महिला कामगारों के लिए बद से बदतर होती परिस्थितियां

महिला कामगारों के लिए बद से बदतर होती परिस्थितियां

 By हेमंत कुमार झा

पिछले वर्ष, या शायद उससे पिछले वर्ष निजी क्षेत्र में कार्यरत एक महिला सिक्योरिटी गार्ड के इसलिये मर जाने की खबर अखबारों में आई थी, क्योंकि उसकी गर्भावस्था के अंतिम चरण में पहुंचने के बावजूद कंपनी ने उसे छुट्टी देने से इन्कार कर दिया था।

जैसा कि खबरों में कहा गया था, कंपनी छुट्टी के बदले वेतन की कटौती पर अड़ी थी और एक-एक दिन के वेतन को बचाने की ज़द्दोज़हद में वह गरीब महिला अंतिम हद तक ड्यूटी बजाने की कोशिशें करती रही थी। फिर, कुपोषण और उचित आराम न मिलने से वह अपने ड्यूटी स्थल पर ही मर गई।

कुछेक समाचार माध्यमों में यह खबर आई और फिर खबरों के रेले में गुम हो गई। कहीं कोई खास स्पंदन नहीं। कहीं कोई खास चिंतन नहीं।

जबकि, इस घटना के बाद महिला अधिकारों के लिये कार्यरत संगठनों को विरोध में देशव्यापी अभियान चलाना चाहिये था, विश्वविद्यालयों में स्त्री विमर्श वाले विभागों में चिंतन संगोष्ठियां आयोजित होनी चाहिए थी, कवयित्रियों को शोकगीत लिखने चाहिये थे और…अगले कुछ वर्षों में रोजगार के बाजार में दस्तक देने वाली कॉलेज छात्राओं को विरोध मार्च निकालना चाहिये था।

इस घटना के बाद छाई रही अफसोसनाक चुप्पी ने अहसास कराया कि अभी भी इस देश में स्त्री विमर्श के सरोकार सैद्धांतिक तौर पर चाहे जितने व्यापक हों, व्यावहारिक तौर पर यह ‘अपर मिड्ल क्लास’ के सरोकारों तक ही सीमित है।

हजारों वर्षों से धर्म सत्ता और पितृ सत्ता से जूझते स्त्री विमर्श के सामने नव उदारवादी अर्थव्यवस्था ने कितनी चुनौतियां बढ़ा दी हैं और हासिल किए जा चुके अधिकारों को किस तरह खत्म करते जा रही है, इसका आकलन करने के लिये विश्वविद्यालयों के स्त्री विमर्श वाले विभागों में शोध हो रहे होंगे। नहीं हो रहे या कम हो रहे तो होने चाहिए, बहुत सारे शोध होने चाहिए।

शताब्दियों के संघर्षों से धीरे-धीरे प्राप्त होते गए अधिकारों को तेजी से छीनती जा रही इस व्यवस्था ने स्त्री आंदोलनों को गरीब महिलाओं के संदर्भ में सिर के बल खड़ा कर दिया है।

दुखद यह है कि इन गरीब कामगार महिलाओं की आवाज, इनके मुद्दे सैद्धांतिक तौर पर चाहे जितने महत्व पाते रहे हों, व्यावहारिक तौर पर इन्हें लेकर कुछ खास हलचल नहीं हो रही।

ऐसी कामगार महिलाओं के लिये मातृत्व एक समस्या बन कर आ खड़ी होती है क्योंकि निजी नियोक्ता इस संदर्भ में बेहद अनुदार हैं। इस अनुदारता को अमानवीयता की श्रेणी में रख सकते हैं।

अमानवीयता…यह इस सिस्टम की अंतर्धारा में प्रवाहमान है, स्थायी भाव की तरह। और…इसका सबसे बड़ा शिकार निर्धन कामगार तबका है, खास कर निर्धन कामगार महिलाओं का तबका।

कानून

सरकारी क्षेत्र में तो बेहतरीन कानून और सुविधाएं हैं मातृत्व को लेकर, निजी क्षेत्र में भी हैं।

लेकिन…सवाल यह है कि इस देश में निजी क्षेत्र कानूनों का किस हद तक पालन करते हैं। जाहिर है, अधिकतर मामलों में निजी कंपनियां कानून की ऐसी की तैसी करती रहती हैं और गरीब कामगारों की आवाजें व्यवस्था के अंधेरों में गुम होती रहती हैं।

स्थायी होना…यह पहली शर्त है कि कंपनियां अपने किसी स्टाफ को कानून सम्मत सुविधाएं दें। इसलिये, श्रम कानूनों में इतने रद्दोबदल किये जा चुके हैं कि अब निजी क्षेत्र में स्थायी नियुक्तियां बहुत कम होती हैं।

कॉन्ट्रैक्ट, दिहाड़ी, ठेकेदार के माध्यम से…ये कुछ तरीके हैं जिनके द्वारा 90 प्रतिशत से अधिक कामगार निजी कंपनियों में रोजगार पा रहे हैं। जाहिर है, उन्हें कोई सुविधा नहीं मिलती।

सिर्फ इस कोरोना काल में ही नरेंद्र मोदी की सरकार ने श्रम कानूनों में कितने फेरबदल कर डाले हैं, इसकी लिस्ट बनाई जाए तो आंखें हैरत से फैल जाएं और आत्मा हहर जाए। लेकिन, इस देश में इन मुद्दों की ओर झांकते ही कितने लोग हैं।

श्रम कानूनों की बात आपने उठाई नहीं कि आप वामपंथी घोषित हुए, और…वामपंथी घोषित हुए नहीं कि फिर तो…देश द्रोही तक घोषित किये जा सकते हैं।

मसलन, मोदी सरकार ने कम्पनियों को यह छूट दे दी है कि वे अपने स्थायी कामगारों को कांट्रेक्ट कर्मियों में तब्दील कर सकते हैं, नियुक्तियों में स्थायित्व की घोर अवहेलना कर सकते हैं, जब जिसे चाहे रख सकते हैं, जब चाहे हटा सकते हैं। 300 से कम कर्मचारियों वाली कंपनियों को तो इन मामलों में और अधिक छूट मिली हुई है।

जब हम बात करते हैं कि उस गरीब महिला सिक्योरिटी गार्ड की अमानवीय परिस्थितियों में मौत पर कालेजों/विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाली छात्राओं को आक्रोश मार्च निकालना चाहिए था तो, ऐसा इसलिये कहते हैं कि कल वे भी पढ़ लिख कर रोजगार की तलाश करेंगी। सबके लिये ऊंचे पद प्रतीक्षा नहीं कर रहे।

अधिकतर को निजी क्षेत्र की कांट्रैक्ट कर्मी बनना होगा, आउटसोर्सिंग के अभिशप्त और अमानुषिक सिस्टम में शामिल होना होगा, ठेकेदारों के माध्यम से कम्पनियों में दिहाड़ी मजदूर बनना होगा। उन्हें देखना चाहिये कि आगे चल कर जिस सिस्टम में उन्हें शामिल होना है, वह महिला कामगारों के शोषण का कैसा आख्यान रच रहा है।

श्रम कानूनों के परिवर्तन से बेखबर युवा वर्ग

अगर 18-25 आयु वर्ग के ‘कॉलेज/युनिवर्सिटी गोइंग’ युवक-युवतियों का सर्वे करवाया जाए तो पता चले कि उनमें से 90-95 प्रतिशत को बिल्कुल भी यह पता नहीं है, न कोई मतलब है कि बीते महज़ कुछ वर्षों में ही श्रम कानूनों में किस तरह के और किस हद तक परिवर्त्तन किये जा चुके हैं।

यह तब, जब उनमें से अधिकतर को अपनी पढाई पूरी करने के बाद इसी दुनिया में प्रवेश करना है जिसके आर्थिक, सामाजिक और मानवीय मानक बदले जा रहे हैं।

स्थायी के बदले कांट्रेक्ट, कांट्रेक्ट के भी बदले आउटसोर्सिंग, सीधी नियुक्ति के बदले ठेकेदार के माध्यम से काम और पारिश्रमिक मिलना…सोशल सिक्योरिटी के प्रावधानों का निरन्तर सिकुड़ते जाना।

यह सब कामगारों की निरन्तर बदलती और अमानुषिक होती दुनिया का ऐसा सच है जिससे आज के नौजवान संज्ञानात्मक स्तरों पर कोई अधिक वास्ता नहीं रखते, लेकिन, उनका निर्मम सच यही है कि उन्हें आखिर में आना इसी दुनिया में है।

जिस दुनिया में उन्हें आना ही आना है, उसमें आ रहे बदलावों से नितांत असंपृक्त रहना उनका अपना एकांत दोष नहीं, यह उस साजिश का भी हिस्सा है जो व्यवस्था उनके विरुद्ध रचती जा रही है।

उनके अभिभावकों की राजनीतिक प्राथमिकताएं उनके भविष्य पर कुठाराघात कर रही हैं, खुद उनके आयु वर्ग का बड़ा हिस्सा बहुचर्चित ‘व्हाट्सएप युनिवर्सिटी’ का भटका हुआ छात्र बना हुआ है। इतिहास में इतनी आत्ममुग्ध, अपने भविष्य के प्रति गैर जिम्मेदार पीढ़ी कब हुई, यह शोध का विषय हो सकता है।

(वर्कर्स यूनिटी स्वतंत्र निष्पक्ष मीडिया के उसूलों को मानता है। आप इसके फ़ेसबुकट्विटर और यूट्यूब को फॉलो कर इसे और मजबूत बना सकते हैं। वर्कर्स यूनिटी के टेलीग्राम चैनल को सब्सक्राइब करने के लिए यहां क्लिक करें।

Abhinav Kumar

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.