क्यों इस बार मई दिवस पर सिर्फ काम के घंटे पर चर्चा बेमानी है – नज़रिया
By आशीष सक्सेना
कोरोना वायरस की महामारी ने सभी की दुनिया और समाज के बारे में समझदारी बढ़ा दी है। तमाम गलतफहमियों और खुशफहमियों को दूर कर सच्चाई से रूबरू कराया है। मई दिवस इस बार पारंपरिक या आनुष्ठानिक रूप से भी मनाया जाना मुमकिन नहीं रह गया है। इसकी वजह सरकारी सख्तियों से ज्यादा, मन में बैठा संक्रमण और मौत का खौफ है।
वहीं हजारों मजदूर, जिनके लिए इस दिन के खास मायने बनते हैं, वे इस दिन से बेखबर या तो गांव पहुंच चुके हैं या फिर हजार मुश्किलों के साथ अभी भी सफर में हैं। उनके लिए काम के घंटों के लिए संघर्ष का इतिहास याद करने में फिलहाल खास दिलचस्पी नहीं है। उससे ज्यादा उनके लिए मौजूदा और भविष्य में जिंदगी का बाकी हिस्सा जीना चुनौती बन गया है।
मतलब, उनके लिए संघर्ष का वास्तविक मुकाम काम के घंटों से कहीं ज्यादा हो चुका है। ये अलग बात है कि मजदूरों की इस ऊर्जा, साहस और अनुशासन के दम पर बेहतर संघर्ष की शुरुआत की जगह, हालात पर विलाप या फिर किसी तरह जिंदा रहने की जुगत पर जोर दिया जा रहा है।
इस बार के मई दिवस पर सवाल ही ये बन जाता है कि कार्य परिस्थितियों के एजेंडे को लेकर बात उतनी जरूरी नहीं रह गई है, जितना की व्यवस्था परिवर्तन के सवालों पर बात और उस अनुरूप कार्यवाही में तत्काल उतरने की।
प्रवासी मजदूरों के वापस फिर गांवों में पहुंचने के दो मतलब निकलते हैं। एक तो ये कि इन मजदूरों के पास खोने के लिए अभी बहुत कुछ बाकी है। ये अभी वो मजदूर नहीं जिनके पास खोने के लिए सिर्फ गुलामी की बेडिय़ां हों।
उनके पास ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था और गांव के सामंती जीवन को जीने का आकर्षण अभी मौजूद है। ये अगर आकर्षण नहीं तो उससे नफरत भी नहीं है।
अलबत्ता, वे शहर और उद्योग से बहुत कुछ सीखकर पहुंचे हैं गांव, वो भी अकेले नहीं, जत्थों में।
समूह में बिना जाति-धर्म भेद के रहना, खाना और रोजमर्रा के जीवन में सहयोग की सीख, अनुशासन में रहकर जीने की सीख, सामूहिकता के दम पर काम और अच्छा जीवन जीने की इच्छा के साथ मेहनत।
प्रवासी मजदूरों की बहुत सी आबादी अब वापस शहरों में नहीं लौट सकेगी। सरकार और उसके बेशर्म नीति निर्माता मजदूरों को गुलाम बनाने की जरूरत खुलेआम बता रहे हैं। जबकि ऐसे तमाम नियम कायदे पहले ही बदले जा चुके हैं, जिससे मजदूरों को कुछ राहत मिलने की उम्मीद बनती थी। ऐसे में ये प्रवासी मजदूर गांवों में कैसे गुजारा करेंगे।
इसका रास्ता दिखाई देता है मजदूरों के इतिहास से। माक्र्सवाद के आधार पर सोवियत संघ, चीन, क्यूबा आदि में कृषि को सामूहिक तरीके से हाथ में लेकर तरक्की का रास्ता अपनाया गया। भारत में बाबा साहब भीमराव आंबेडकर का भी मानना रहा है कि जाति व्यवस्था को छिन्न भिन्न करना है तो परंपरागत ग्रामीण अर्थव्यवस्था को छिन्न भिन्न कर आधुनिक बनाना होगा, सामूहिक खेती के जरिए ये काम करना होगा।
असल में ये दार्शनिक नजरिए समस्या का वास्तविक हल निकाल सकते हैं। आज की स्थितियों में गांव मूलत: किसानों की जगह मजदूर बहुल नजर आ रहे हैं। गांवों में पहले से मौजूद भूमिहीन और खेतिहर मजदूरों की तादाद जोड़कर तो उनसे बड़ी कोई संख्या बनती ही नहीं है।
ऐसे में गांवों को उद्योग से सजाने का वक्त है, खेती को आधुनिक बनाने के साथ पुरातन सामाजिक ढांचे को तोडऩे के आंदोलन चलाने का समय है। बड़े फार्म का राष्ट्रीयकरण कर मजदूरों के हाथ में देकर औद्योगिक उत्पादन होना चाहिए।
गांवों की छोटी खेतियों से मेढ़ हटाकर सामूहिक तरीके से पैदावारी किया जाना चाहिए। जाहिर है, सफलता हासिल करने को जाति और धर्म के भेदभाव को तोडऩा होगा। बेबसी में लौटे मजदूर इस बात को बखूबी समझते हैं और समझा भी सकते हैं।
शहर के मजदूरों को भी कल कारखानों के राष्ट्रीयकरण, निजीकरण की नीति पूरी तरह रद करने, बैंकों का कर्ज न लौटाने वाले कारपोरेट घरानों की संपत्ति जब्त करने, श्रमिक कानून बहाल करने को बिगुल फूंकना चाहिए।
कोरोना वायरस को लेकर गलतफहमियां दूर होना चाहिए। एकजुटता और संघर्ष से समाज बेहतर बनता है, घरों में बैठकर मौत की घडिय़ां गिनने से नहीं।
दुनिया की कोई भी सरकार मानवता बचाने के लिए गंभीर है, ऐसा सोचा भी कैसे जा सकता है। बीते कुछ ही महीने पहले तक हथियों के सौदों से लेकर कई देशों को युद्ध में झोंकने वाली ताकतें मानवता की रक्षा की बात भी कैसे कर सकती हैं।
जो व्यवस्था मानवता के खिलाफ खड़ी है, वह समाज को किसी महामारी से बचा ही नहीं सकती। वह सिर्फ मजबूरी, भूख और लाचारी का फायदा ही उठा सकती है। खौफ का कारोबार खड़ा कर सकती है।
इतिहास में दर्ज महामारियों से लेकर संघर्ष और बदलाव की दास्ताने यही सबक देती हैं। मई दिवस के मौके पर करुणा के आंसू बहाने और राहत सामग्री बांंटने में लगी ट्रेड यूनियनों और मजदूर संगठनों को इस चुनौती को हाथ में लेने की जरूरत है।
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