भारत महिलाओं के लिए दुनिया का सबसे खतरनाक देश: अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष
By चेतना पाटनी
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च) की शुरुआत आज से तकरीबन 110 साल से पहले साल 1910 में हुई थी। इंटरनेशनल वुमन्स डे की शुरुआत का श्रेय क्लारा जेटकिन को जाता है। क्लारा का जन्म जर्मनी के सैक्सोनी प्रान्त के एक छोटे से गांव विडियेरु में 5 जुलाई 1857 को हुआ था। वह अपने समय में महिलाओं के अधिकारों को लेकर सक्रिय रहा करती थीं। क्लारा एक सामाजिक कार्यकर्ता और मार्क्सवादी चिंतक थीं।
महिला दिवस का सुझाव क्लारा ने एक इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस में दिया था जो कामकाजी औरतों के लिए आयोजित की गई थी और इसमें करीब 17 देशों की 100 से अधिक महिलाएं मौजूद थीं। 1910 में इसी कॉन्फ्रेंस में क्लारा जेटकिन ने पहली बार इंटरनेशनल वुमेन्स डे मनाने का सुझाव दिया था।
1908 में एक मजदूर आंदोलन से उपजा ये आंदोलन महिलाओं द्वारा एक बेहतर वेतन और मतदान के अधिकार को हासिल करने के लिए न्यूयॉर्क शहर में हज़ारों की भीड़ के साथ निकला एक मार्च था।
भारत में उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के शुरुआत में अनेक महिला आंदोलनों की शुरुआत हुई। लेकिन अफ़सोसजनक बात यह है कि भारत में हुए महिला आंदोलनों का विस्तृत कोई इतिहास नहीं मिलता।
वर्जिनिया वुल्फ़ ने एक जगह लिखा है कि “इतिहास में जो कुछ भी अनाम है, वह औरतों के नाम है।” ऐसे ही “सिमोन द बोबुआर” कहती हैं कि “मात्र वर्ग संघर्ष के द्वारा ही स्त्री -मुक्ति के महान लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता है, चाहे साम्यवादी हो, माओवादी हों, या ट्रस्टवादी औरत हर जगह हर खेमें में अधीनस्थ की स्थिति में सबसे निचले पायदान पर खड़ी है।”
देश दुनिया के स्तर पर हर साल महिला दिवस पर एक थीम चुनी जाती है ताकि आने वाले समय में स्त्री-पुरुष की असमानताओं को ख़त्म किया जा सके। 1996 में शुरू की गई अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की पहली थीम थी “सेलीब्रेटिंग द पास्ट, प्लानिंग फ़ॉर द फ्यूचर” और इस साल 2022 की थीम है “जेंडर इक्वलिटी टुडे फ़ॉर शुटेबल टुमॉरो” है।
हम पिछले 27 सालों से महिलाओं के अधिकारों, उनके ख़िलाफ़ होने वाली हिंसाओं, समानता, शिक्षा हासिल करने, उन्हें सशक्त करने आदि के जो भी क्षेत्र हैं, जिनमें पुरुष अपनी उपलब्धि दर्ज करा चुकें हैं या उस ओर अग्रसर हैं, उनमें महिलाओं को शामिल करने के लिए लगातार संघर्ष जारी है। ये विषय हर साल ऐसे ही जुड़ते रहेंगे और आने वाले समय में हमारी कोशिशों और असफ़लता की लंबी कहानी कहते रहेंगे।
इसी तरह हम लैंगिग समानता की बात करते हैं कि पुरुष एव महिलाओं को हर क्षेत्र में चाहे वो घर हो या दफ़्तर प्रत्येक क्षेत्र में काम करने, चाहे वो मानसिक कार्य हो या किसी भी तरह का शारीरिक कार्य समान रूप से दोनों को प्राथमिकता देनी चाहिए लेकिन हमारे देश में महिलाओं के श्रम को अनदेखा करने का चलन सा बना हुआ है।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ILO की रिपोर्ट के अनुसार पूरी दुनिया मे 41 करोड़ पुरुषों की तुलना में 606 करोड़ महिलाएं पूरे समय घर के काम, बच्चों की देखभाल, बुजुर्गों की सेवा आदि कार्य करती हैं। जिनके बदले उन्हें कोई वेतन कोई अवकाश नहीं मिलता है।
ऐसे ही “यूनिसेफ (UNICEF)” की रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है कि “विश्व स्तर पर जन्म के समय लड़कियों के जीवित रहने की संख्या औसनत अधिक है साथ ही साथ उनका विकास भी व्यवस्थित रूप से होता है। उन्हें प्री स्कूल भी जाते पाया गया है जबकि भारत एकमात्र ऐसा बड़ा देश है जहाँ लड़कों के अनुपात में लड़कियों का मृत्यु दर अधिक है उनके स्कूल न जाने या बीच में ही किन्हीं कारणों से स्कूल छोड़ने की प्रवृत्ति अधिक पाई गयी है।”
2012 की थीम के अनुसार “ग्रामीण महिलाओं के सशक्तिकरण व ग़रीबी और भूख के अंत” की बात पर जोर दिया गया था, लेकिन भारत 116 देशों के वैश्विक भुखमरी सूचकांक (GHI) 2021 में गिरकर 101वें स्थान पर पहुँच चुका है, जिसमें वह अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल से भी पीछे चला गया है। वर्ष 2020 में भारत 94वें स्थान पर था।
अब यदि हम ग्रामीण महिलाओं की सशक्तिकरण की बात को इन तथ्यों से जोड़कर देखा जाए तो जब तक एक देश गरीबी और भुखमरी जैसी महामारी से ग्रस्त हो वह देश सशक्त कैसे हो सकता है।
2020 में हुए एक शोध के अनुसार, दुनिया भर में प्रत्येक तीन महिलाओं में से एक अपने साथी की हिंसा झेलती है। इस हिंसा की आर्थिक लागत वैश्विक जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) की 1% से 4% तक है।
संयुक्त राष्ट्र वुमन ने कोविड-19 महामारी एवं इससे जुड़े लॉकडाउनों के दौरान महिलाओं के खिलाफ हिंसा में वृद्धि को “आभासी महामारी” (यूएन महिला, 2020) के रूप में संदर्भित किया था।
2020 में आये एक नए शोध में रवींद्रन और शाह बताते हैं कि “भारत को महिलाओं के लिए दुनिया के सबसे खतरनाक देश का दर्जा दिया गया है।”
वहीं 2021 में आयी राष्ट्रीय महिला आयोग द्वारा जारी की गयी रिपोर्ट बताती है कि “2014 के बाद महिलाओं के ख़िलाफ़ बड़े अपराधों में सबसे ज्यादा इज़ाफ़ा हुआ है।” साल 2014 में कुल 31,000 शिकायतें प्राप्त हुई थी जो 2021 में बढ़कर 33,906 तक पहुँच गई हैं।
घरेलू हिंसा से पीड़ित को हो रही पीड़ा, उनकी चिकित्सा का बिल, उत्पादकता खोना, न्यायिक व्यय तथा विकृत अपराधी से खोई हुई उत्पादकता के कारण अर्थव्यवस्था गंभीर रूप से प्रभावित होती है। बीबीसी की 2014 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार “भारत में हर पांच मिनट में घरेलू हिंसा की एक घटना दर्ज की जाती है।” (जो निश्चित रूप से वास्तव में होने वाली घटनाओं का केवल एक छोटा अंश है।)
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा भारत में अपराध पर 2017 की रिपोर्ट के अनुसार 2017 में यौन उत्पीड़न और बलात्कार के 33,658 मामले सामने आए हैं। 2012 के दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामले के सात वर्षों बाद भी बहुत कम बदलाव आया है।
लेबर फ़ोर्स पार्टिसिपेशन (एलएफपी) के मामले में स्त्री-पुरुष के बीच काफी अंतर होना भारतीय श्रम बाजार की खास पहचान बन चुका है।
वर्ष 2011-12 में काम की उम्र (15 से 65 वर्ष) वाली 20 प्रतिशत भारतीय शहरी महिलाएं ही काम कर रही थीं या काम की सक्रियता से तलाश कर रही थीं। पुरुषों के मामले में यह आंकड़ा 81 प्रतिशत था। इसके विपरीत, 2012 में श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी अमेरिका में 68 प्रतिशत, यूके में 71 प्रतिशत, स्वीडन में 78 प्रतिशत और जर्मनी में 72 प्रतिशत थी।
अर्थशास्त्रियों ने इस बात का अनुमान लगाया है कि हिंसा का शिकार होने जैसी कम आशंका वाली घटनाओं का महिलाओं के व्यवहार पर बड़ा प्रभाव कैसे पड़ सकता है (बेकर एवं रूबीन्सटीन 2011)। इसके पीछे यह विचार है कि अगर महिलाओं के लिए बाहरी काम करने का अत्यधिक परिणाम, हिंसा का शिकार होने के रूप में, प्रमुख हो जाता है, तो इससे भय पैदा होता है और उनकी खैरियत पर बुरा असर पड़ता है।
भारत देश जिसने सैद्धान्तिक रूप से इस बात को स्वीकार किया है कि महिलाओं को स्वतंत्रता, समानता का सर्वोच्च दर्जा दिया गया है उन्हें पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त है। लेकिन इन सब बातों के उलट आज वही देश महिलाओं की सुरक्षा, स्वतंत्रता और समानता के दृष्टिकोण से सबसे पिछड़ा नजर आता है। वर्तमान समय मे ये सभी तथ्य, तर्क, आंकड़ों को सामने रख कर निष्कर्ष निकाला जाए तो सभी स्थितियाँ विपरीत दिशा में जाती हुई नज़र आ रही हैं।
आधुनिक समय में महिलाओं को नेतृत्व में रख समान भविष्य की बातें कही जा रही हैं, उसको धरातल पर आने में शायद हमें अभी सदियां लगेंगी, जब तक महिला -पुरुष को दो अलग-अलग मापदंडों पर नहीं नाप कर एक समान मनुष्य के रूप में नहीं देखा जाएगा तब तक हमारा ये समाज, देश और दुनिया समान भविष्य का यह ऐतिहासिक दिन शायद कभी नहीं देख पाएंगे।
(चेतना पाटनी – शोध विधार्थी व सोशल एक्टिविस्ट)
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बहन आपको महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाए, आपने भारतीय महिलाओं के बारे में बहुत अच्छा शोध लिखा है ! मेरे भी कुछ मत है अपने देश की माताओ और बहनों के लिए जो मुझे केवल अपने ही देश मै देखने को मिला !
1. धार्मिक पहलू : भारत ही एक मात्र देश है,जहाँ महिला के नाम के बाद “देवी” लिखा जाता है, जहाँ तक मुझे पता है,पुरूषों को शायद ये अधिकार नही है! एक मात्र देश है जहाँ जहाँ सदियों से माता को सबसे उपर रखा गया है, देवियोम की पूजा की जाती हैं ….. शिक्षा की देवी “सरस्वती माँ”….. धन की देवी “लक्ष्मी माँ” ….न्याय की देवी “पार्वती माँ”/काली माँ… और “माँ आदिशक्ति” तीनों देवताओं (ब्रह्मा/विष्णु/महेश’शिव’) की माता है…… भारत में विवाह के दौरान महिला को देवी के समान ही सम्मान से ले जाया जाता है और सारा धन के प्रयोग का जिम्मा महिला का होता है ….लेकिन निजी पारिवारिक मुद्दे जिसमें महिला का शोषण देखने को मिलता है….मगर ये सोचने वाला विषय है कि क्या इसमें ‘भारत’ जिम्मेदार है या निजी परिवार,हो सकता है और कोई निजी वजह हो ?
2.सामाजिक पहलू : वर्तमान मै “आजादी के बाद”हालात सुधरे है जैसे- शिक्षा/खेल/विज्ञान/सिनेमा/राजनिती …..आदि मै महिलाओं का योगदान बढ़ रहा है, …..मगर सोचने वाला विषय यह है कि “क्या महिला स्वंय आना चाहती है या वे स्वयं ही नही आना चाहती, ये शोध का विषय भी है,वर्तमान मै महिलायें पढ़ तो रही है मगर विवाह के बाद नौकरी आदि में बहुत सारी महिलायें रूचि नही ले रही, हो सकता है कोई नीजी समस्या हो” ?
3.आर्थिक पहलू: भारत मै माता-पिता स्वयं ही पुत्र को ज्यादा धन लुटाते दिखते है…..सोचने वाला विषय यह है कि “क्या इसमें ‘भारत’ दोषी है या भारतीय माता-पिता स्वंय”?
4. मानसिक पहलू : महिला शारिरिक रूप से भारी काम,कठिन काम, भाग-दौड़ वाले काम नही करना चाहेंगी , यह “मानव शरीर विज्ञान” के अनुसार भी उचित नही ठहरता…… !
5.विशेष पहलू : 1.”महिला शारिरिक हिंसा के खिलाफ स्वयं क्यों नही बोल रही, एक विशाल आन्दोलन के स्वरूप मै,जबकि ऐसा संभव है “? 2. “एकजुटता/जागरूकता की कमी क्यों है, क्या इसके लिए भारत में वर्तमान समय में पुरूष जिम्मेदार है, अगर हैं तो हल क्या हो, शोध का विषय है” ? 3.”क्या भारतीय महिलायें ‘नारीवादी आन्दोलन’ की आवश्यकता महसूस करती है, अन्य पश्चिमी देशों की भांति”? 4.”क्या ग्रामीण महिलायें ‘Faminism- she/her’ का मतलब भी जानती है, जानना जरूरी है या उन्हें शहरी महिलाओं कि भांति सर्वप्रथम शिक्षा की आवश्यकता है”? 5.”क्या महिलायें एक दूसरे के बारे में सोचती है, शारिरिक दुष्कर्म में उनके क्या मत है”? 6.”क्या पश्चिमि समाज पूर्ण रूप से हर मायने में सही है” ? 7.”भारत समाज के अनुसार उचित क्या हो,इस पे चर्चा होती है”? 8.”क्या गुलामी का प्रभाव और उसके परिणामों का आंकलन आजादी के 75 साल के बाद भी उचित रूप से हुआ है”? 9.”क्या आजादी का मतलब सिर्फ ‘पश्चिमी वेश-भूषा'( छोटे कपड़े ) ही है, यह विषय बहस से ज्यादा सोचने का विषय है कि क्या उचित हो” ? 10. “क्या ‘सामाजिक मुद्दे’ गणित के आंकणों से समझे जा सकते है, जो कि कुछ विशेष शर्तो के अनुरूप ही तैयार किये जाते हो”?
अंत मै क्षमा चाहूगां,कुछ भी गलत जानकारी जो अज्ञानता वश मेरे द्वारा लिख दी गयी हो, उपरोक्त जानकारी मेरे अपने अनुभव एवं किताबों,इंटरनेट के अनुसार है,जिनकी प्रमाणिकता के बारे में नही कह सकता कि वो उचित है, मेरे खुद के अनुभव के लिए में जिम्मेदारी लेता हूँ ! आप स्वयं भी सोच विचार अथवा जाँच कर सकते है !
विषेश अनुरोध सोच विचार हेतु: “भारत महिलाओं के लिए सबसे बेहतरीन देश बन सकता है अगर हम सिर्फ थोड़ी जागरूकता/ एकजुटता/ शिक्षा को सभी भारतीय महिलाओं/पुरूषों तक उचित रूप से पहुचायें” !
धन्यवाद आपका !