जब भारतीय मज़दूरों की आर्थिक हालत को रॉयल कमीशन ने दरिद्रता बताया : इतिहास के झरोखे से-8

जब भारतीय मज़दूरों की आर्थिक हालत को रॉयल कमीशन ने दरिद्रता बताया : इतिहास के झरोखे से-8

By सुकोमल सेन

विकास के प्रारंभ में और जिस दौर की हम चर्चा कर रहे हैं इस दौर में भी विभिन्न औद्योगिक केंद्रों और उद्योगों में मज़दूरों के आंकड़ों का संकलन करने की किसी व्यवस्था के बारे में जानकारी नहीं मिलती।

बहुत सी कमेटियां, आयोग और सरकारी विश्लेषण इस बात से सहमत हैं कि मज़दूरों की गरीबी की कोई सीमा नहीं थी।

विभिन्न अखबारों में प्रकाशित रिपोर्टें भी वही कहानी कहती हैं। पहली बार सन् 1934 में मुंबई के श्रम कार्यालय (बांबे लेबर आफिस) ने सूती कपड़ा मजदूरों की मज़दूरी के बारे में एक जनगणना की।

इस जनगणना में मज़दूरी की दरों के बारे में बहुत ही असंगत और अव्यवस्थिति स्थिति को उद्घाटित किया गया। मज़दूरी की समानता से बहूत दूर, मज़दूरी की दरों में भारी अंतर मौजूद था।

यहां तक कि एक ही उद्योग में और एक ही तरह के काम के लिए भी मज़दूरी में काफ़ी फ़र्क था। रॉयल कमीशनऑन लेबर इन इंडिया की जांच में भी यही विभेद ज़ाहिर किया गया है।

इस रिपोर्ट से पता लगता है कि मद्रास और कोयंबटूर के कपड़ा मज़दूरों की मज़दूरी मुंबई और अहमदाबाद के मज़दूरों की मज़दूरी का एक तिहाई थी जबकि मद्रास और कोयंबटूर में सूती कपड़ा उद्योग का तेजी से विस्तार हो रहा था।

मज़दूरी में भारी असमानता

संयुक्त प्रांत के सबसे बड़े औद्योगिक केंद्र कानपुर में बुनकर और कताई करने वाले मजदूरों को क्रमश: 33 रु. और 35 रू. का मासिक वेतन मिलता था। मज़दूरी की ये दरें मुंबई और अहमदाबाद में लागू दरों से बहुत कम थीं।

बांबे लेबर आफिस द्वारा की गई जांच से भी यह तथ्य सामने आए कि मज़दूरी तय करने और भुगतान करने के दोनों तरीकों में, यहां तक कि एक ही केंद्र की अलग-अलग इकाइयों में और विभिन्न केंद्रों के बीच भी काफ़ी अंतर था।

रॉयल कमीशन की जांच ने एक बेहद गंभीर असमानता को ज़ाहिर किया। यह देखा गया कि संयुक्त प्रांत में 25 प्रतिशत अकुशल मजदूरों का वेतन 13 रु. प्रतिमाह था जबकि 50 प्रतिशत से अधिक मजदूरों को 17 रु. 8 आना मज़दूरी मिलती।

सेंट्रल प्रविंस, मद्रास, बिहार और उड़ीसा में मज़दूरों को 17 रु. 8 आना से कम वेतन मिलता था। बंगाल में 50 प्रतिशत मज़दूर 22 रु. 8 आना से कम वेतन पाते थे।

यहां तक कि मुंबई प्रांत में जहां रहन-सहन काफी महंगा था वहां भी 50 प्रतिशत मज़दूरों को 27 रु. 8 आना से कम वेतन मिलता था।

उपर्युक्त आंकड़े कुछ अच्छा वेतन पाने वाले अर्धकुशल मजदूरों के हैं। अकुशल और बाल मज़दूरों का वेतन और भी कम था।

मजदूरों की इन श्रेणियों की मज़दूरी दर के बारे में रॉयल कमीशन ऑन लेबर इन इंडिया ने कुछ दिलचस्प बातें बताईं।

पुरुषों और महिलाओं की मज़दूरी में भारी अंतर

रॉयल कमीशन के अनुसार, इस वर्ग के कुछ लोग नियमित रुप से 15 रु. प्रतिमाह पाते हैं। बहुसंख्यक मज़दूरों को आमदनी आत्यधिक कम यानी 10 रु. प्रतिमाह थी।

अकुशल मज़दूरों का बहुत बड़ा वर्ग विभिन्न कार्यों में दैनिक मज़दूरी करता है जिसे अस्थायी रुप से सीमित पारियों में काम मिलता है।

बंगाल, बिहार, उड़ीसा और सेंट्रल प्राविंस के कुछ भागों में इन मज़दूरों के पुरूषों को आठ आना, महिलाओं को 6 आना और बच्चों को चार आना प्रतिदिन मिलता है।

लेकिन मद्रास संयुक्त प्रांत और सेंट्रल प्रांविस के कुछ भागों में मजदूरी की दर बेहद कम, पुरूषों को 5 आना प्रतिदिन मिलता है।

भारतीय औद्योगिक मज़दूरों की वेतन दरों में असमानता उनकी कार्यस्थितियों में व्याप्त अव्यवस्था के रुप में दिखती है। विश्व के अधिकतर पूंजीवाद देशों में लोहा और स्टील उद्योग में मजदूरों की दर अन्य उद्योगों की तुलना में लगभग दूनी है।

लेकिन भारत में लोहा और स्टील उद्योग के मज़दूरों की वेतन दर कपड़ा उद्योग के मज़दूरों से करीब 15 प्रतिशत कम थी।

जमशेदपुर के स्टील उद्योग में मज़दूरों का मासिक वेतन 20.5 रु. से कम था। खदान मज़दूरों का वेतन बागान मज़दूरों की ही तरह बहुत कम था।

सन् 1930 में रानीगंज कोयला श्रेत्र में पुरूष मज़दूर को 12 से 16 रु. और महिला मज़दूर को 8 से 12 रु. प्रतिमाह वेतन मिलता था।

यह ध्यान देने योग्य है कि भारत के औद्योगिक विस्तार में कपड़ा उद्योग सबसे ज्यादा संगठित रूप से स्थापित था और इसकी शुरुआत से ही वहां भारतीय ट्रेड यूनियन आंदोलन भी था।

रॉयल कमीशन की रिपोर्ट में मज़दूरों की दरिद्रता

यहां पूंजीवाद शोषण के खिलाफ मज़दूर वर्ग सचेतन प्रतिरोध करते थे। इस अबाध प्रतिरोध ने इस उद्योग के मज़दूरों का तुलनात्मक रुप से अच्छा वेतन पाने योग्य बनाया।

भारतीय औद्योगिक मज़दूरों की वेतन दरों का तुलनात्मक अध्ययन करते समय इस विशेष लक्षण पर अवश्य ही ध्यान दिया जाना चाहिए।

सन् 1928 में भारत के दौरे पर आए ब्रिटिश ट्रेड यूनियन कांग्रेस के प्रतिनिधि मंडल द्वारा तैयार रिपोर्ट में भी भारतीय मज़दूरों की दरिद्रतापूर्ण स्थिति का वर्णन है।

रिपोर्ट के अन्य विषय में कहा गया है, सभी जाचों से पता चलता है कि भारत में मज़दूरों की विशाल बहुसंख्या प्रतिदिन 1 शिलिंग से ज्यादा नहीं पाते हैं।

बंगाल में औद्योगिक मज़दूरों की सबसे बड़ी संख्या है। जांचकर्ता जहां तक पता लगा सके उन्हे लगा कि 60 प्रतिशत मज़दूरों को प्रतिदिन अधिक से अधिक 1 शिंलिग और 2 पेंस से ज्यादा मिलता है।

और कम से कम सात पेंस से नौ पेंस पर पुरूषों को और तीन से सात पेंस तक महिलाओं और बच्चों को।

हमारी जांच इन आंकडों का समर्थन करती है और तथ्य यह भी है कि बहुत से मामलों में महिला मज़दूरों को 5  पेंस और पुरूषों को 7 पेंस से भी कम मज़दूरी मिली।

(भारत का मज़दूर वर्ग, उद्भव और विकास (1830-2010) किताब का अंश। ग्रंथशिल्पी से प्रकाशित)

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