‘हम तेज़ी से ऊपर बढ़ रहे थे, पर अब लगता है किसी ने वो सीढ़ी ही छीन ली’: लॉकडाउन की मार झेलतीं कामकाजी महिलाओं की दास्तां

‘हम तेज़ी से ऊपर बढ़ रहे थे, पर अब लगता है किसी ने वो सीढ़ी ही छीन ली’: लॉकडाउन की मार झेलतीं कामकाजी महिलाओं की दास्तां

By सौम्या लखानी

“मेरी चार साल की बच्ची है मैं उसे खुद से कभी दूर नहीं करती थी, पर लॉकडाउन में मुझे ये करना पड़ा। मैं अपनी बच्ची को एक ग्लास दूध भी नहीं दे सकती हूं।” ये कहानी 29 साल की रेशमा की है।

रेशमा पोस्टग्रेजुएट हैं और एनर्जी पॉलिसी इस्टिट्यूट मे जॉब करती थीं। इनकी जॉब एक महीने पहले छूट गई। हाथ में काम न होने के कारण रेशमा ने अपनी बेटी को मां के यहां भेज दिया। रेशमा बताती हैं, “मेरे पास काम नहीं है इस बात का दर्द मेरी मां ही समझ सकती है।” रेशमा के पति के पास कोई काम नहीं था, हाल ही में उन्हें पेट्रोल पंप पर काम मिला है।

साउथ दिल्ली के संगम बिहार के प्राइवेट स्कूल में 12,000 हजार रुपये माह पर काम करने वाली शिक्षिका की नौकरी अप्रैल में चली गई। इनके सिर पर 40,000 हजार रुपये का लोन है।

वो बताती हैं, “पांच महीने बाद जाकर बड़ी ही मुश्किल से नौकरी मिली है पर वेतन इतना कम है कि बताते हुए भी शर्म आती है। मेरे परिवार ने इतनी भयंकर गरीबी इसके पहले कभी नहीं देखी।”

साउथ दिल्ली के मूलचंद पार्लर मे काम करने वाली प्रिया 10,000 हजार रुपये माह कमाती थीं, इनके साथ पापा की भी नौकरी चली गई। खाने-पीने के लिए कोई पैसा नहीं है, सिर पर कर्ज का बोझ है। पाई-पाई कर के पैसा बचा रहे हैं ताकि लोन को भर सकें।

Women protesters at Jantar Mantar @workersUnity
लॉकडाउन में गई नौकरियों और सुविधाओं में कटौती के ख़िलाफ़ नौ अगस्त 2020 को जंतर मंतर पर कामकाज़ी महिलाओं और आशा वर्कर्स ने प्रदर्शन किया। फ़ोटोः वर्कर्स यूनिटी

कमा रही थीं, अब कर्ज़ में

प्रिया कहती हैं, “दिल्ली सरकार की तरफ से जो भी मदद मुहैया कराई गई है हम उसपर ज़िंदा रहने की कोशिश कर रहे हैं। हम ग़रीब हैं। आगे बढ़ने की बजाय इस लॉकडाउन के कारण पीछ जा रहे हैं।”

शहरों में अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे पटरी पर आ रही है। पर लॉकडाउन ने जो घाव पहुंचाया है इसे बयां करना बेहद मुश्किल है। कोरोना ने कामकाजी महिलाओं पर शांति से प्रहार किया है जिनकी नौकरी अचानक चली गई।

राजधानी में रेशमा, प्रिया, शिक्षिका, पार्लर में काम करने वाली महिला, होटल में काम करने वाली महिला और न जाने कितनी महिलाओं की यही कहानी है। ये सभी अपनी पीढ़ी में कमाने वाली पहली महिला हैं। ये गर्व से अपने परिवार का पेट पालती थीं, पर लॉकडाउन ने सब बर्बाद कर दिया।

कई महिलाएं घर से खाली हाथ बड़े-बड़े सपने लेकर निकली थीं। वो अपने सपनों को पूरा भी कर रही थीं। पर अचानक लॉकडाउन लगने से बाज़ार, दुकान, पार्लर बंद हो गया और ये सभी कर्ज तले दबने लगी।

कुछ महिलाएं दो वक्त की रोटी के लिए घर का सामान बेच कर गुजारा कर रही हैं। तो वहीं कुछ टूटे सपनों के साथ फिर से अपने घर का रुख कर रही हैं। कई महिलाएं अभी भी इस महामारी से उत्पन्न हुई आर्थिक तंगी का सामना डटकर कर रही हैं।

दिल्ली में कोरोना बढ़ते ही जा रहा है। इस बात को मद्दे नजर रखते हुए अरविंद केजरीवाल की अगुवाई वाली सरकार ने दिल्ली में होने वाली शादियों के नियमों में बदलाव कर दिया।

घर का सामान बेचना पड़ा

वहीं सरकार ने घोषणा की है कि, कोरोना के नियमों का कड़ाई से पालन नहीं किया गया तो बाजारों को कुछ समय के लिए बंद करना होगा। यदि ऐसा हुआ तो इऩ महिलाओं जैसी लोगों के लिए मुश्किल बढ़ जाएगी, जो पहले से ही गरीबी की कगार पर खड़े हैं।

आठ भाई-बहनों में सबसे बड़ी 24 साल की आरती कश्यप एक निजी कंपनी में प्रोजेक्ट सुपरवाइजर हैं। 25,000 रुपये माह कमाती हैं। इनकी मां जंगपुरा में दूसरों के घरों में खाना बनाने का काम करती हैं। जिसके जरिए अतिरिक्त 8,000 रुपये हर महीना घर में आता था। पर अब दोनों तरफ से आमदनी आना बंद हो गई है।

आरती और उनकी मां की नौकरी अप्रैल में चली गई। सेविंग के नाम पर कुछ रुपये थे। दाल-रोटी के लिए पहले घर में पड़ी पुरानी टीवी बेचीं फिर आलामरी, उससे भी पूरा नहीं पड़ा तो 50,000 रुपये का लोन लिया। पिता जी हमेशा बीमार रहते हैं। उनकी दावाई के लिए रिश्तेदारों से 30,000 रुपये उधार लिए हैं।

दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सीसोदिया कहते हैं कि दिल्ली में 60 प्रतिशत नौकरियां कोरोना के कारण गई हैं। वहीं आरती की कहानी इस बात का उदाहरण पेश करती है।

इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए मनीष सीसोदिया कहते हैं, “इतनी तैयारी के बाद भी महामारी का असर अब दिखना शुरू हो गया है। हमारी सरकार की फ्री बिजली, पानी, यात्रा वाली स्कीम से महिलाओं को बहुत फायदा हुआ है। मैं जब भी झुग्गी झोपड़ियों में जाता हूं तो ये बात वहां के लोग कहते हैं। बीमारी के अलावा इस देश में रोजगार, भुखमरी जैसा भी मुद्दा है यही कारण है कि हमारी सरकार ने जल्द से जल्द लॉकडाउन को खोलने का फैसला लिया। अब बाकी राज्य भी यही कर रहे हैं।”

लॉकडाउन दुःस्वप्न बना

जो महिलाएं शहरों में आकर अपने सपनों को हकीकत में बदलने का साहस करती हैं। उनके लिए ये समय अब बहुत ही मुश्किलों से भरा होगा।

आरती कहती हैं, “हमने बहुत गरीबी देखी है। पापा घर में अकेले ही कमाने व्यक्ति थे। उनके दम पर ही घर चलता था। फिर मैंने और भाई ने कमाना शुरू किया। इससे छोटे- मोटे शौक पूरे किए। एक मोटरसाइकिल भी खरीदी। लग रहा था की हमारा समय बदलने वाला है। अब अच्छा वक्त आने वाला है पर क्या पता था 2020 हमें इनता बुरा वक्त देगा।”

नोएडा में रहने वाली 38 साल की हेमलता के पास 15 साल का शिक्षिका के तौर पर अनुभव है लेकिन फिर भी नौकरी के लिए दर-दर भटक रही हैं।

हेमलता निजी स्कूल में पीटी टीचर के तौर पर काम करती थीं। अप्रैल में इन्हें ले ऑफ पर भेज दिया गया।

हेमलता बताती हैं, “ऑनलाइन कौन पीटी कराता है। घर चलाने के लिए मैंने 40,000 हजार कर्ज लिया है। इस उम्मीद पर की जब नौकरी मिल जाएगी तब कर्ज लौटा दूंगी। आर्थिक हालत इतने ख़राब हो गए हैं कि, बच्चों को टयूशन से निकालना पड़ा। घर का किराया नहीं दे पा रही हूं।”

अगर परिवार का पूरा भार हेमलता पर है तो वो उनके स्वतंत्र होने की कीमत है। जिसे अब वो नहीं निभा पा रही हैं।

वहीं 23 साल की पूजा जो बरेली से बड़े शहर कमाने की ख्वाहिश से आई थीं, इस चाह ने उनके माता-पिता के रिश्ते के बीच कड़वाहट पैदा कर दी। जो कभी भी अपनी बेटी को बड़े शहर नहीं भेजना चाहते थे।

‘लगता है किसी ने सीढ़ी छीन ली..’

वो अपने पॉकेट मनी से बचाए हुए पैसे के दम पर दिल्ली चली आई थीं। घर का किराया देने के लिए एक क्लाइंट से उधार लिया। इस महीने उसे काम मिल गया पर वेतन काट कर मिलता था।

पूजा बताती हैं, “छोटे शहरों में आगे बढ़ने का कोई ज़रिया नहीं है। मेरे माता पिता ने कभी सोचा भी नहीं था कि उनके बच्चे दिल्ली जाएंगे वो भी एक लड़की। मैं हमेशा रेस्टोरेंट में काम नहीं करना चाहती थी। मुझे अनुवादक बनना था। इसलिए मैंने जर्मन भाषा सिखनी चाही एक लाख रूपए भी बचा लिए थे पर लॉकडाउन में सब खत्म हो गया मुझे सब कुछ फिर से शुरू करना होगा।”

एक नौकरी किनती अहम है और इसका वेतन वो भी परिवार से अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ते रहना, ये बात मेहरुन्निसा शौकत अली
को बहुत अच्छे से पता है।

वो कहती हैं, “मैं रूढ़िवादी सहारनपुर के मुस्लिम परिवार से ताल्लकु रखती हूं। जहां पर औरतों को काम करना तो दूर बाहर निकलने की इजाज़त नहीं होती है। मैंने काम किया उसके लिए पापा से लड़ी, भाई से लड़ी और आखिर में समाज से लड़ी। तब जाकर मैं बाउंसर और सिक्योरीटी गार्ड बन पाई।”

वो दो काम करती थीं। दिन में वे शाहपुर के बिजनेस वीमेन में बाउंसर की नौकरी और रात में बीजी बार में सिक्योरिटी गार्ड की। दोनों नौकरी के जरिए वो 45-50,000 रुपये महीना कमा लेती थीं।

“जब मैं पैसा कमा कर देने लगी तो घर की रानी बन गई। अब हम गरीब नहीं रहे। मार्च में मेरी नौकरी गई और बिजनेस वीमेन पंजाब चली गई।”

शौकत अली आगे कहती हैं, “मैंने 3.5 लाख रुपये की सेविंग की थी। लॉकडाउन में किसी से पैसे उधार तो नहीं लिए पर सेविंग खत्म होने की कगार पर है। मुझे एक काम मिला है पर पता नहीं वो लोग कितना वेतन देंगे शायद 15,000 हजार पर। जो भी हो मुझे ये काम करना ही होगा मेरे पास और कोई चारा नहीं है।”

आखिर में अली कहती हैं, “एक-एक कदम हम उपर की तरफ बढ़ रहे थे पर अब ऐसा लगता है किसी ने हमसे सीढ़ी छीन ली है।”

(ये स्टोरी इंडियन एक्सप्रेस में 19 नवंबर को प्रकाशित हुई थी, जिसका भावानुवाद किया है खुशबू सिंह ने। इंडियन एक्सप्रेस से साभार ये स्टोरी प्रकाशित की जा रही है।)

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Workers Unity Team

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