अंग्रेज़ी राज में कर्ज़ से डूबे मज़दूर जब भुखमरी की हालत में पहुंच गए : इतिहास के झरोखे से-9

अंग्रेज़ी राज में कर्ज़ से डूबे मज़दूर जब भुखमरी की हालत में पहुंच गए : इतिहास के झरोखे से-9

By सुकोमल सेन

इस सबका मतलब है कि भारत के मज़दूरों द्वारा कमाया गया वेतन उनके जीवन की न्यूनतम आवश्यकता पूरी करने के लिए काफी नहीं हैं और इसलिए अपना जीवन बचाने के लिए ज्यादातर मज़दूरों के बच्चों और महिलाएं को भी काम करना होता है।

लेकन मजदूर वर्ग की जीवन स्थितियों के बारे मे जांच पड़ताल करने का कोई भी प्रयास सरकार ने नहीं किया।

कुछ प्रांतों में निर्वाह खर्च सूचकांक (कॉस्ट ऑफ़ लिविंग इंडेक्स) एकत्र करने के प्रयास किए गए लेकिन मज़दूर वर्ग के बजट संबंधी कोई भी तथ्य एकत्र नहीं किए गए।

औद्योगिक रुप से सबसे विकसित बंगाल प्रांत  में भी सरकार ने जीवन निर्वाह मूल्य सूचकांक निर्धारित करने का प्रयास नहीं किया। केवल बांबे लेबर आफ़िस ने अहमदाबाद, मुबंई और शोलापुर में मज़दूर परिवारों  के बजट की जांच की।

उपलब्ध रिपोर्ट से मज़दूर वर्ग की भयावह निम्नस्तरीय जीवन स्थितियों की जानकारी मिलती है।

बहुत ही अपर्याप्त भोजन और समुचित स्वास्थ्य सेवाओं के आभाव में वह गंभीर बीमारियों का शिकार होते हैं इससे मृत्युदर बढ़ती है। ऐसे हालात में मज़दूर वर्ग के परिवारों में शिक्षा पर व्यय की बात कल्पना से परे है।

वेतन का एक चौथाई हिस्सा कर्ज़

इसलिए बीसवीं सदी के दूसरे और तीसरे दशक में मज़दूर वर्ग का शैक्षिक और सांस्कृतिक स्तर बुरी तरह से पिछड़ा था और निकट भविष्य में इसके सुधार की कोई संभावना नहीं थी।

इस भयानक हालात का अंत यहीं नहीं होता। इन असामान्य रुप से कम मज़दूरी की दरों के परिणामस्वरूप आर्थिक दरिद्रता से मज़दूर वर्ग भारतीय किसानों की तरह निरंतर कर्ज के जाल में फंसते जाते।

भारतीय किसानों पर कर्ज का बोझ निश्चय ही काफी भारी था लेकिन मज़दूर वर्ग का बोझ भी नकारा नहीं जा सकता।

कमीशन ऑन लेबर इन इंडिया की रिपोर्ट ने इस ओर चिह्नित किया कि अधिकांश औद्योगिक मज़दूर कर्ज में डूबे हैं।

उनकी ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा, परिवार और व्यक्ति जिन पर कर्ज़ है वह कुल संख्या का दो तिहाई भाग है। बाद की एक जांच में यह तीन चौथाई आंका गया। कमीशन ने आगे कहा, ‘हमें विश्वास है कि अधिकांश मामलों में कर्ज की राशि तीन माह के वेतन से भी अधिक होती है।’

कभी-कभी तो यह कर्ज़ इससे बहुत ही ज़्यादा हो जाता था। एक वर्ष में वेतन का चौथा हिस्सा कर्ज का एक बड़ा बोझ है; खास कर उस आदमी के लिए जिसकी आमदनी अपनी न्यूनतम आवश्यकता से भी कम हो।

लेकिन कर्ज का यह बोझ, ब्याज की अत्यधिक दर के कारण और बढ़ जाता है। ब्याज की सामान्य दर, एक आना है।

150% ब्याज़

यह दर 17% वार्षिक है जबकि चक्रवृध्दि ब्याज नहीं लगा है..इससे भी अधिक दर पर भी ब्याज वसूला जाता। 150% या इससे अधिक वार्षिक ब्याज भी असामान्य नहीं है।

जब मजदूरों को ऐसी अपमानजनक जीवन स्थितियों के लिए अपराधी ठहराया जा रहा तभी मुनाफे की कमी बताकर मिल मालिकों ने मज़दूरों पर अपना हमला किया।

इस महले को ठीक ठहराते हुए इंडियन टेक्सटाइल टैरिफ़ बोर्ड की 1927 में प्रकाशित रिपोर्ट में अप्रत्यक्ष रुप से मज़दूरी घटाने के तरीके बताए गए।

इस बुरे समय में एन.एम. जोशी ने उक्त टैरिफ़ बोर्ड को दिए ज्ञापन में कुछ कम मुनाफ़ और अपनी ऐश में कुछ कम करने के लिए कहा।

लेकिन इसका मतलब है मुंबई के मिलों में कार्यरत 1,50,000 मजदूरों की बरबादी और भुखमरी। वास्तव में मिल मालिक मुनाफ़े की समस्या से नहीं जूझ रहे थे बल्कि उनके सर्वोच्च मुनाफे में कुछ कमी आ रही थी।

इसी प्रकार बंगाल के जूट मिल मालिकों ने मज़दूरों का वेतन झपटने के लिए धूर्ततापूर्ण प्रयास किया।

उन्होंने सप्ताह में कुल काम के घंटे घटा दिए, 10 प्रतिशत तकुओं को बंद कर दिया और मज़दूरों के वेतन में एक आने से लेकर कुल वेतन के 15 प्रतिशत तक की कटौती लागू कर दी।

कुल वेतन का आठ गुना मुनाफ़ा

यह अजीब है कि जूट मिल मालिकों ने इस आर्थिक हमले की योजना बनाई और मज़दूरों पर लागू कर दी जबकि सन् 1925 में दंड़ी जूट ट्रेड यूनियनों के प्रतिनिधि मंडल की रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय जूट उद्योग ने वेतन बिल की राशि से आठ गुना अधिक मुनाफ़ा कमाया।

मज़दूरों पर हमले की इस योजना में रेल मज़दूर भी नहीं छोड़े गए।

सन् 1926 में सर वेसेंट रावेन के नेतृत्व में गठित स्टेट रेलवे वर्कशाप कमेटी ने बड़े पैमाने पर रेलवे मज़दूरों की छंटनी की सिफारिश की। इसके प्रभाव से 75,000 रेलवे मज़दूर सीधे छंटनी का शिकार होते थे।

रेलवे मज़दूरों में लंबे अरसे से अनसुलझी समस्याओं के कारण काफी असंतोष पहले से ही व्याप्त था।

अपर्याप्त वेतन, न्यूनतम वेतन की मांग को ठुकराना, यूनियनों को मान्यता न प्रदान करना और यूरोपीय आधिकारियों द्वारा भारतीय मजदूरों का अपमान और ऐसे ही अनेक मुद्दे पहले से ही पड़े थे।

वेसेंट रावेन कमेटी की अधोगति वाली सिफारिशों ने मजदूरों में और उत्तेजना फैला दी।

मज़दूरों की इस असहनीय स्थिति को देशी और विदेशी पूंजीपतियों के हमले ने और उत्तेजित कर दिया और इसके बाद साम्राज्यवाद सरकार की औपनिवेशिक मज़दूर नीति ने स्थिति को और भी बिगाड़ दिया।

परिणामस्वरुप मुंबई के सूती उद्योग, बंगाल के जूट उद्योग, जमशेदपुर में स्टील उद्योग, रेलवे और अनेक दूसरे उद्योगों के मज़दूरों में सुलग रहा असंतोष देशव्यापी, व्यापक हड़ताल के रुप में शीघ्र ही फूट पड़ा।

(भारत का मज़दूर वर्ग, उद्भव और विकास (1830-2010) किताब का अंश। ग्रंथ शिल्पी से प्रकाशित)

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