क्या भाजपा राज में ट्रेड यूनियनें और लेबर एक्टिविस्ट ‘अर्बन नक्सल’ हो गए हैं?
वैसे तो कोई भी सत्ता ‘किसान-मज़दूर हितैषी’ नहीं होती, हालांकि वो इन्हीं दो वर्गों के कंधों पर टिकी रहती है। वाबजूद इसके कोई भी सत्ता इनकी परवाह नहीं करती, हर दल इनके नाम पर अपनी राजनीति करता है।
लेकिन भाजपा और विशेषकर मोदी राज में मज़दूर–किसान की बदतर हुई है। आर्थिक बदहाली के साथ इन पर अत्याचार और पुलिसिया दमन आज अपने चरम पर है।
हक़ मांगने और सवाल करने वालों को इस सरकार में या तो देशद्रोही करार दिया जाता है या नक्सली (अर्बन नक्सली)।
कवियों, लेखकों, पत्रकारों और विश्वविद्यालय के छात्रों से निपटने के सरकारी तरीक़ों में इसकी बानगी देखी जा सकती है।
लेकिन एक बहुत कम प्रचारित तथ्य ये भी है कि इस सरकार ने ट्रेड यूनियनों और ट्रेड यूनियन एक्टिविस्टों पर भी इसी फॉर्मूले को आजमा रही है।
मज़दूरों कर्मचारियों के ख़िलाफ़ ‘एस्मा’ हथियार
पिछले चार वर्षों के ऐसे कई प्रमाण और उदाहरण उपलब्ध हैं।
ब्रिटिश उपनिवेशवाद के समय अंग्रेजी शासन द्वारा बनाए गए मज़दूर विरोधी कानून आज भी लागू हैं।
बीजेपी शासन के तहत, लेबर से जुड़े मुद्दे भी तेजी से मानवाधिकार के मुद्दे बन रहे हैं।
क्या यह कल्पना की जा सकती है कि 21 वीं शताब्दी में भारतीय राज्य औपनिवेशिक काल के ब्रिटिश कानूनों को लागू कर सौ साल पीछे जा सकता है?
इसका जवाब शायद ‘हां’ में मिलेगा।
कुख्यात औपनिवेशिक कानून के तहत अदालतें किसी भी हड़ताल के ख़िलाफ़ आदेश जारी कर सकती हैं।
श्रमिकों पर ईएसएमए (एस्मा) लगाने वाली सरकारों की हम सूची बना सकते हैं।
सरकारों ने एस्मा कानून लगा कर मजदूरों पर हमले किए।
रिलायंस एनर्जी में यूनियन बनाने वाले ‘माओवादी’ बता दिए गए
मारुति सुजुकी के 13 कर्मचारी, ग्रेटर नोएडा में एक ऑटो कंपनी ग्राज़ियानो के चार वर्कर और प्रिकोल, कोयंबटूर के दो कर्मचारी आजीवन कारावास काट रहे हैं।
उन पर हिंसा की साजिश का आरोप लगाया गया, ऐसी हिंसा जिसमें सीईओ या प्रबंधन के कर्मचारी की मौत हो गई।
इस सूची में रिलायंस एनर्जी के 8 श्रमिकों का मामला भी है, जो जेल में हैं।
यूएपीए कानून के तहत कथित तौर पर माओवादियों के साथ संबंधों के लिए उन पर केस किया गया था।
ये सभी रिलायंस एनर्जी के ठेका कर्मचारी थे। रिलायंस एनर्जी जिसे पहले बॉम्बे उपनगरीय विद्युत आपूर्ति इकाई के रूप में जाना जाता था और बाद में मुंबई में रिलायंस इन्फ्रा के नाम से जाना जाने लगा।
इनकी सेवाओं को 10 से 15 साल तक काम करने के बाद भी परमानेंट नहीं किया गया था।
भीमा कोरेगांव मामले में 8 वर्करों पर माओवादी समर्थक होने का आरोप लगा
समान काम करने के बावजूद ठेका कर्मियों को नियमित वर्करों के मुकाबले केवल 40% भुगतान मिलता था।
इन स्थितियों में 2005 में यहाँ के कर्मचारियों ने एक यूनियन का गठन किया ताकि ‘समान काम समान वेतन’ के लिए लड़ा जा सके।
ऐसे कई और मामले हैं। जनवरी 2018 में भीमा-कोरेगांव दलित प्रतिरोध के साथ एकजुटता दिखाने के आरोप में 8 श्रमिकों को आतंकवादी निरोधक कानून के तहत गिरफ्तार किया गया।
उनपर भी माओवादी समर्थक होने का आरोप लगाया गया।
न्यूज़ पोर्टल ‘द लीफ़लेट’ पर 19 नवम्बर 2018 को बी शिवारमण की एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी।
उस रिपोर्ट के अनुसार, भाजपा सरकार में अब ‘अब ट्रेड यूनियन’ भी ‘अर्बन नक्सल’ हैं।
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