30 पैसे पर पीस में खट रही हैं देश की पौने चार करोड़ गुमनाम महिला वर्कर, बस राशन का कर पाती हैं जुगाड़
(ये लेख अंग्रेज़ी न्यूज़ वेबसाइट स्क्रॉल पर साल भर पहले 25 अक्टूबर 2017 को प्रकाशित हुआ था। होमनेट साउथ एशिया की इंटरनेशनल कोआर्डिनेटर जाह्नवी दवे ने ये लेख लिखा है, तस्वीरें भी उन्हीं की ली गई हैं। देश भर में गुमनाम पौने चार करोड़ आबादी किस हालत में ज़िंदगी जी रही है, ये कहानी उनके बारे में है। किस तरह न्यूनतम मज़दूरी से भी कम, लगभग राशन ले पाने लायक पगार पर ये महिलाएं किस तरह दुनिया के बेहतरीन और महंगे ब्रांडों के लिए अपनी जिंदगी खपा दे रही हैं, ये बानगी भर है। मेहनतकशों के जीवन के विविध पहलुओं को सबसे सामने लाने के संकल्प के साथ हम इस स्टोरी को साभार अनुवादित और संपादित कर यहां प्रकाशित कर रहे हैं। सं.)
किसी भी प्रोडक्ट को अंतिम रूप देने में इनका योगदान भले ही सबसे अहम हो, लेकिन भारत के करीब 3.74 करोड़ घरेलू कामगारों को वो बड़ी कंपनियां और बायर्स जानते तक नहीं हैं जिनके लिए ये दिन रात मेहनत करती हैं।
ये तो बस गुमनाम तरीके से बड़े ब्रांडों के कपड़ों को बनाने का काम करती हैं।
दिन रात इसके लिए मेहनत करती हैं और इसके बदले में ठीक से पारिश्रमिक भी नहीं मिलता।
ये घर से ही काम करती हैं यानी वर्क फ्रॉम होम। इन्हें ये भी नहीं पता होता कि ये किस कंपनी के लिए काम कर रही हैं, लेकिन जिन कपड़ों को ये बनाती या सिलती हैं उनकी क्वालिटी देखकर इन्हें इतना ज़रूर मालूम हो जाता है कि ये किसी बड़ी कंपनी के लिए है।
ऐसी ही एक घरेलू महिला कामगार वल्लीअम्मा टी शर्ट्स तैयार करने का काम करती हैं।
इस काम के लिए वो सुबह 5 बजे ही उठ जाती हैं। फिर इन्हें बनाकर 11 बजे तक कॉन्ट्रैक्टर को देना होता है।
ये काम किसी ग्लोबल ब्रांड के महत्वपूर्ण ऑर्डर का हिस्सा होता है लेकिन चूंकि इस पर कोई लेबल इसलिए कौन से ब्रांड का ऑर्डर है ये पहचानना मुश्किल होता है।
लेकिन डिलिवरी को लेकर तय किए गए तय समय और कपड़ों की क्वालिटी को देखकर वल्लीअम्मा समझ जाती हैं कि ये ऑर्डर किसी बड़े ब्रांड के लिए है।
वो ये काम पिछले दो दशक से कर रही हैं, लेकिन इसके लिए उन्हें हर टी शर्ट के हिसाब से बस 50 पैसे मिलते हैं।
उनकी बनाई टी शर्ट ग्लोबल मार्केट में भले ही हजारों में बिके लेकिन उनका पारिश्रमिक तय है।
इस लंबे सप्लाई चेन के तहत काम करने वाले ज़्यादातर कारीगरों का हाल वल्लीअम्मा जैसा ही है।
वल्लीअम्मा उन 40,000 घरेलू कामगारों में से एक हैं, जो तमिलनाडु के कोयम्बटूर के पास तिरुपुर की गार्मेंट मैन्यूफैक्चरिंग इंडस्ट्री के लिए काम करती हैं।
वो रोज 8 से 10 घंटे तक काम करती हैं। फिर उन्हें अपने बीमार पति और दो बच्चों को भी देखना होता है।
घरेलू कामगार यानी होम वर्कर्स घर से काम करने वाले कारीगरों की एक सब कैटेगरी है जिन्हें किसी कंपनी, व्यापारी, बिचौलियों या सब कॉन्ट्रैक्टर्स के जरिए प्रति पीस के हिसाब से ठेके पर रखा जाता है।
इन्हें पीस रेट बेसिस के हिसाब से ही मजूरी भी दी जाती है।
ये ज़्यादातर अपने घर से काम करती हैं। बाजार से इनका सीधा संपर्क नहीं होता। भारत में ऐसे 3 करोड़ 74 लाख होम बेस्ड वर्कर्स हैं।
होमवर्कर्स कई उद्योगों के लिए काम करती हैं। इनमें मैन्यूफैक्चरिंग, होलसेल और रिटेल ट्रेड, सामाजिक और व्यक्तिगत सेवाएं, होटल और रेस्टोरेंट इंडस्ट्री शामिल है।
ये फाइनल प्रोडक्ट को तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं लेकिन कंपनियां और बायर्स इन्हें जानते तक नहीं।
बिचौलियों से काम लेने देने की वजह से ही इनके काम को न तो कंपनियों की तरफ से कोई पहचान मिलती है न ही सरकार और समाज की तरफ से।
भुवनेश्वर की करगिल बस्ती में पापड़ बनाने वाली होम वर्कर संयुक्ता मुदुली बताती हैं कि होम बेस्ड वर्कर्स को रेगुलर वर्कर्स से कम पैसे मिलते हैं लेकिन इतने पैसों में ही वो अपने परिवार की देखभाल कर लेती हैं।
उनके परिवार में चार लोग हैं और इन पैसों से ही उनका घर चलता है।
संयुक्ता दिन में करीब 6 से सात घंटे तक पापड़ बनाने काम करती हैं। इसके बाद उन्हें घर का काम भी करना होता है।
संयुक्ता का कहना है कि ये काम उन्होंने चुना नहीं है, लेकिन इसके अलावा उनके पास कोई विकल्प भी नहीं है।
दिल्ली के ऐसे ही सप्लाई चेन में काम करने वाले वर्कर्स का हाल भी कुछ खास अच्छा नहीं।
इन्हें नियमित रूप से काम भी नहीं मिलता। हर महीने कितना काम मिलेगा ये भी तय नहीं है।
यहां के ज़्यादातर होम वर्कर्स कपड़ों पर कढ़ाई का काम करती हैं। इसलिए पूरे दिन में दो पीस ही तैयार कर पाती हैं जिनके लिए इन्हें 70 रुपए मिलते हैं।
तिरुपुर के वर्कर्स को कपड़े सिलने का काम करना होता है। उन्हें इसके लिए प्रति पीस 30 से 75 पैसे मिलते हैं।
चूंकि काम आसान होता है इसलिए ये एक दिन में 200 पीस तक तैयार कर लेती हैं।
लेकिन दोनों राज्यों की तरफ से तय पारिश्रामिक की बात करें तो दोनों ही राज्यों के इन वर्करों को वो न्यूनतम पारिश्रामिक नहीं मिलता जो सरकार ने तय किया है।
घरेलू महिला कामगारों की दिक्कतों में एक उनके रहने की ठीक जगह का न हो पाना भी है।
ये घरों से ही काम कर रही होती हैं जहां न तो इनके लिए अलग से शौचालय होता है और न ही पानी की व्यवस्था।
इन वजहों से भी इनके काम पर असर पड़ता है जिसके चलते उत्पादकता कम रहती है।
एचएनएसए , विएगो और हार्वर्ड साउथ एशिया इंस्टीट्यूट ने अपने एक अध्ययन ‘इंश्योरिंग एक्सेस टू बेसिक सर्विसेज फॉर द होम बेस्ड वर्कर्स: लर्निंग्स फ्रॉम भुवनेश्वर’ में भी कहा है कि अगर इन घरों को बेसिक सुविधाएं उपलब्ध कराया जाए तो उत्पादकता बढ़ सकती है।
अध्ययन में पाया गया कि अगर बेसिक साफ़ सफ़ाई आदि की सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं तो हर साल इनकी आमदनी में 2,900 रुपये से लेकर 17,600 रुपये तक बढ़ोत्तरी हो जाएगी और साथ ही कामगार और उनके परिवार के सदस्य बार बार बीमार नहीं पड़ेंगे और बीमारियों पर होने वाले खर्च को भी कम किया जा सकता है।
मुनीरा बेगम कहती हैं कि ‘शांतिपल्ली हर साल बाढ़ से घिर जाता है। भारी बारिश और सीवर के उफान से घर में महीनों तक पानी का जमाव या सीलन बनी रहती है। मानसून के तीन महीनों में भी मैं अगरबत्ती बनाने का काम करती हूं। उन दिनों इन्हें सुखाने में भारी मुश्किल का सामना करना पड़ता है।’
नोटबंदी और जीएसटी ने इन कामगारों की और कमर तोड़ दी है। लर्न महिला कामगार संगठन द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट से पता चला है कि इन सरकारी नीतियों के कारण काम कम हो गया है, उस दौरान पुराने नोटों में भुगतान हुआ और बाद में काम करने के पैसे भी नहीं मिले। जिससे कर्ज में बढ़ोत्तरी हुई, बच्चों की शिक्षा, खाने और कपड़े पर खर्च कम करना पड़ा और दवा इलाज पर खर्च बढ़ गया।
इस लगभग पौने चार करोड़ कामगारों की असली समस्या तो न्यूनतम मज़दूरी का है।
1990 से शुरू हुई उदारवादी नीतियों ने एक तरफ तो उद्योगपतियों, कार्पोरेट घरानों के मुनाफ़े को अकूत बढ़ा दिया है दूसरी तरफ मज़दूरी के शोषण को इतना अधिक बढ़ा दिया है कि मेहनत करने वालों की ज़िंदगी नारकीय बन गई है।
भारत में सत्तारूढ़ भाजपा और इससे पहले कांग्रेस ने श्रम क़ानूनों को इतना लचीला बना दिया है कि पूंजीपति मनचाहा शोषण करने के लिए आज़ाद हो गए हैं।
सबसे बड़ा सवाल है कि परमानेंट नौकरियां खत्म करके ठेकेदार, उसके नीचे एक और ठेकेदार और फिर ठेकेदार के नीचे ठेकेदार की प्रथा के मार्फत शोषण का ये पहिया कब रुकेगा?
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