नींव खोखली कर दी।
वास्तव में इस हड़ताल में यद्पी यूरोपियन और ऐंग्लों इंडियन कर्मचारी प्रधानता से भाग लिए और राष्ट्रवाद लोगों में इसकी मिली-जुली प्रतिक्रिया हुई फिर भी संपूर्ण रुप से भारतीय मजदूर वर्ग से इसे समर्थन, सहयोग और हमदर्दी मिली।
कुछ राष्ट्रवादी नेताओं ने आसनसोल में सभाओं को संबोधित किया और समर्थन में पर्चे भी बांटे। इन पर्चों में वंदे मातरम् का नारा था।
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साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ मज़दूरों की तीखी लड़ाई
ईस्ट इंडिया रेलवे में हुई हड़ताल वास्तव में देश भर के रेलवे कर्मचारियों में व्याप्त आम असंतोष का प्रतीक थी। 21 दिसंबर 1907 को फिर ईस्ट बंगाल रेवले (पूर्वी बंगाल रेलवे) में हड़ताल हो गई।
इस बार इंजन के चालकों, कोयला झोंकेने वाले (फायरमैन) और ब्रेकमैन ने वेतन की मांग को लेकर काम रोक दिया।
सेना को बुलाया गया और ब्रिटिश सैनिकों द्वारा रेलगाड़ियों चलाई गईं। हड़ताली रेलवे कर्मचारियों पर भारी दमन किया गया।
600 रेल कर्मियों को नौकरी से निकाल दिया गया और बहुत से दुसरे लोगों को मनमने ढंग से दुसरे तरीकों से दंडित किया गया। जनवरी 1908 के प्रथम सप्ताह तक हड़ताल समाप्त हो गई।
जनवरी 1908 में रेलवे कारखाना (वर्कशाप) के 8000 मजदूरों ने जीवनयापन वस्तुओं की कीमतें बढ़ने से मुआवजे की मांग के साथ फिर काम बंद कर दिया। आंशिक रुप से मांग मान लिए जाने पर लोग काम पर वापस चले गए।
विभिन्न रेलवे संस्थानों में व्यापक हड़ताली कार्रवाइयों को 1905-1908 के दौरान देशभर में हुई साम्राज्यवाद विरोधी जागृति से जोड़ने और उसकी कड़ी के रुप में देखना ग़लत न होगा। (क्रमशः)
(भारत का मज़दूर वर्ग, उद्भव और विकास (1830-2010) किताब का अंश। ग्रंथ शिल्पी से प्रकाशित)
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