रेलवे कभी सरकार की ज़िम्मेदारी थी, अब बिकाऊ प्रॉपटी है

रेलवे कभी सरकार की ज़िम्मेदारी थी, अब बिकाऊ प्रॉपटी है

By आशीष आनंद

भारत को अंग्रेज़ी हुकूमत से आजादी मिलने के बाद कभी पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, ‘रेलवे हमारा सबसे बड़ा राष्ट्रीय उपक्रम है और रहेगा।’

उनके शब्दों में, “ये उपक्रम देश के लाखों लोगों के आराम और सुविधा का ख्याल बहुत आत्मीयता से रखता है। इसके साथ कर्मचारियों की बहुत बड़ी संख्या जुड़ी है, जिसके कल्याण की हमेशा फिक्र होना चाहिए। राष्ट्रीय स्वामित्व वाली रेलवे महज महत्वपूर्ण संपत्ति नहीं है, बल्कि महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी है।”

आज देश के पूंजीपति रेल को खरीदने को लालायित हैं, लेकिन आजादी मिलने के समय देश के पूंजीपतियों को यही बेहतर लगा था कि इतना बड़ा काम जनता के पैसे से सरकार ही कर सकती है।

उनकी हैसियत नहीं थी कि वे चलती हुई रेलवे के चक्के घुमाने का भी काम अंजाम दे सकें।

बहरहाल, मजबूरी में बनाया गए कल्याणकारी राज्य की मंशा के अनुरूप रेलवे ने कभी गंगा के एक घाट से दूसरे घाट के स्टेशन को पहुंचाने को स्टीमर चलाया।

काठगोदाम से नैनीताल के बीच तांगा चलवाया या फिर ट्रेन की बोगी में भी पुस्तकालय खुलवा दिया।

तीन दशक पुरानी यादों को जहन में टटोला जाए तो बहुत सी यादगार बातें मिल जाएंगी।

फिलहाल, रेलवे में होने वाला बदलाव एकदम उलट तस्वीर है। जैसे रेलवे अब राष्ट्र की ‘महत्वपूर्ण जिम्मेदारी नहीं, बल्कि महज बिकाऊ संपत्ति है’।

यात्रियों को मिलने वाली सुविधा एहसान की तरह जताए जा रहे हैं और हर सुविधा पर अतिरिक्त शुल्क हनक के साथ वसूलना ही राष्ट्रवाद माना जा रहा है।

पहली निजी ट्रेन ‘तेजस’ के ट्रैक पर दौड़ना शुरू कर चुकी है, उसका हाल भी अब मुसाफिर से लेकर ठेके पर काम करने वाले कर्मचारी तक जान चुके हैं।

जल्द ऐसी ही ट्रेनों को दौड़ाने और स्टेशनों के भी निजी होने की प्रक्रिया शुरू हो गई है।

ट्रैक की मरम्मत से लेकर बिकाऊ सामान की तरह कई स्टेशनों को सजाने का काम चालू है।

ऐसा उस रेल के इतिहास में हो रहा है, जिसने भारत में पहले उद्योग का दर्जा हासिल किया, जिसने किसानों को ज़मीन का बंधुआ होने से बचाकर मुक्त श्रमिक बनाया, जिसने देश को एक कोने से दूसरे कोने से जोड़ा, जिसने जाति, धर्म के बंधनों को तोडऩे में मदद की।

जिसने देश को गुलामी की जंजीरें तोड़ने में ऐतिहासिक भागीदारी की, जिसने लाखों परिवारों को व्यवस्थित जिंदगी जीने का मौका दिया।

और इसी ने कितनी ही सत्ताओं, सरकारों के आने-जाने की परवाह किए बगैर अपना सफ़र जारी रखा।

पीढिय़ों के खून-पसीने से जारी रहा रेल सफ़र

भारतीय रेल का करोड़ों लोगों को ‘पीठ पर लादकर’ दिनरात का ये सफ़र तब ही जारी रह सका, जब कई पीढिय़ों के करोड़ों लोगों का खून-पसीना इसमें शरीक हुआ और जिन्होंने इस सफ़र के लिए जान भी दी और सैनिकों की तरह मोर्चा संभाले रहे।

हर साल दर्जनों की तादात में ट्रैकमैनों ने ज़िंदगी खोई, तो ‘ट्रेन का ब्रेन’ कहे जाने वाले एक-एक कंट्रोलर ने दो-दो दर्जन ट्रेनों का सफल संचालन कराके करोड़ों लोगों की जान बचाई।

आज वही रेल अपने कर्मचारियों और उसके मुसाफिरों से मानो कह रही है, ‘ये आपकी संपत्ति नहीं, जिसकी आपको रक्षा करना है, ये तो पराई हो रही है, जिसको कैसे चलना है, उसका मालिक तय करेगा।’

अब किसी को शायद फुर्सत नहीं होगी कि ‘अ गर्ल विद अ बास्केट’ जैसी कहानी लिखे, ‘हम वहशी हैं’ जैसे सफ़र के दर्द को महसूस कराए।

कई देशों से बड़ी भारतीय रेल

‘जीवन रेखा’ कही जाने वाली रेलवे की यात्रा बताती है कि ये कई देशों से बड़ा ‘देश’ है। अपनी आबादी, संस्कृति और इतिहास के हिसाब से भी।

इसका एक हिस्सा बिकना भी देश का हिस्सा बिकने जैसा है। भारतीय रेल का इतिहास कोई पढ़े तो उसे आधुनिक भारत के इतिहास की 90 फीसद समझ आ जाएगी।

रेल ने देश में ‘एकजुटता और संघर्ष’ के सफ़र में मील के पत्थर गाड़े हैं।

119 साल पहले बनी सरकारी कंपनी

1845 में, सर जमशेदजी जेजेभॉय के साथ जगन्नाथ शंकर सेठ ने इंडियन रेलवे एसोसिएशन का गठन किया। वर्ष 1900 में रेलवे ब्रिटिश राज की सरकारी स्वामित्व वाली कंपनी बन गई।

वर्ष 1901 में प्रारंभिक रेलवे बोर्ड का गठन हुआ, जो वाणिज्य और उद्योग विभाग के अधीन था और इसमें एक सरकारी रेलवे अधिकारी बतौर अध्यक्ष हुआ करता था।

इसके अलावा इंग्लैंड से एक रेलवे प्रबंधक और अन्य दो सदस्यों के रूप में कंपनी के एजेंट थे।

विरासत में मिला कामचलाऊ नेटवर्क

1947 में आज़ादी के बाद, भारत को कामचलाऊ रेल नेटवर्क विरासत में मिला। लगभग 40 फीसदी रेलवे लाइनें नए बने पाकिस्तान में थीं।

कई लाइनों को भारतीय क्षेत्र के माध्यम से फिर से जोड़ा जाना था। पूर्व भारतीय रियासतों के स्वामित्व वाली 32 लाइनों सहित कुल 42 अलग-अलग रेलवे सिस्टम 55 हजार किलोमीटर सीमा में मौजूद थे।

1952 में मौजूदा रेल नेटवर्क को ज़ोन में बदलने का निर्णय लिया गया। तब कुल छह जोन अस्तित्व में आए।

जैसे-जैसे भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था विकसित की, लगभग सभी रेलवे उत्पादन इकाइयां स्वदेशी निर्माण करने लगीं।

रेलवे ने अपनी लाइनों को बदलना शुरू कर दिया। छह सितंबर 2003 को मौजूदा ज़ोन से छह और जोन बनाए गए और 2006 में एक और जोन जोड़ा गया। भारतीय रेलवे में अब कोलकाता मेट्रो सहित सत्रह ज़ोन हैं।

अनचाहे पढ़ा दिया सामूहिकता का पाठ

रेलवे अंग्रेजों के लिए फायदे का सौदा था। रेल कच्चे माल को देशभर से ढोकर इंग्लैंड का खजाना भरने के काम में लग गई। चाहे-अनचाहे बहुत से लोगों को भी दूसरे क्षेत्रों में जाने का मौका मिला, मज़दूर बतौर ही सही।

बाद में यात्री गाड़ियों की भी शुरुआत हुई और बड़ी संख्या में रेल संचालन से लेकर रखरखाव में लोगों को इस उपक्रम में रोजगार मिला।

बेशक, हालात बहुत विपरीत थे, लेकिन सामूहिकता का पाठ भी तो पढऩे को मिला। ये सामूहिकता दो दशक पहले तक रेलवे कॉलोनियों की आवोहवा में समाई थी।

एक ज़माने में यही रेल विदेशी हुकूमत के खिलाफ लामबंदी का जरिया ही बन गई।

क्रांतिकारियों का काकोरी केस, भगत सिंह का हुलिया बदलकर रेल से जाना, महात्मा गांधी का देशभर में भ्रमण, अन्य नेताओं का भी इसी तरह गोलबंदी का प्रयास ट्रेन यात्रा से ही सुगम हो पाया। (दूसरी कड़ी रविवार के अंक में पढ़ें….)

(सभी तस्वीरें पूर्वोत्तर रेलवे के आर्काइव से साभार)

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ashish saxena