करोड़ों कामकाजी महिलाएं यौन उत्पीड़न के रिस्क में जीने को मजबूर- रिपोर्ट
जिस देश में साल में दो बार खासतौर पर देवियों को पूजने के खास दिन हों। माता के जयकारे और आराधना के मंत्रों का जाप होता हो, वहां उनकी जिंदगी मध्ययुगीन बर्बरता से सामना कर रही है।
नवरात्र से तीन दिन पहले ह्यूमन राइट वॉच की न्यूयॉर्क से जारी रिपोर्ट देखकर दुनिया सन्न है।
रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 95 प्रतिशत (19 करोड़ 50 लाख) महिला श्रमिक अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत हैं। इनमें स्ट्रीट वेंडर, घरेलू काम, कृषि और निर्माण से लेकर घर के काम जैसे बुनाई या कढ़ाई जैसे काम शामिल हैं।
सरकार की एकीकृत बाल विकास सेवाओं के तहत 26 लाख नौनिहालों की देखभाल करने वाली और आंगनबाड़ी पोषण कार्यकर्ता, दस लाख से ज्यादा मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा) हैं, जो स्वास्थ्य विभाग की रीढ़ की तरह हैं।
इसके अलावा 25 लाख मिड डे मील के रसोइए, जो सरकारी स्कूलों में दिए जाने वाले खाने को तैयार करते हैं।
महिलाओं को कार्यस्थल पर कोई सुरक्षा नहीं
ह्यूमन राइट वॉच के सर्वे में एक महिला ने कहा, ‘मेरे जैसी महिलाओं के लिए, सुरक्षा क्या है? गरीबी और कलंक लगने का डर होता है, हम कभी बाहर नहीं बोल सकते हैं। एक अन्य ने कहा, एक सुरक्षा गार्ड द्वारा यौन उत्पीडऩ किया गया था। हमारे जैसी महिलाओं के लिए कोई जगह सुरक्षित नहीं है।’
2013 का अधिनियम नियोक्ताओं को कार्यस्थल में महिला कर्मचारियों को यौन उत्पीडऩ से बचाने के लिए ढांचा बनाना, शिकायत निस्तारण और जरूरी सहायता देना था।
इस अधिनियम में कार्यस्थल की परिभाषा का दायरा भी बढ़ाया गया, जिससे घरेलू कामगार महिलाओं समेत अनौपचारिक क्षेत्र को कवर किया। लेकिन ऐसा किया नहीं गया।
ये कानून 1997 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थापित ‘विशाखा दिशानिर्देश’ पर आधारित है। अधिनियम में नियोक्ताओं को प्रत्येक कार्यालय में 10 या उसे अधिक कर्मचारियों के साथ एक आंतरिक समिति बनाना जरूरी है।
इससे कम संख्या वाले प्रतिष्ठानों और अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं के लिए जिला अधिकारी को समिति बनाना है। जिससे शिकायतों पर त्वरित कार्रवाई हो और पुलिस भी शिकायत दर्ज करे।
महिलाओं की मजबूरी
अधिनियम के पालन को बाकायदा ट्रेनिंग, जागरुकता कार्यक्रम, कार्यस्थल पर यौन उत्पीडऩ का आंकड़ा रखने की जिम्मेदारी सरकार पर है। हालांकि, हकीकत यही है कि ये कमेटियां अमूमन कहीं वजूद में नहीं आईं। जहां गठित हुईं, वे निष्क्रिय हैं। यहां तक कि कोई खास जानकारी तक इन समितियों के बारे में नहीं मिलती।
वरिष्ठ ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता सोनिया जॉर्ज ने कहा, जब तक कि असहनीय स्थिति नहीं हो जाती, तब तक ज्यादातर महिलाएं चुपचाप रहती हैं या फिर सिर्फ दूसरी नौकरी पाने की कोशिश करती हैं। वे अपने परिवारों को भी बताना नहीं चाहतीं क्योंकि उन्हें डर रहता है कि उन्हें काम करने से रोक दिया जाएगा।
घरेलू महिला कामगारों का तो कोई हिसाब ही नहीं है। जबकि अधिनियम कहता है कि समिति न होने पर पुलिस को मामले देेखना चाहिए। ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि भारत सरकार को यह सुनिश्चित करने के लिए कानून में संशोधन करना चाहिए कि घरेलू कामगारों को स्थानीय समितियों के माध्यम से समयबद्ध न्याय की पहुंच हो।
अधिकांश निजी क्षेत्र की कंपनियों में आंतरिक समितियां हैं, आमतौर पर कागज पर। इनकी तरक्की के लिए सरकार ने श्रम कानून तक बदल डाले हैं। वहीं, यौन उत्पीडऩ मामलों की निगरानी और जवाबदेही के लिए सरकार ने कोई प्रणाली विकसित नहीं की है, न ही कोई नियमित रिपोर्ट जारी होती है।
रिपोर्ट के मुताबिक, वैश्विक स्तर पर चले ‘मी टू आंदोलन ’ से प्रेरित कामकाजी महिलाएं, जो काफी शिक्षित और ओहदेदार थीं, उन्होंने जब पुरुषों की शिकायतें कीं तो उन्हें कानूनी कार्रवाई में घसीटने की धमकी, बदले की कोशिशें और रिश्वत देने तक के प्रयास हुए।
कई आरोपियों ने ऐसी महिलाओं के खिलाफ औपनिवेशिक युग के आपराधिक मानहानि कानून का इस्तेमाल किया, जिन्होंने बोलने की हिम्मत की।
ये भी एक पैमाना है कि आर्थिक और सामाजिक तौर पर कमजोर तबकों की महिलाएं ऐसी आवाज उठाने के लिए कितना समर्थ हो सकती हैं!
सितंबर 2020 में उत्तर प्रदेश के हाथरस कांड की शिकार हुई 19 वर्षीय दलित युवती के साथ सामूहिक बलात्कार और हत्या ने भारत में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के साथ गरीबी और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के खिलाफ रचे जाने वाले कुचक्र को उजागर किया।
सरकार से लेकर अफसरों की कारगुजारी से इंसाफ की दहलीज तक पहुंचने के रास्तों में बाधाएं पैदा कर दी गईं, ये सबने देखा।
(स्रोत: ह्यूमन राइट वॉच की रिपोर्ट, भावानुवाद: आशीष आनंद)
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